November 13, 2014

कांस्टेबल भी संवेदनशील होता है!

एक ही मकान में मेरे पड़ोस में रहने वाला कांस्टेबल दो दिन से अन्यमनस्क है, चुप सा है, अजीब सी खामोशी में लिप्त है, अनिद्रा का शिकार है। मुझे यह देखकर ताज्जुब हो रहा है कि उसे दो दिन की छुट्टी कैसे मिल गई, जबकि बाह्य तौर पर या कहें लाक्षणिक रूप से वह बीमार भी दिखाई नहीं दे रहा। वरना उसे एक-एक दिन की छुट्टी के लिए जयपुर मुख्यालय तक गुहार लगाते मैंने देखा है।
फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि नित्यप्रति सुबह पांच बजे उठकर दौड़ के लिए निकल जाने वाला, छह बजे अपने दोनों बच्चों को उठाकर दैनिक कार्यों से निवृत्त करा, छत पर उन्हें थोड़ी वर्जिश करा, फिर नहा-धुलाकर आठ बजे उनकी स्कूल वैन आने से पहले एक घंटे पढ़ाई भी करवा लेता। दोपहर को भागते-दौड़ते खाना खाने आता, तब भी जाते-जाते बच्चों को कुछ सबक याद करवा जाता। शाम को आता, तब भी मैं उसे बच्चों के साथ पढ़ाई में ही मशगूल देखता। मुझ जैसा घोर आलसी रोज यह देखकर हैरान रह जाता है कि नौ बजते-बजते उधर के पॉर्शन में बत्तियां गुल हो जाती हैं और एक सन्नाटा पसर जाता है। उसे तोड़ते खर्राटे ही सुनाई देते हैं, बस! यह दैनिक क्रिया पिछले चार माह से मैं अनवरत देख रहा हूं। यही वजह है कि सुबह वह परिवार इतना जल्दी उठ पाता है और हम साढ़े सात बजे उठकर थोड़ी शर्मिन्दगी, थोड़ी झेंप के साथ रोज शपथ ग्रहण करते हैं कि कल से हम भी कोशिश करेंगे, लेकिन जल्दी उठेंगे तो तब ना, जब रात 12 बजे सोने की आदत को बदलकर दस बजे बिस्तर पर आने का अभ्यास करेंगे।
खैर, उसकी खामोशी मुझे दो दिन से अखर रही थी। बच्चों से उसे बतियाते भी नहीं सुना। आज सुबह सच भी सामने आ गया। तीन रोज पहले आधी रात को बाइक सवार एक युवक का एक्सीडेंट हुआ। एक्सीडेंट भी ऐसा दर्दनाक कि एक युवा शरीर सडक़ से इस कदर चिपक गया कि घंटों की मशक्कत के बाद खुरचकर ही बोरी में भरा जा सका। उसे खुरचने वाला कोई और नहीं, मेरा पड़ोसी कांस्टेबल ही था। तब से वह सदमे में है। उसकी खोई-खोई सी आंखों में उस मंजर की भयावहता लहरा रही है! जब से यह जाना है, बड़ी बेचैनी है। एक मलाल भी है कि गाहे-बगाहे, हर कहीं वर्दी वाले को देखते ही ठुल्ला, बेईमान, संवेदनहीन, चोर जैसे मुफ्त के तमगे देने की जल्दी में रहने वाले हम लोग कभी सोचते हैं कि एक कांस्टेबल भी संवेदनशील हो सकता है और वह किन परिस्थितियों में काम करता है, छुट्टी शब्द जिसकी नौकरी में नहीं है, सारे पारिवारिक दायित्वों में लगभग उसकी अनुपस्थिति तय रहती है या भागमभाग में निपटाता है। ऊपर से विभाग से लेकर आम जन की गालियों की बारिश अलग! जो लोग, एक घायल को तत्काल अस्पताल पहुंचाने जितनी संवेदना भी नहीं दिखाते, उसके दस मिनट लेट आने को आराम से गरिया सकते हैं, कोस सकते हैं, भीड़ का हिस्सा बनकर पत्थरबाजी, गालीबाजी, ट्रेफिक जाम, नारेबाजी कुछ भी करने के लिए जैसे अधिकृत हैं। हर नौकरी में लेटलतीफी, बंक मारना, ऑफिस से नदारद रहना, मौजूद रहकर भी काम नहीं करना, छुट्टी मारकर साइन करना (आज तू, कल मैं की तर्ज पर) आराम से चलता है, लेकिन पुलिस में ऐसा मुमकिन नहीं, हर्गिज नहीं!
राजस्थान पत्रिका (जयपुर मुख्यालय) में 12 साल पुलिस बीट में काम कर चुका मेरा मित्र ओमप्रकाश शर्मा बार-बार यही कहता है कि 'अगर सिस्टम कहीं बचा हुआ है, तो सिर्फ पुलिस के कारण। बाकी सारे विभाग फेल हो चुके हैं। मैंने सारे विभागों की कार्यप्रणाली नजदीक से देखी है, लेकिन पुलिस की हर आवश्यक जगह मौजूदगी अनिवार्य है और वह वहां होती है। कहीं सडक़ टूटने, बिजली वालों, टेलीफोन वालों की मेहरबानी से सडक़ खुदने, फिर भरने के लिए पलटकर नहीं आने या रोड पर एक पशु के मारे जाने से जाम लग जाए, तो उसे खुलवाने, पशु उठवाने, गड्ढ़े भरवाने के लिए भी एक आम दिमाग में कोसने के लिए पहली छवि जो उभरती है, वह पुलिस की ही होती है। नगर निगम या सडक़ वाले महकमे के लोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।'
ओमप्रकाश के पास गिनाने के लिए एक लंबी फेहरिस्त है, उसे आप चाहकर भी नकार नहीं सकते।
मेरे उससे सहमत होने के पर्याप्त कारण हैं!