December 17, 2014

एक अदद रजाई
पाकिस्तान को कश्मीर चाहिए, चीन को अरुणाचल प्रदेश चाहिए, अमेरिका को अपनी जेब में दुनिया चाहिए, दुनिया को मुक्ति चाहिए, समाजवादियों को अपना परिवार चाहिए, परिवार को सत्ता चाहिए, कांग्रेस को गुजरे दिन चाहिए, भाजपा को समूचा देश चाहिए, देश को अच्छे दिन चाहिए, अच्छे दिनों को पता चाहिए, मंत्रियों को विवादित बयान चाहिए, बॉलीवुड को चंद हिट चाहिए, क्रिकेट टीम को ऑस्ट्रेलिया में जीत चाहिए, जनता को काम चाहिए, काम को बाबू चाहिए, बाबुओं को आराम चाहिए, छुट्टी भरे दिन चाहिए, दिन को सूरज चाहिए, सूरज को ताप चाहिए, रातों को सुकून चाहिए और इन सबसे परे मुझे एक अदद रजाई चाहिए! इस समय सब चीजें भुलाकर मैं एक अदद रजाई का तलबगार हूं। गोया मौसम ने अपनी ठंड से भरी मिसाइलें चारों ओर तैनात कर दी हैं और लगातार आक्रमण तन-मन को भेद रहे हैं। जर्रे-जर्रे ने ठंड को फैलाने की, मुझे गलाने की साजिश की है। घबराकर मैं बंकर में घुस जाना चाहता हूं। इस समय रजाई से बेहतरीन, सुरक्षित, मजबूत बंकर कोई नहीं। सारी कायनात एक तरफ, रजाई की करामात एक तरफ। सारी सक्रियता को ठंड लग गई है। दिमाग दही सा जम गया है। सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो रही है। छातियां बूझे चूल्हों की तरह ठंडी पड़ी हैं, जिन्हें सुलगाए रखने के लिए 'आग' चाहिए। कहीं से बीड़ीजलाऊ आह्वान भी नहीं कि 'जिगरवा में बड़ी आग' है। दांत गिटार से बज रहे हैं। मुंह इंजन बन गए हैं, भाप का उत्सर्जन जारी है। नाक सदानीरा है। हड्डियों में हलचल नहीं है। मौसम का सितम ऐसा है कि खून का खुद को खून बनाए रहना इस समय सबसे बड़ी चुनौती है, उसे ऑक्सीजन से ज्यादा गर्माहट की सप्लाई चाहिए। ऐसे में रजाई का आविष्कार बड़ी क्रांतिकारी घटना लगती है।
ऐसे माहौल में जिसके पास एक अदद रजाई हो और बंदा उसमें घुसा पड़ा हो, वह दुनिया का सबसे बड़ा सूरमा है। मुझे तो ऐसे सूरमा के लिए नारा भी सूझ रहा है- दाल, बाटी, चूरमा - रजाई वाला सूरमा। सूरमा ही होगा, क्योंकि रजाई में घुसा हुआ व्यक्ति किस्मत का सांड होता है। फिल्मी डायलॉग में कहें तो वह तो पूरा सलमान खान हो जाता है, जो अपने आप की भी नहीं सुनता। और जिनके पास रजाई नहीं, वे सबकी सुनने को मजबूर हैं, विवश हैं, अभिशप्त हैं। उन्हें हर कोई सुनाता है, वे सुनते हैं। कांपते बदन में इतना भी हरकत नहीं होती कि वे खुद को सुनने से मुक्त करने का यत्न कर सकें।
उनकी यह बात समझ से परे है कि कुछ लोग क्यों जेड सुरक्षा के लिए हाय-तौबा मचाते हैं। इस समय जिसे रजाई मिल जाए, उसे और क्या चाहिए। सरकार चाहे तो रजाई विहीनों को यह जेडनुमा सिक्योरिटी देने का ऐलान कर सकती है। इसे अच्छे दिनों की डिलीवरी भी करार दिया जा सकता है। बिना रजाई के सारी बहादुरी बर्फ की तरह जमती है, जरा से ताप से रूई के फाहों की तरह उड़ जाती है। इसलिए लोगों को सब कुछ छोडक़र इस समय रजाई पर फोकस करना चाहिए। सारी दूसरी मांगें छोडक़र रजाई की मांग करनी चाहिए। जरूरत पड़े तो एक 'रजाई संघ ' बनाया जा सकता है। जिसका काम रजाई विहीन लोगों को चिन्हित करना, उनकी मांग उचित मंचों पर उठाना और उन्हें रजाई सम्पन्न बनाना हो। हालांकि अंदेशा यह भी है कि संघ को रजाइयां प्राप्त होते ही वे उसमें घुस जाएंगे, और जरा सी गर्माहट हासिल होते ही अपनी मांग की धार खो देंगे। धीरे-धीरे नैतिक बल भी जाता रहेगा। जिनको अभी तक गरीबी रेखा से बाहर नहीं निकाला जा सका, उन्हें रजाई के भीतर तो धकेलना सरकार की प्राथमिकता होना चाहिए।
यदि जीवन कविता की एक किताब हो, तो इस समय इसका शीर्षक यही होगा- मुझे रजाई चाहिए। जिनके पास रजाई नहीं, उनका दर्द गुरुदत्त के दर्द के लेवल का होता है कि 'यह दुनिया गर भी जाए तो क्या...?'

December 11, 2014

सलाम पालीवाल सर!

अगर आपसे पूछा जाए कि वह क्या है, जो सर्दी, गर्मी, वर्षा किसी भी प्रतिकूल मौसम में किसी भी सूरत में नहीं रुकता...? तो मौजूं वक्त के हिसाब से हो सकता है कुछ लोग रेडियो पर आने वाले मोदी के संबोधन से लेकर विदेश दौरे, अच्छे दिन गिनाएं या अपने-अपने नजरिए से कुछ भी गढऩे लगें, लेकिन मेरी नजर में वह एक शिक्षक हैं, जिन्हें लोग शशि पालीवाल जी के नाम से जानते हैं। वे प्रतिदिन जयपुर से 50 किमी का सफर तय कर स्कूल पहुंचते हैं।
स्कूल जयपुर-लालसोट रोड (जिला दौसा) पर एक आदिवासी बहुल गांव में है, जिसके पास अपने कोई संसाधन नहीं, पर्याप्त बिल्डिंग नहीं, खेल मैदान नहीं, शौचालय नहीं, सबसे जरूरी पढ़ाई का माहौल नहीं...शक्लोसूरत ही नहीं, 'कैरेक्टर' से भी पूरा प्राइमरी स्कूल और गत वर्ष चुनावी चकल्लस में जिसकी मांग में सैकंडरी का सिंदूर भर दिया गया। अब जबरन क्रमोन्नति के भरे गए इस सिंदूर का दर्द कोई सरकार क्या जाने?
खैर, कुल पांच कमरों और दस क्लास वाली स्कूल में मेरी पत्नी को हैडमास्टर लगाया गया। वे साल भर से उसे एक स्तर तक लाने के लिए जूझ रही हैं। 'स्कूल की दशा सुधार कर रहेंगे' का बड़ा अरमान और जोशीला संकल्प लेकर हमने जयपुर रहने के मोह का परित्याग किया और बोरिया बिस्तर उठा गांव में ही रहने चले आए। यहां आकर पता चला कि स्कूलों को सुधारना कोई 'बिग बॉस' के घर का टास्क नहीं, शेरों के खुले पिंजरे में कूद जाने से कम नहीं।
इससे हमें यह फायदा जरूर हुआ कि हम तय समय पर स्कूल पहुंचकर अन्य शिक्षकों पर नैतिक दबाव बनाने की स्थिति में आ गए। हालांकि नैतिक दबाव जैसी किसी काल्पनिक चीज में भरोसा करने वाले यह जानकर बेहोश हो सकते हैं कि नित्यप्रति की लेटलतीफी, बहानों की अंतहीन शृंखला, जल्दी जाने की धुन, क्लास तक न जाने की जहमत, छुट्टी मारकर साइन करने के लिए बच्चों की तरह रूठना-मनना और बच्चों का भविष्य नेस्तनाबूद करने की जिद हो, वहां मरी आत्माओं में ठोकरों से भी कोई हलचल नहीं होती, नैतिक दबाव तो दूर की बात है! ऐसे माहौल में भी शशि पालीवाल जी बिला नागा तय समय पर स्कूल पहुंचते हैं। चार अन्य शिक्षक भी जयपुर से तशरीफ लाते हैं, लेकिन उनके लिए सर्दी, गर्मी, वर्षा का होना लेट हो जाने का एक खूबसूरत बहाना भर है, जबकि पालीवाल जी के लिए एक चुनौती और इसमें हर दिन कामयाब होते हैं वे। लेटलतीफों के बहाने भी ऐसे कि रोज सुनने वाला शर्म से डूब जाए, जैसे, बस निकल गई, रद्द हो गई, फाटक बंद था, टायर पंक्चर हो गया, आज तो बाल-बाल बचे, बच्चा बीमार हो गया, ऐनवक्त मेहमान आ गए, बिल्ली रास्ता काट गई, आज तीए की बैठक में जाना है, रजिस्ट्री करवानी है, आज पूजा रखी है, गरुड़ पुराण का पाठ है, कन्याओं को जिमाना है, दान-पुण्य करने जाना है, सास को मंदिर लेकर जाना है, बच्चे का बर्थ डे है, मैरिज एनिवर्सरी है, वगैरह-वगैरह!
इनके बहाने सुनता हूं, तो शशि पालीवाल जी पर मुझे कभी-कभी शक होने लगता है कि इन्हें इंसान क्यों माना जाए? इंसानों के पास तो बहाने होते हैं, झूठ के पुलिंदे होते हैं, संवेदनहीनता होती हैं, अव्वल दर्जे की काहिली होती है, बच्चों का भविष्य बर्बाद करने की जिद होती है, शिक्षा का बेड़ा गर्क करने की नीयत होती है, जबकि पालीवाल जी किसी दूसरे ग्रह के एलियन्स की तरह अपनी धुन में समय पर पहुंचते हैं, जिनके न परिवार, न बच्चे, न कोई काम, बस मस्ती में झूमते हुए, शान से गर्दन उठाए आते दिखते हैं। यही नहीं, दिन भर स्कूल में प्रत्येक कार्य पूरी तन्मयता से निपटाते हैं। प्रार्थना से लेकर अध्यापन, डाक या इतर कार्य, पूरे समय वे तल्लीनता से लगे रहते हैं! क्लास खाली दिखी नहीं कि दन से पहुंच जाते हैं। शिक्षक कम हों, तो दो-तीन कक्षाओं को एक साथ बिठा व्यवस्था बना लेते हैं। दूसरों के दायित्वों को भी खुशी से अपने सिर ओढ़ लेने का दूसरा नाम है शशि पालीवाल जी। तिस पर न कोई खीज, न झुंझलाहट, न थकान, न किसी से शिकायत। शाम को भी वे मुझे उसी चमक और ऊर्जा के साथ मिलते हैं। मेरी यह जानने में रुचि रहती है कि उनकी इस सक्रियता और कार्यकुशलता का बाकी स्टाफ पर क्या असर पड़ता है। यह जानकर ताज्जुब होता है कि लोग उनसे प्रेरित होने की बजाय उलटा उनका मजाक बनाने में ज्यादा एनर्जी लगाते हैं। वे इससे भी विचलित नहीं होते। हैरत नहीं, आज ईमानदार, कर्मठ, कार्य कुशल लोग मजाक के पात्र ही समझे जाते हैं। जाहिल और भ्रष्टों के दौर में और क्या उम्मीद करें?
मैं उनसे अक्सर पूछता हूं, आप यह सब कैसे कर लेते हैं, तो प्रत्युत्तर में उनका जवाब कम, मुस्कान ज्यादा होती है। मैं समझ जाता हूं, जिनके पास बांटने को मुस्कान हो, उनके काम बोलेंगे और जिनके काम बोलते हैं उनके पास क्यों नहीं मुस्कानों का जखीरा होगा?
ऐसे माहौल में जब शिक्षक कौम (बड़ी संख्या) बच्चों के भविष्य के साथ रोज बलात्कार करती है, पालीवाल जी जैसे शिक्षक प्रशंसित, पुरस्कृत और अभिनंदित किए जाने चाहिए। सरकारों पर यकीन नहीं, क्योंकि वहां के प्रतिमान भी उनके ढर्रे जैसे हैं, लेकिन मैं उनका तहेदिल से शक्रिया अदा करना चाहता हूं।
सलाम पालीवाल सर!

December 06, 2014

श्रद्धा सुमन कुबूल करना, मित्र!

प्रधानमंत्री मुग्ध हो सकते  हैं कि उन्होंने ओबामा को गणतंत्र दिवस पर आमंत्रित कर विरोधियों को एक ही झटके में निपटा दिया है। उनका आत्मविश्वास कहता है कि वे घाटी में 'कमल' खिलाकर विरोधियों को दूसरी बार फिर पीटेंगे। तो दूसरी ओर सरकार के मंत्री 'रामजादों' की परिभाषा तय करने में लगे हैं। कुछ को मरोड़ यह उठ रही है कि मोदी नाम के बढ़ते 'हुदहुद' को कैसे रोका जाए और भानुमति का कुनबा जोडऩे के लिए कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा एकत्र करने में लगे हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो प्रधानमंत्री के विदेश दौरे की प्रतीक्षा में अपने शब्दकोश में आलोचनाओं के नए मुहावरे गढ़ रहे हैं, तो उनकी चिंता यह है भी कि पूर्णकालिक विदेश मंत्री होते हुए भी पीएम खुद ही विदेश मंत्री के अवतार में क्यों नजर आते हैं। सबके अपने-अपने मुहावरे, एजेंडे और सीनाजोरी है। इससे किसी को क्या कि संसद ठप है, बहिष्कार है, काली पट्टियां, काली शॉल और बिना बारिश की आशंका के काले छाते तने हुए हैं। किसी की मराठी मानुष की अस्मिता 'कुर्सियों' की बलिवेदी पर ढेर हो रही है! कुल मिलाकरर सबकी अपने अस्तित्व की छद्म लड़ाइयां हैं, शह-मात के प्रपंच हैं। अपने-अपने आलाप की मुद्रा में लीन इन सबको क्योंकर खबर होगी कि मेरा एक मित्र शहीद हो गया है। सुदूर छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के घात लगाकर किए गए हमले में दर्जन से अधिक जवान गोलियों के शिकार हो गए, जो तकनीकी रूप से 'शहीद' कहलाते हैं।
उस सूची में एक नाम राजेश कपूरिया भी था। कल रात को यह खबर फेसबुक पर पढ़ी, तो सन्न रह गया। नाम सुनकर झटका सा लगा-राजेश कपूरिया! मैं उस राजेश को जानता हूं, जिससे एमए की पढ़ाई के लिए जयपुर पदार्पण पर प्रथम बार मिला था।
दिमाग में 16 साल पहले का वह दृश्य कौंध गया, जब मैं एक बैग और बिस्तर लेकर जयपुर-लुहारू पैसेंजर ट्रेन से उतरकर किसी का इंतजार कर रहा था। वहां पहले से ही जयपुर आकर अध्ययन कर रहा एक मित्र मुझे लेने आने वाला था। वादे के मुताबिक वह तय समय पर जंक्शन पर नहीं मिला, तो मेरी जान सूख रही थी। किससे पूछूं, किधर जाऊं? बार-बार जेब में पड़े मुड़े-तुड़े एड्रेस को पढक़र किसी से पता पूछने की कोशिश कर रहा था कि तभी किसी ने पीछे से धौल जमाई। मैंने हड़बड़ाकर पीछे देखा, तो मित्र को देख तसल्ली हुई। उसने साथ आए नौजवान से परिचय कराया- यह है राजेश कपूरिया! हम अस्थाई तौर पर दसेक दिन राजेश के आवास पर रुके, जो सम्भवत: उसके कश्मीर में तैनात फौजी पिता के नाम से अलॉट था। इस दौरान इतना जान पाया कि वह भी झुझुनूं के किसी गांव का रहने वाला है, कॉमर्स कॉलेज में पढ़ता है और मिलिट्री ज्वॉइन करने की ख्वाहिश रखता है, इसके लिए वह फिजिकल एक्सरसाइज से ज्यादा इंग्लिश से जूझ रहा है। दो बार सीएसडी की एग्जाम क्लियर कर इंटरव्यू दे चुका है और तीसरी बार भी आश्वस्त था। मैं अपने संकोची स्वभाव से बाहर निकल उससे याराना कायम करता, उससे पहले ही हमने अलग कमरा किराए पर ले लिया। उसके बाद यदा-कदा राजस्थान विश्वविद्यालय में वह नजर आया। खासतौर पर लाइब्रेरी में। जब भी बात हुई, इंग्लिश से शुरू होकर इंग्लिश पर ही खत्म हुई। वह तो इस निष्कर्ष पर भी पहुंच चुका था कि शेखावाटी के आदमी को बाहर निकलने पर दो चीजें सबसे ज्यादा परेशान करती हैं, एक तो लहजा, दुसरी इंग्लिश!
रात के 12 बज रहे थे और मेरे जहन में एक ही नाम तैर रहा था-राजेश कपूरिया! छोड़ो यार, नाम तो कितनों के ही एक जैसे हो सकते हैं-मन ने समझाया! लेकिन झुझुनूं दिल धडक़ा रहा था। उसकी तिरंगे में लिपटी तस्वीर को लैपटॉप में डाउनलोड कर कई एंगल से देखा, लेकिन उलझन बरकरार थी। फिर वह तो शांत लेटा था, दीन-दुनिया से बेखबर, जैसे बरसों बाद ढंग की नींद आई हो, न क्लांत, न श्रांत! मन ने किया, इसे ही जगाकर पूछ लूं कि क्या तुम वही राजेश हो, इतने दिन कहां गायब थे दोस्त? क्या इसलिए कि एक दिन अचानक आधी को इस रूप में सामने आकर उलझन में डाल दोगे? गूगल पर सर्च किया, तो भी कोई अन्य तस्वीर नहीं मिली। (जरूरी तो नहीं, गूगल हमारी हर शंका का समाधान करे ही।)
मन में तरह-तरह के खयाल उभर रहे थे। न्यूज में फौजी पिता का उल्लेख भी था। दिमाग ऐसी कई साम्यताओं के आधार पर नतीजे पर पहुंच रहा था कि यह वही राजेश है। लेकिन मन प्रतिकार कर रहा था, तेल रीते दीए की आखिरी लौ की तरह। बेचैनी का आलम यह था कि न आंखों में नींद थी, न तसल्ली! उद्विग्नता इतनी कि बस, बिना जाने यह रात न बीतेगी, न सुबह होगी! लेकिन आधी रात को किसे जगाकर पूछूं? तब के कोई दोस्त भी तो सम्पर्क में नहीं। रात इस उधेड़बुन में बीत गई। रातें बीत जाती हैं, वे सिर्फ आपके हिस्से की कहानी छोड़ जाती हैं। सुबह उठते ही झुझुनूं में दर्जनों परिचितों को फोन करने के पश्चात एक ऐसे मित्र के नम्बर मिले, जो विश्वविद्यालय में एकाधिक बार राजेश के साथ नजर आया था। फोन मिलते ही 'कुण-शुण' के बाद जब मैंने अपना परिचय देते हुए धडक़ते दिल से कहा कि मैंने कल कोई बुरी खबर पढ़ी है, तो उसके जवाब ने मुझे बिना पैराशूट ही आकाश से धक्का दे दिया- वो ई है सागी ही...राजेश शहीद हो गया!
मेरे पास तुम्हारी ज्यादा स्मृतियां नहीं हैं राजेश; एक बार छूटे, तो फिर कभी मिले भी नहीं। जिंदगी की जद्दोजहद में इतने आगे निकल आए कि कभी पीछे मुडक़र हमने 'छूटे' को टटोलने की कोशिश भी नहीं की। आज जब तुम्हारी खबर भी आई, तो इस रूप में! अब भी विश्वास नहीं हो रहा। कोई खबर को झुठला दे। मिलिट्री ज्वॉइन करने का जुनून, इंग्लिश में बेहद कमजोर होने के बावजूद उस पर फतह और सीआरपीएफ में असिस्टेंट कमांडेंट के रूप में सेवाएं देते हुए शहादत को प्राप्त हो जाना! कुल इतनी सी कहानी लगती है, लेकिन तुम बहुत कुछ कर गए हो। तुम मर कर भी 'जी' गए हो! मरे हुए तो वे हैं, जिनके पास इन अंतहीन लड़ाइयों के हल नहीं, करुण गाथाओं के उपसंहार नहीं।
सरकारों के पास पैकेज हैं, मेरे पास श्रद्धा के दो फूल हैं। मित्र, इन्हें स्वीकार करना!
तुम्हारे हिस्से का तुम कर चुके, हमारे हिस्से यही है!
पुनश्च: शेखावाटी में परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी सैनिक होने की गौरवशाली परम्परा है। संयोग से पिता बच गए थे, दुर्भाग्य से बेटे नहीं बच सके या पौते!
(तस्वीर साभार- PilaniNews Pilani)