July 24, 2008

विश्वास के हिमालय से सारी बर्फ पिघल चुकी

संसद में दो दिनी अप्रिय शोरगुल के बाद देश में हृदयभेदी सन्नाटा है। सब कुछ एकदम से खामोश है- सिवाय कुछ दलों में जयचंद चिन्हित और घोषित कर उन्हें पार्टी बदर करने के, कोई बड़ी उल्लेखनीय हरकतें नहीं हो रहीं। हो भी जाएं, तो इसे महज खिसियानी बिल्ली के खम्भा नोचने से अधिक का दर्जा नहीं दिया जाएगा। सारी कुल्लेखनीय हरकतें उन दो दिनों में और उससे पहले हो चुकी हैं। अब और गुंजाइश नहीं।
सत्ता प्रतिष्ठानों के पिछवाड़े अर्थात दस जनपथ में जीत के जश्न की रस्म जरूर है, लेकिन आशंका वहां भी बरकरार है। इसमें जीत जैसा कुछ नजर नहीं आता। जीतकर भी करारी हार सा बोध हर कोई कर सकता है। मुहावरे में कहें तो दस माह की मेहमान सरकार पर अपेक्षाओं का पहाड़ टूट पड़ा है। जो चार साल में एक अपेक्षा पूरी न कर पाई हो, वह दल माह में क्या कर लेगी। इस ताजा हरकत से नेताओं का सरेआम राजफाश जरूर हो गया। राजनीति में सारे ईमान, नैतिकता, आचरण, शुचिता इत्यादि को लेकर अब तक जो भ्रमजाल का तंबू तना हुआ था, वह एक झटके में खुल गया। बेईमानी और भ्रष्टाचार की ऐसी आंधी आई कि संसदीय मर्यादा को यूं हल्के में उड़ा ले गई। एक औसत भारतीय मन अपने इर्द-गिर्द सशंकित सा नंगई महसूस कर रहा है। अफसोस की बात है कि यह नंगई उन बेशर्म मनों द्वारा नहीं महसूसी जा रही, जहां से इसकी अपेक्षा की जाती है।
दो दिन तक टीवी पर आंखें गड़ाए रहे चेहरे मुर्दनी बयां कर रहे है। वहां जो सेंसेक्स से उतार-चढ़ाव नोटिस किए जा रहे थे, वे अब गहरी खामोशी और अफसोस से पुते हैं, भीतर खतरनाक कोलाहल उबल रहा है। उस आंच से व्यथित मन पक रहा है। विश्वास की बर्फ पिघल रही है। आंखें मलने की विवशता इसलिए है कि क्या यह ड्रामा वास्तविक था या कोई बड़ी दुर्घटना? जिसके घटित हो जाने के बाद मन इतना खिन्न कि अब वह कोई और कल्पनामयी आकांक्षा पाल सकेगा या नहीं? कमजोर हिन्दुस्तानी मनों पर टनों अवसाद लद गए हैं।
अब यह मानना ही पड़ेगा कि संसदीय मर्यादा का हिमालयी शिखर झुक गया है। भरोसे की बची-खुची बर्फ को पिघलने में दो दिन भी नहीं लगे। जिस भरोसे को नेहरू, शास्त्री, पटेल जैसे नेताओं ने कायम किया था। अब वहां नंगई है सिर्फ नंगई। लाज का वस्त्र उघड़ चुका। भरोसे का नाड़ा खुल गया। ढांपने की फिक्र भी नहीं है किसी को। वह इसीलिए नहीं है कि अब आचरण में शुचिता कोई मसला नहीं रह गया है। छोड़ आए उन गलियों को वाला मामला हो गया है, जहां शुचिता के झंडे गड़े रहते थे। एक सूत्री मसला सिर्फ सत्ता है और उसे किसी भी सूरत में पा लेना ही परम लक्ष्य की प्राप्ति है। यही किया सबने मिलकर। गिरावट का आलम इस कदर हुआ है कि इस हादसे के बाद अब कोई साधारण व्यक्ति सत्ता की गलियों में कदम रखने की नहीं सोच सकता। दहलीज पर प्रथम कदम ही उसकी आत्मा को झिंझोड़ देगा।
विश्वास मत के नाम पर अविश्वास जीत लिया गया। बहुत बुरी खबर है। अब आगे के रास्ते किस अंजाम की तरफ ले जाने वाले हैं, आप-हम सोचकर सिहर सकते हैं।

July 22, 2008

मंगल का हो गया मुंह काला

मंगल का मुंह काला आखिर कर ही डाला। यही तो मैंने चार दिन पहले लिखा था। आपने भी लिखा था। सबने यही लिखा था। सबको अंदेशा था। होता क्यों नहीं? जो हो रहा था, उसे तो होकर रहना ही था। अब आप क्या करेंगे? दो दिन से टीवी से चिपके हैं, आप, हम, समूचा देश। झुकी हुई गर्दनें, विस्फारित सी आंखें, शर्मिन्दगी से भरा हुआ माहौल। थूक देने को जी चाहता है इन मनहूस चेहरों पर। जिन्हें आप और हमने ही मालाएं पहनाईं थी। कितनी मक्कारी बयां हो रही है इन चेहरों पर। जुबां पर जो है, वह आंखों में नहीं। आंखों में जो है, वह चेहरों पर नहीं। जो होना चाहिए, वह कहीं नहीं। जो नहीं होना चाहिए, वह हर तरफ है। कोई अछूता नहीं। दूध से नहाया हुआ हर शख्स कलुषित है भीतर गहरे तक। खामोश है पूरा देश।
बस, संसद में शोरगुल है।
धिक्कार। मगर किसे? खुद को ही.......................।

July 12, 2008

बारिश की एक बूंद और हजार अर्थ

भारत जैसे कृषि प्रधान देश में मानसून मेहमान की तरह है। एक ऐसा मेहमान जिसके आगमन का सभी को बेसब्र इन्तजार रहता है। अक्सर इसकी देरी जनमानस को बेचैन कर देती है। इसको लेकर उनकी अत्कंठा छुपाए नहीं छुपती। और जब यह आता है, तो इसकी फुहारें प्राणी वृन्द को हुलसित-हर्षित कर देती है। आज रात से ही बारिश हो रही थी। सुबह घूमने के इरादे से उठा भी तो बारिश की टपाटप सुन वापस दुबकने का बहाना मिल गया। बूंदों की लोरी ने चैन की नींद सुला दिया। आंख खुली तो घड़ी की सुई नौ पर थी। गीले अखबार में कोई अपील नहीं थी कि उसे पढ़ा जाए। बस, पढ़ने की विवशता के चलते सरसरी दृष्टि डाल बरामदे में बैठ गया। बूंदो को निहारना काफी सुकून भरा लगा। आज ऑफिस भी भीगते हुए ही जाने का मन हुआ। मोटरसाइकिल धीरे-धीरे चलाते हुए, बारिश के खयालों में खोया ऑफिस पहुंचा।
कम, तेज होती बारिश की तरह ही मन में खयाल आ-जा रहे थे। आखिर बारिश में ऐसा क्या जादू है? बूंदों में जाने कैसी चुम्बकीय शक्ति है कि हर कोई अन्तर्मन से बंध जाता है। लेकिन सबके लिए बारिश के अपने-अपने मायने हैं, अपने-अपने अर्थ हैं। किसान जहां आसमान में आए श्वेत-श्याम बादलों का मैसेज पढ़कर खाद-बीज के इन्तजाम में जुटता है और खुशी पालता है कि चलो, इस बार तो सूखे से मुक्ति मिलेगी। आगे क्रमवार बारिश के साथ उसके खेत भी हरियाली के जरिए अपनी खुशी जाहिर करते हैं।
सरकारों के लिए किसान की इस खुशी का कोई खास अर्थ नहीं। सरकार और बादलों का संयोग यह है कि अच्छी बारिश उसके लिए किसान के प्रति दायित्वों से मुक्ति का पर्व है। समय पर खाद-बीज का उपलब्ध नहीं होना सरकारों की बेरुखी का ऐतिहासिक दस्तावेज है।
सरकारी दफ्तरों के लिए भी बारिश के अपने-अपने मजे हैं। वे इसका अपने हिसाब से मैसेज पढ़ते हैं और बूंदो को अर्थ देते हैं। अफसर और किसान की खुशी में पाताल फर्क है। किसान की देह जहां अगले छह माह मेहनत की खुशी में गंधाती है, वहीं अफसर की देह से हर एक बूंद को कैश में बदलने को ललक फूटती है। सड़कों में हुए गहरे घाव, उसके लिए और उसके मातहत कर्मचारियों के लिए मलहम का काम करते हैं। या वे कामना करते हैं कि इस बार सड़क पानी में बह जाए। एक जोरदार बारिश हो और सड़क डामर, पत्थरों समेत पूरी तरह धुल जाए। तो उनके भी कई पाप धुल जाएं। ठेकेदार आसमान में बादल देख, नए टेण्डर की खुशी में झूमता है। उसके मन में बेशर्म इरादे उगते हैं, और सरकारी कारिन्दों के ड्राइंग रूम में ये इरादे उनकी आंखों में नए अर्थ पैदा करते हैं।
बारिश में कागजों की नाव चलती हैं। कागजों में चलती हैं। कागजों में ही इन्तजाम होते हैं। बारिश का बाढ़ की शक्ल में आया एक रैला उन कागजों की पोल खोल देता है।
इस मौसम में सरकारी दफ्तरों का हरियाली प्रेम भी प्रस्फूटित होता है। उनके लगाए पौधे भले ही न फूटें, लेकिन उनके मन में हरियाली के पूरे बाग फूट पड़ते हैं। पौधे फाइलों में आंकड़ों की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं और बारिश के वेग के साथ शून्य आकार में बढ़ते जाते हैं। बारिश गुजरने के साथ सड़कों के किनारे वही हालात, बाग, नर्सरियों में वही वीरानी, लेकिन सरकारी कारिन्दों के महकते लॉन पड़ौसियों को भी खबर कर देते हैं।
इस प्रकार बारिश के चार माह भारतीय जीवन को नए अर्थ दे जाते हैं। पढ़ने वाले इसे बखूबी पढ़ते हैं, और नए अर्थ गढ़ने वाले भी कमतर नहीं।

July 10, 2008

दिल्ली के आसमान में ये कैसे बादलों का जमावड़ा?

देश में जितनी भी दिशाएं हैं, सभी से इस समय बादलों का रुख दिल्ली की ओर है। हर छोटा, मोटा, धूल-धूसरित, मैला, मटमैला, छोटा, बड़ा बादल कुछ सशंकित सी मुद्रा लिए राजधानी की ओर डायवर्ट है। अवसरवादिता की हवाओं ने उन्हें अपने संग लिया और उड़ चलीं दिल्ली की ओर। दिल्ली के आसमान पर ये बादल घनीभूत हो रहे हैं। ये बादल अन्ततः उम्मीद ही तोड़ेंगे। बरसने की भूलभरी अपेक्षा इनसे कदापि न की जाए। ये बरसेंगे, तो खुद के स्वार्थ के लिए। खुद के अस्तित्व के लिए। सांसदी की रक्षा के लिए। हार के डर से और जीत के गणितीय हिसाब से।

इन बादलों के गर्भ में धूर्त एजेण्डा छुपा है। बाहर से नैतिकता का रंग चढ़ा है। सिद्धान्तों के आवरण की महीन, बारीक परत है। भीतरी खोल में पोल ही पोल है। कुछ का लक्ष्य सरकार गिराना है। कुछ का बचाना है। कल तक लड़ने में कुत्ते-बिल्ली को भी मात करते रहे। आज एक-दूजे पर प्यार उंड़ेलते नहीं थकते। स्थाई दुश्मनी ने क्षणिक दोस्ती का बाना धारण कर लिया है। सरकार की रक्षा की गरज से अपने बचे-खुचे सिद्धान्तों पर घासलेट छिड़कने पर आमादा हैं। अन्तरात्मा का आह्वान भी नक्कारखाने में तूती की आवाज सा हो चुका है। ऐसा कोई सदाचार का ताबीज नहीं, जिसे कलाई पर बांध देने से इनकी भ्रष्ट आत्मा की गर्जना के सुर बदल जाएं।

कहें तो, मौजूदा राजनीतिक हालात में कई दलों की कैंचुल उतर चुकी है। तीन तलाक कह सरकार गिराने पर आमादा वाम मोर्चा को इस समय कुछ नहीं सूझ रहा। इस बेमकसद के लिए उसे उसके लिए सदा साम्प्रदायिक रही भाजपा से हाथ मिलाने से भी ऐतराज नहीं। सपा ने घोषित समाजवाद का मुल्लमा उतार फेंका है और दिखावे के देशप्रेम तले अवसर का गाढ़ा लेप पोत लिया है। भाजपा को हर हाल में चुनाव चाहिए। आखिर वे एक बेरोजगार पीएम का बोझ कब तक उठाएं? क्यों न चुनाव के बहाने इसे देश की पीठ पर लाद मुक्ति का पर्व मनाएं। हर छोटे-बड़े दलों की अपनी आशंकाएं हैं और सरकार गिराने-बचाने के अपने सुभीते हैं। सब इन्हीं से प्रेरित होने हैं। यदि परमाणु करार बेजां देशहित में है, तो भी लेफ्टियों को इससे क्या मतलब? उनका राइट तो वहीं तक है, जहां से उनका अमरीका विरोध जाहिर हो जाता है। वे इसे भी भूल के कचरापात्र में डालने की पात्रता अर्जित कर चुके हैं कि उनके सरपरस्त चीन, रूस भी इन्हीं करारों को करने को लालायित हैं या कर चुके हैं।

धोखे और दिखावे के दीपक देश की राजनीति को कब तक आलोकित करेंगे। यह गिरगिटी रंग अब बेपरदा होना ही चाहिए। और अगले चुनावों में इनका असली रंग उघाड़कर देखा जाना चाहिए। कौनसा रंग किस बेरंगेपन के बावजूद खासा चमकता है। इस त्वचा के भीतर एक और मोटी त्वचा का पहरा है।

July 08, 2008

शब्दों के हथियारों से मुंह तोड़ने की निरर्थक कवायद

हम आतंकवाद के आगे नहीं झुकेंगे। कोई ताकत हमारे मंसूबों को विफल नहीं कर सकती। कितने ही हमले हमें हमारे मिशन में नाकामयाब नहीं कर सकते। पड़ौसी देशों को मदद जारी रखेंगे। हम आतंकी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब देंगे। यह एक रिकोर्डेड सीडी है। पुराना कैसेट है। जो हर आतंकी घटना के बाद बजता है। यह शास्त्रीय बयान है। जो हर वारदात के बाद आता है। वही मुख। वही बातें। वही संकल्प। वही लफ्ज। पीएम, विदेशमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री, जरूरी हुआ तो पार्टी अध्यक्ष के श्रीमुख से झरता एक-एक शब्द। चबा-चबा कर बोले गए अर्थ खोए वाक्य। जब पहली वारदात हुई, तो शर्तिया पहला बयान यही आया होगा। हू-ब-हू। बित्ते भर का फर्क नहीं। मुंह तो हम आज तक तोड़ न सके, पर बेतहाशा बयान दे-देकर खुद का मुंह जरूर तोड़ लेते हैं।

काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले के बाद फिर शब्दों के हथियार चलाए गए। बयानबाजों के मुंह के आगे मीडिया के माइक आए। रिपोर्टरों ने जेब से कलम-डायरी निकाली और जिस जोश से सवाल दागे। सामने से उसी ठण्ड से जवाब। पीएम ने जी-८ शिखर वार्ता में जाते समय विमान से बयान दिया। प्रणव मुखर्जी ने दिल्ली से। बयान विमान से आए, भले दिल्ली से या दस जनपथ से। न भाषिक अन्तर, न वैचारिक। बयानों के केन्द्र में कोई संकल्पना नहीं। इरादों में दृढ़ता नहीं। गर्मी का नितान्त अभाव। बयान देने की विवशता न होती, तो शायद इतनी जहमत भी न उठाई जाती।

दो कामयाब अधिकारी और दो जवानों की मौत। सबसे बड़ी बात यह है कि स्वाभिमान पर आंच। और हम जिद पाले हैं पड़ौसी देश के पुनर्निर्माण में मदद का। इससे पहले भी वहां भारतीयों पर दो हमले हो चुके हैं। तब भी हमने ऐसे ही शब्दों के बाण चलाए थे। पूरी कौशलता से वाक्य विन्यास से भरा चेतावनी का मायाजाल रचा। लेकिन हुआ क्या? वही भीगा हुआ पटाखा फुस्स। बारूद की गारंटी नहीं। हम ऐसे बयानवीर हैं, जो लगातार मात के बावजूद शब्दों के खोल से बाहर निकलने को इच्छुक नहीं। क्या हम अफगानिस्तान से दो टूक बात नहीं कर सकते। हामिद करजई बड़े मेहमाननवाजी का लुत्फ उठाते हैं हमारे यहां। सिर-आंखों पर बिठाते हैं, पलकें बिछाते हैं उनके आगमन पर। लेकिन अब उनका मौन, कोई बयान न देना गहरे अर्थों को जन्म देता है।

हमारे टुकड़ों पर पलने वाला पिद्दी सा बांग्लादेश भी यदा-कदा हमें गरिया देता है। श्रीलंका का चोखटा बचाने के लिए हमने शांति सेना के जरिए कितने ही सैनिक खोए। और फिर युवा नेता भी। बावजूद इसके श्रीलंका की हमें ही चिरौरी करनी पड़ती है। नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान कोई विशुद्ध दोस्ती के काबिल नहीं। हम गले मिलें। वे जेब में छुरा रखें। हमारे ही खिलाफ आतंकियों को प्रश्रय दें। अपनी सीमाओं से आत्मघाती जखीरा ठेलने में मदद करें। हम उनके सामने ट्रे में रखकर दूध का प्याला पेश करें। सांप और मित्र की परख हमारे बयानवीर अपनी कैंचुल से बाहर आ कब करना सीखेंगे।

July 07, 2008

हिसाब मांगती एक-एक सीढ़ी

बारी-बारी से सत्ता का मधुपान कर, पूरी तरह रस निचोड़ जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बेमन से राजभवन की ओर जा रहे हैं। (अलबत्ता पहुंच चुके) पांव भारी हैं। जेब में इस्तीफा पड़ा है। बोझ से पग डगमगा रहे हैं। मुगालते में जीते-जीते वे आखिरी सच के द्वार पर आ पहुंचे। और उस नीम सच से सामना कर रहे हैं, जिससे कल को केन्द्र की कांग्रेस सरकार को भी करना है। और हर उस पार्टी को करना पड़ता है, जो सिद्धान्तों को कैरोसिन दिखा, इस उजाले में सत्ता की चौखट चढ़ती है। आज उसी चौखट से कांग्रेस नीचे उतर रही है। पीडीपी, जो पहले ही मधु के छाते को खाली कर चुकी थी, ने और इन्तजार करना मुनासिब नहीं समझा और समर्थन वापस ले लिया। ढाई साल इन्तजार करते-करते एक अदद बहाने का छींका उनके हिस्से टूटकर गिर ही गया। जिसके सहारे समर्थन वापस लिया जा सकता था। हालांकि सरकार को बली से बचाने के लिए मुख्यमंत्री ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी जमीन वापस भी ले ली थी। लेकिन, अफसोस, सरकार को बचाया नहीं जा सका और मुख्यमंत्री को इस्तीफा लेकर राजभवन की सीढ़ियां चढ़ना पड़ा। सत्ता की सीढ़ियां झटपट चढ़ लेने की स्फूर्ति यहां गायब रही होगी। एक-एक सीढ़ी चढ़ते वे दिन याद आ रहे होंगे उन्हें।
उन्हें और भी बहुत कुछ याद आना चाहिए। पहली सीढ़ी पर पांव धरते ही याद आया होगा कि बेमेल मिश्रण का स्वाद एक दिन कितना कटु होता है। कुछ दिन तू सत्ता सुख चाट, कुछ दिन मुझे चटा, की तर्ज पर बनाई सरकार में कड़वे अहसास भी बहुत होते हैं। उन्हें याद आया होगा कि अपनी उदार छवि के चलते देश को उनसे कितनी उम्मीदें थीं, जब वे मुख्यमंत्री बने थे। जम्मू-कश्मीर नेताओं के अब तक पाक राग के बीच उदार और साफ दिखती छवि के आजाद नई जिम्मेदारियों से रूबरू थे। लेकिन आज उनके लिए आत्म मंथन का समय है कि अब देश उनके बारे में क्या सोचता है। उनकी राष्ट्रीय छवि एक राज्य के अपने आईने में कितनी धुंधली हुई। अफजल गुरु के बचाव में बोलने से देश में उनकी छवि कितनी मलिन हुई होगी। अगली सीढ़ी पर उन्हें महसूस होना चाहिए कि उन्होंने किस तरह खुद को कश्मीर जाकर, किस तरह संकीर्ण सांचे में फिट कर, किस तरह महफूज समझ लिया था।अंतिम सीढ़ी पर उन्हें अहसास होना चाहिए था कि अब वे अगले आम चुनाव में जब कांग्रेस के प्रचार के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में जाएंगे, तो क्या वहां लोगों की सुलगती आंखें उनसे सवाल नहीं करेंगी?
लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि नेताओं की महसूसने की शक्ति कितनी दुर्बल होती है। अहसासों का कत्ल कर ही वे सच्चे नेता कहलाने के लायक बनते हैं।

July 05, 2008

रोम जला, नीरो ने बजाई बांसुरी

जब रोम जल रहा था, तब नीरो बांसुरी बजा रहा था। नीरो ने गलत क्या किया? जिस बेसुरी बांसुरी में फटे सुर निकलें, उसे और किस मौके पर बजाया जा सकता है। कम से कम ऐसे मौके के बहाने बांसुरी को लोगों ने देखा तो सही। वैसे कहावत में कितना दम, पता नहीं। लेकिन हम नई कहावत आंखों के सामने गढ़ी जाते देख रहे हैं। देश में जलने से कमतर हालात नहीं हैं और सारे नीरो (राजनीतिक दल) अपनी-अपनी बांसुरी बजाने में मशगूल हैं। साम्प्रदायिक आग के शोले भड़क रहे हैं। कई जानें जा चुकीं। आतंकाकारियों से लोहा लेते जवान रोज शहादत को प्राप्त होते हैं। इधर, आम आदमी भी कोई कम शहादत की स्थिति में नहीं है। शहीदाना अंदाज में सिर पर कफन बांधे घूम रहा है। बावजूद इसके सबका एकमेव एजेण्डा खुद के अस्तित्व को सलामत रखने की बेशर्म और स्वार्थ से भरी शतरंजी चालें चलने की खोज है।
औचक सारी समस्याएं सरकार की प्राथमिकता से डिलीट हो गई हैं। उसके एजेण्डे में एकमात्र तरकश है- डील। सपा से लेकर अमरीका तक, डील का डोल जमाने की फिक्र छाई है उस पर। इस समय देश में जैसे राजनीतिक हालात हैं, उसमें राजनीतिक दलों की नग्नता साफ दिखने लगी है। अब तक जिनको जिनका मुंह तक देखने से एलर्जी थी, अब मुंह दिखाई में पूरी सरकार सौंपने को आतुर हैं। यह आतुरता, जनता की अधीरता बढ़ा रही है। धैर्य की कठिन घड़ी है। इनकी बेशर्म, बेमेल गलबहियां उन सारी समस्याओं के गाल पर करारा तमाचा है, जो देश को भयाक्रान्त किए हुए हैं। लेकिन इन सबकी इन्हें कोई फिक्र नहीं। माहौल एकाएक समझौता प्रधान सा हो चुका है। मानसूनी बादल अवसरों के टुकड़े लेकर घूम रहे है। हर दल इन्हें लपकने के पूरे मूड में है। प्रधानमंत्री बनने को आतुर एल के आडवाणी ने भी सरकार को चेतावनी दी है कि वह संसद में बहुमत साबित करे। ...और उसके पास बचा ही क्या है साबित करने को। बाकी सब कुछ साबित हो चुका, बस अब एक बहुमत ही साबित करना है उसे। बाकी मोर्चों पर तो लोग उसे देख ही चुके हैं।
सरकार की डील को अंतिम परिणति तक पहुंचाने की जो जिद सामने आई है, उसमें समूचा देश हाशिए पर खिसक चुका है। करोड़ों लोगों की बद् दुआएं भी इनकी आत्मघाती जिद के आगे बेअसर हैं। न इनको महंगाई की फिक्र है, न मौजूदा भड़कते दंगों की। तेल की बू लोगों को परेशान किए है। रसोई गैस समूचे देश के पेट में आफरा ला चुकी है। सरकार के पास कोई तात्कालिक हाजमोला नहीं, जो इस आफरे को ठीक कर सके। हर वह जो चीज है और आम आदमी के जरूरत की है, बढ़ने की ठाने हुए है। महंगाई चौबारे चढी है। सरकार चुपके से पिछवाड़े उतर रफूचक्कर हो चुकी है। सत्ता प्रतिष्ठानों के पिछवाड़े हंसी की गूंज है, शायद वहां नए सारथियों के स्वागत-सत्कार के बहाने, भविष्य की शतरंज पर हाथी-घोड़े चलने की चालें खोजी जा रही है।

July 04, 2008

बेहिसाब, बेसाख्ता, नौटंकी जारी है... देखते रहिए

इस समय देश में अजीब सी खामोशी है और सन्नाटे का हृदयभेदी शोर है। देश के आकाश में मानसूनी कम, किसी अनिष्ट की आशंका के बादल ज्यादा तैर रहे हैं। सियासत में बेतुके फैसलों की घड़ी है। कई पार्टियों के अंगने में मौसम सुहावना हो चुका है, वहां गुंजाइशों-संभावनाओं के फूल खिलने की भीनी-भीनी खुशी तैर रही है। तो किसी-किसी अंगने में कैकटस उग रहे हैं। रोज कोई कांटा सा उगता है, पर पता नहीं राजनेताओं की मोटी त्वचा उस चुभन को महसूस करती है कि नहीं। आम आदमी रोज उस चुभन के साथ जगता है, और दवा बन चुकी पुरानी पीर के साथ सोता है।
देखें तो इस समय सारे ज्वलंत मुद्दे रद्दी को टोकरी में डाले जा चुके हैं। एकमात्र बेकरारी परमाणु करार को लेकर है। जहां घोड़ी चढ़े दूल्हे की तरह तोरण मारने जैसी उत्कंठा के शिकार हैं पीएम और उनके पार्टी बाराती। वामदलों की समर्थन वापसी की दीर्घकालीन धारावाहिकी धमकियों का सम्भवतः तीन दिन बाद समापन हो जाए। क्योंकि कांग्रेसनीत यूपीए को अब नया सारथी मिलने की अघोषित खुशियां दस जनपथ से बाहर छलक मीडिया के आंगनों में गिरने लगी हैं। यूएनपीए की राष्ट्रीय बहस का मुद्दा भी शिगुफा भर ही निकलने वाला है। यह सिर्फ इसलिए, ताकि जनता को बहस के वहम में डाल चुपके से सरकार के पाले में समर्थन की बॉल डाली जा सके। अब तक एक कदम बढ़ाकर, दो कदम पीछे खींच लेने की आदी रही सरकार के मौजूदा आणविक दुस्साहस पर गौर करें, तो यह लगभग तय है कि उसका नया साथी कौन है? एकबारगी इस मुद्दे को परे कर के देखें कि करार देशहित में या विरोधी, तो जो आईना सामने आ रहा है उसमें भी किस गर्व के साथ चेहरा देखने की खुशफहमी पालें?
क्योंकि देश के आकाश में सब हवाई किले जैसे निर्माण किए जा रहे हैं। जहां जनता की नजर में ये सब रेत के किले भर हैं। कोई ठोस आकार-प्रकार नहीं। कोई ऐसी आकृति नहीं, जो यथार्थ के धरातल पर टिकी हो। कोई छद्म धर्मनिरपेक्षता के ईंटों से बनाया गया है, तो कहीं उसमें उग्र हिन्दुत्व का गारा मिला हुआ है। एक का मकसद भुलावे और भ्रम का माहौल बनाए रखना है, तो दूसरे का मरियल बाजुओं में जोश की लहरें पैदा कर वोट तक पहुंचाने की कोशिश भर है। लेकिन धोखे और दिखावे की नींव पर टिके ये किले अवाम को कोई राहत पहुंचाने वाले नहीं है। अवाम के सिर तिक्त धूप के टुकड़ों में झुलसते रहेंगे। यह तय है।
अब न महंगाई मुद्दा है, न उछाल मारता शेयर। शेयर का उछाल रूटीन की खबर भर रह गया है। सोने को इसलिए रोज याद करना पड़ता हैं कि देखें आज कितना चढ़ा। बाजार आपे से बाहर है, जनता अपनी औकात में रह...वाले मुहावरे के साथ अपनी हद में आ चुकी है। वह ऐसे चौराहे पर पहुंचा दिया गया है, जहां खुदकुशी के सिवाय कोई चारा नहीं। चारा होता, तो मौजूदा जारी तमाशे को मूकदर्शक की भांति देखती क्या? वह आंदोलन भी करती है तो इन्हीं पार्टियों द्वारा घोषित बंद की शक्ल में।

July 01, 2008

जाणता राजा (राजा सब जानता है)

कल रात जयपुर के सूरज मैदान में जाणता राजा देखा। जाणता राजा अर्थात राजा सब जानता है। यह छत्रपति महाराज शिवाजी पर बाबा साहिब पुरन्दरी लिखित भव्य नाटक है। इसमें शिवाजी की हिन्दवी स्वराज की कल्पना को खुले आकाश तले, विशाल, वास्तविक से लगने वाले मंच पर साकार किया गया। मंच किसी किले जैसा आभास देता था। संभवतः यह हिन्दुस्तान की पहली ऐसी महानाट्य प्रस्तुति होगी, जिसमें हाथी, घोड़े और ऊंटों का प्रयोग किया गया। यह नाटक देश प्रेम से ओत-प्रोत, तात्कालिक हिन्दुस्तान पर विदेशी आक्रान्ताओं की ज्यादती और स्वराज के लिए उनसे अकेले दम लोहा लेते छत्रपति महाराज शिवाजी की तड़प को अभिव्यक्त करने में कामयाब रहा।
तड़प तो वहां बैठे हजारों दर्शकों में भी कम नहीं थी। पूरा मैदान खचाखच भरा था। उससे ज्यादा दिलों में आग। कोई विरला ही दर्शक होगा, जिसके रोम कूपों से जोश की ज्वाला न निकली हो। रह-रह कर शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के नारे भी लगे। खासकर, अफजल खान को शिवाजी द्वारा मारे जाने के दृश्य पर कई दर्शक मुट्ठियां कसे नजर आए। दरअसल आज के अफजल गुरु के स्मरण ने उनको बेचैन कर दिया और उन्होंने एक दूसरे को इस आशय का मैसेज भी भेजा कि उस अफजल खान को तो शिवाजी ने सबक सिखाया, लेकिन आज के इस अफजल गुरु की मौत की सजा पर आखिर कब तामील होगी। आज का स्याणा राजा कब फरमान सुनाएगा?
नाटक के दौरान एक ही सवाल मन में उमड़ रहा था। क्या आज का राजा सब कुछ जाणता है? या फिर सत्ता के इर्द-गिर्द की ऊंची दीवारों के पार वह कुछ नहीं जाणता। क्या यह काणा राजा है, जिसके आगे सब कुछ घटित होता है फिर भी इसे कुछ दिखाई नहीं देता। देखकर भी आंखें मुंदी होने का अभिनय करता है। यह अभिनय के उच्च शिखर पर है। देखकर मुंह फेर लेने का अभिलाषी है यह राजा। उस राजा का संकल्प था कि धरती उसकी पत्नी है, प्रजा उसकी संतान। और प्रजा को संतान की तरह ही पालित-पोषित किया। मगर आज का राजा सिवाय इसके क्या संकल्प ले सकता है कि यह कुर्सी उसकी रखैल है और प्रजा उसकी वोट बैंक। जिसे जब चाहे अपनी इच्छानुसार कभी भी मसल, कुचल सकता है। इसके दिल में सिर्फ सत्ता की वासना की हिलोरें मारती हैं। ये उद्दाम लहरें, सत्ता के गलियारों में टकराती रहती हैं।
उधर, प्रजा सिर फोड़ती है। सिर धुनती है। कोसती है। गालियां बकती है। इससे ज्यादा उसके हिस्से में कुछ है नहीं। लेकिन यह राजा कब जाणेगा?