July 24, 2008

विश्वास के हिमालय से सारी बर्फ पिघल चुकी

संसद में दो दिनी अप्रिय शोरगुल के बाद देश में हृदयभेदी सन्नाटा है। सब कुछ एकदम से खामोश है- सिवाय कुछ दलों में जयचंद चिन्हित और घोषित कर उन्हें पार्टी बदर करने के, कोई बड़ी उल्लेखनीय हरकतें नहीं हो रहीं। हो भी जाएं, तो इसे महज खिसियानी बिल्ली के खम्भा नोचने से अधिक का दर्जा नहीं दिया जाएगा। सारी कुल्लेखनीय हरकतें उन दो दिनों में और उससे पहले हो चुकी हैं। अब और गुंजाइश नहीं।
सत्ता प्रतिष्ठानों के पिछवाड़े अर्थात दस जनपथ में जीत के जश्न की रस्म जरूर है, लेकिन आशंका वहां भी बरकरार है। इसमें जीत जैसा कुछ नजर नहीं आता। जीतकर भी करारी हार सा बोध हर कोई कर सकता है। मुहावरे में कहें तो दस माह की मेहमान सरकार पर अपेक्षाओं का पहाड़ टूट पड़ा है। जो चार साल में एक अपेक्षा पूरी न कर पाई हो, वह दल माह में क्या कर लेगी। इस ताजा हरकत से नेताओं का सरेआम राजफाश जरूर हो गया। राजनीति में सारे ईमान, नैतिकता, आचरण, शुचिता इत्यादि को लेकर अब तक जो भ्रमजाल का तंबू तना हुआ था, वह एक झटके में खुल गया। बेईमानी और भ्रष्टाचार की ऐसी आंधी आई कि संसदीय मर्यादा को यूं हल्के में उड़ा ले गई। एक औसत भारतीय मन अपने इर्द-गिर्द सशंकित सा नंगई महसूस कर रहा है। अफसोस की बात है कि यह नंगई उन बेशर्म मनों द्वारा नहीं महसूसी जा रही, जहां से इसकी अपेक्षा की जाती है।
दो दिन तक टीवी पर आंखें गड़ाए रहे चेहरे मुर्दनी बयां कर रहे है। वहां जो सेंसेक्स से उतार-चढ़ाव नोटिस किए जा रहे थे, वे अब गहरी खामोशी और अफसोस से पुते हैं, भीतर खतरनाक कोलाहल उबल रहा है। उस आंच से व्यथित मन पक रहा है। विश्वास की बर्फ पिघल रही है। आंखें मलने की विवशता इसलिए है कि क्या यह ड्रामा वास्तविक था या कोई बड़ी दुर्घटना? जिसके घटित हो जाने के बाद मन इतना खिन्न कि अब वह कोई और कल्पनामयी आकांक्षा पाल सकेगा या नहीं? कमजोर हिन्दुस्तानी मनों पर टनों अवसाद लद गए हैं।
अब यह मानना ही पड़ेगा कि संसदीय मर्यादा का हिमालयी शिखर झुक गया है। भरोसे की बची-खुची बर्फ को पिघलने में दो दिन भी नहीं लगे। जिस भरोसे को नेहरू, शास्त्री, पटेल जैसे नेताओं ने कायम किया था। अब वहां नंगई है सिर्फ नंगई। लाज का वस्त्र उघड़ चुका। भरोसे का नाड़ा खुल गया। ढांपने की फिक्र भी नहीं है किसी को। वह इसीलिए नहीं है कि अब आचरण में शुचिता कोई मसला नहीं रह गया है। छोड़ आए उन गलियों को वाला मामला हो गया है, जहां शुचिता के झंडे गड़े रहते थे। एक सूत्री मसला सिर्फ सत्ता है और उसे किसी भी सूरत में पा लेना ही परम लक्ष्य की प्राप्ति है। यही किया सबने मिलकर। गिरावट का आलम इस कदर हुआ है कि इस हादसे के बाद अब कोई साधारण व्यक्ति सत्ता की गलियों में कदम रखने की नहीं सोच सकता। दहलीज पर प्रथम कदम ही उसकी आत्मा को झिंझोड़ देगा।
विश्वास मत के नाम पर अविश्वास जीत लिया गया। बहुत बुरी खबर है। अब आगे के रास्ते किस अंजाम की तरफ ले जाने वाले हैं, आप-हम सोचकर सिहर सकते हैं।

July 22, 2008

मंगल का हो गया मुंह काला

मंगल का मुंह काला आखिर कर ही डाला। यही तो मैंने चार दिन पहले लिखा था। आपने भी लिखा था। सबने यही लिखा था। सबको अंदेशा था। होता क्यों नहीं? जो हो रहा था, उसे तो होकर रहना ही था। अब आप क्या करेंगे? दो दिन से टीवी से चिपके हैं, आप, हम, समूचा देश। झुकी हुई गर्दनें, विस्फारित सी आंखें, शर्मिन्दगी से भरा हुआ माहौल। थूक देने को जी चाहता है इन मनहूस चेहरों पर। जिन्हें आप और हमने ही मालाएं पहनाईं थी। कितनी मक्कारी बयां हो रही है इन चेहरों पर। जुबां पर जो है, वह आंखों में नहीं। आंखों में जो है, वह चेहरों पर नहीं। जो होना चाहिए, वह कहीं नहीं। जो नहीं होना चाहिए, वह हर तरफ है। कोई अछूता नहीं। दूध से नहाया हुआ हर शख्स कलुषित है भीतर गहरे तक। खामोश है पूरा देश।
बस, संसद में शोरगुल है।
धिक्कार। मगर किसे? खुद को ही.......................।

July 12, 2008

बारिश की एक बूंद और हजार अर्थ

भारत जैसे कृषि प्रधान देश में मानसून मेहमान की तरह है। एक ऐसा मेहमान जिसके आगमन का सभी को बेसब्र इन्तजार रहता है। अक्सर इसकी देरी जनमानस को बेचैन कर देती है। इसको लेकर उनकी अत्कंठा छुपाए नहीं छुपती। और जब यह आता है, तो इसकी फुहारें प्राणी वृन्द को हुलसित-हर्षित कर देती है। आज रात से ही बारिश हो रही थी। सुबह घूमने के इरादे से उठा भी तो बारिश की टपाटप सुन वापस दुबकने का बहाना मिल गया। बूंदों की लोरी ने चैन की नींद सुला दिया। आंख खुली तो घड़ी की सुई नौ पर थी। गीले अखबार में कोई अपील नहीं थी कि उसे पढ़ा जाए। बस, पढ़ने की विवशता के चलते सरसरी दृष्टि डाल बरामदे में बैठ गया। बूंदो को निहारना काफी सुकून भरा लगा। आज ऑफिस भी भीगते हुए ही जाने का मन हुआ। मोटरसाइकिल धीरे-धीरे चलाते हुए, बारिश के खयालों में खोया ऑफिस पहुंचा।
कम, तेज होती बारिश की तरह ही मन में खयाल आ-जा रहे थे। आखिर बारिश में ऐसा क्या जादू है? बूंदों में जाने कैसी चुम्बकीय शक्ति है कि हर कोई अन्तर्मन से बंध जाता है। लेकिन सबके लिए बारिश के अपने-अपने मायने हैं, अपने-अपने अर्थ हैं। किसान जहां आसमान में आए श्वेत-श्याम बादलों का मैसेज पढ़कर खाद-बीज के इन्तजाम में जुटता है और खुशी पालता है कि चलो, इस बार तो सूखे से मुक्ति मिलेगी। आगे क्रमवार बारिश के साथ उसके खेत भी हरियाली के जरिए अपनी खुशी जाहिर करते हैं।
सरकारों के लिए किसान की इस खुशी का कोई खास अर्थ नहीं। सरकार और बादलों का संयोग यह है कि अच्छी बारिश उसके लिए किसान के प्रति दायित्वों से मुक्ति का पर्व है। समय पर खाद-बीज का उपलब्ध नहीं होना सरकारों की बेरुखी का ऐतिहासिक दस्तावेज है।
सरकारी दफ्तरों के लिए भी बारिश के अपने-अपने मजे हैं। वे इसका अपने हिसाब से मैसेज पढ़ते हैं और बूंदो को अर्थ देते हैं। अफसर और किसान की खुशी में पाताल फर्क है। किसान की देह जहां अगले छह माह मेहनत की खुशी में गंधाती है, वहीं अफसर की देह से हर एक बूंद को कैश में बदलने को ललक फूटती है। सड़कों में हुए गहरे घाव, उसके लिए और उसके मातहत कर्मचारियों के लिए मलहम का काम करते हैं। या वे कामना करते हैं कि इस बार सड़क पानी में बह जाए। एक जोरदार बारिश हो और सड़क डामर, पत्थरों समेत पूरी तरह धुल जाए। तो उनके भी कई पाप धुल जाएं। ठेकेदार आसमान में बादल देख, नए टेण्डर की खुशी में झूमता है। उसके मन में बेशर्म इरादे उगते हैं, और सरकारी कारिन्दों के ड्राइंग रूम में ये इरादे उनकी आंखों में नए अर्थ पैदा करते हैं।
बारिश में कागजों की नाव चलती हैं। कागजों में चलती हैं। कागजों में ही इन्तजाम होते हैं। बारिश का बाढ़ की शक्ल में आया एक रैला उन कागजों की पोल खोल देता है।
इस मौसम में सरकारी दफ्तरों का हरियाली प्रेम भी प्रस्फूटित होता है। उनके लगाए पौधे भले ही न फूटें, लेकिन उनके मन में हरियाली के पूरे बाग फूट पड़ते हैं। पौधे फाइलों में आंकड़ों की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं और बारिश के वेग के साथ शून्य आकार में बढ़ते जाते हैं। बारिश गुजरने के साथ सड़कों के किनारे वही हालात, बाग, नर्सरियों में वही वीरानी, लेकिन सरकारी कारिन्दों के महकते लॉन पड़ौसियों को भी खबर कर देते हैं।
इस प्रकार बारिश के चार माह भारतीय जीवन को नए अर्थ दे जाते हैं। पढ़ने वाले इसे बखूबी पढ़ते हैं, और नए अर्थ गढ़ने वाले भी कमतर नहीं।

July 10, 2008

दिल्ली के आसमान में ये कैसे बादलों का जमावड़ा?

देश में जितनी भी दिशाएं हैं, सभी से इस समय बादलों का रुख दिल्ली की ओर है। हर छोटा, मोटा, धूल-धूसरित, मैला, मटमैला, छोटा, बड़ा बादल कुछ सशंकित सी मुद्रा लिए राजधानी की ओर डायवर्ट है। अवसरवादिता की हवाओं ने उन्हें अपने संग लिया और उड़ चलीं दिल्ली की ओर। दिल्ली के आसमान पर ये बादल घनीभूत हो रहे हैं। ये बादल अन्ततः उम्मीद ही तोड़ेंगे। बरसने की भूलभरी अपेक्षा इनसे कदापि न की जाए। ये बरसेंगे, तो खुद के स्वार्थ के लिए। खुद के अस्तित्व के लिए। सांसदी की रक्षा के लिए। हार के डर से और जीत के गणितीय हिसाब से।

इन बादलों के गर्भ में धूर्त एजेण्डा छुपा है। बाहर से नैतिकता का रंग चढ़ा है। सिद्धान्तों के आवरण की महीन, बारीक परत है। भीतरी खोल में पोल ही पोल है। कुछ का लक्ष्य सरकार गिराना है। कुछ का बचाना है। कल तक लड़ने में कुत्ते-बिल्ली को भी मात करते रहे। आज एक-दूजे पर प्यार उंड़ेलते नहीं थकते। स्थाई दुश्मनी ने क्षणिक दोस्ती का बाना धारण कर लिया है। सरकार की रक्षा की गरज से अपने बचे-खुचे सिद्धान्तों पर घासलेट छिड़कने पर आमादा हैं। अन्तरात्मा का आह्वान भी नक्कारखाने में तूती की आवाज सा हो चुका है। ऐसा कोई सदाचार का ताबीज नहीं, जिसे कलाई पर बांध देने से इनकी भ्रष्ट आत्मा की गर्जना के सुर बदल जाएं।

कहें तो, मौजूदा राजनीतिक हालात में कई दलों की कैंचुल उतर चुकी है। तीन तलाक कह सरकार गिराने पर आमादा वाम मोर्चा को इस समय कुछ नहीं सूझ रहा। इस बेमकसद के लिए उसे उसके लिए सदा साम्प्रदायिक रही भाजपा से हाथ मिलाने से भी ऐतराज नहीं। सपा ने घोषित समाजवाद का मुल्लमा उतार फेंका है और दिखावे के देशप्रेम तले अवसर का गाढ़ा लेप पोत लिया है। भाजपा को हर हाल में चुनाव चाहिए। आखिर वे एक बेरोजगार पीएम का बोझ कब तक उठाएं? क्यों न चुनाव के बहाने इसे देश की पीठ पर लाद मुक्ति का पर्व मनाएं। हर छोटे-बड़े दलों की अपनी आशंकाएं हैं और सरकार गिराने-बचाने के अपने सुभीते हैं। सब इन्हीं से प्रेरित होने हैं। यदि परमाणु करार बेजां देशहित में है, तो भी लेफ्टियों को इससे क्या मतलब? उनका राइट तो वहीं तक है, जहां से उनका अमरीका विरोध जाहिर हो जाता है। वे इसे भी भूल के कचरापात्र में डालने की पात्रता अर्जित कर चुके हैं कि उनके सरपरस्त चीन, रूस भी इन्हीं करारों को करने को लालायित हैं या कर चुके हैं।

धोखे और दिखावे के दीपक देश की राजनीति को कब तक आलोकित करेंगे। यह गिरगिटी रंग अब बेपरदा होना ही चाहिए। और अगले चुनावों में इनका असली रंग उघाड़कर देखा जाना चाहिए। कौनसा रंग किस बेरंगेपन के बावजूद खासा चमकता है। इस त्वचा के भीतर एक और मोटी त्वचा का पहरा है।

July 08, 2008

शब्दों के हथियारों से मुंह तोड़ने की निरर्थक कवायद

हम आतंकवाद के आगे नहीं झुकेंगे। कोई ताकत हमारे मंसूबों को विफल नहीं कर सकती। कितने ही हमले हमें हमारे मिशन में नाकामयाब नहीं कर सकते। पड़ौसी देशों को मदद जारी रखेंगे। हम आतंकी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब देंगे। यह एक रिकोर्डेड सीडी है। पुराना कैसेट है। जो हर आतंकी घटना के बाद बजता है। यह शास्त्रीय बयान है। जो हर वारदात के बाद आता है। वही मुख। वही बातें। वही संकल्प। वही लफ्ज। पीएम, विदेशमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री, जरूरी हुआ तो पार्टी अध्यक्ष के श्रीमुख से झरता एक-एक शब्द। चबा-चबा कर बोले गए अर्थ खोए वाक्य। जब पहली वारदात हुई, तो शर्तिया पहला बयान यही आया होगा। हू-ब-हू। बित्ते भर का फर्क नहीं। मुंह तो हम आज तक तोड़ न सके, पर बेतहाशा बयान दे-देकर खुद का मुंह जरूर तोड़ लेते हैं।

काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले के बाद फिर शब्दों के हथियार चलाए गए। बयानबाजों के मुंह के आगे मीडिया के माइक आए। रिपोर्टरों ने जेब से कलम-डायरी निकाली और जिस जोश से सवाल दागे। सामने से उसी ठण्ड से जवाब। पीएम ने जी-८ शिखर वार्ता में जाते समय विमान से बयान दिया। प्रणव मुखर्जी ने दिल्ली से। बयान विमान से आए, भले दिल्ली से या दस जनपथ से। न भाषिक अन्तर, न वैचारिक। बयानों के केन्द्र में कोई संकल्पना नहीं। इरादों में दृढ़ता नहीं। गर्मी का नितान्त अभाव। बयान देने की विवशता न होती, तो शायद इतनी जहमत भी न उठाई जाती।

दो कामयाब अधिकारी और दो जवानों की मौत। सबसे बड़ी बात यह है कि स्वाभिमान पर आंच। और हम जिद पाले हैं पड़ौसी देश के पुनर्निर्माण में मदद का। इससे पहले भी वहां भारतीयों पर दो हमले हो चुके हैं। तब भी हमने ऐसे ही शब्दों के बाण चलाए थे। पूरी कौशलता से वाक्य विन्यास से भरा चेतावनी का मायाजाल रचा। लेकिन हुआ क्या? वही भीगा हुआ पटाखा फुस्स। बारूद की गारंटी नहीं। हम ऐसे बयानवीर हैं, जो लगातार मात के बावजूद शब्दों के खोल से बाहर निकलने को इच्छुक नहीं। क्या हम अफगानिस्तान से दो टूक बात नहीं कर सकते। हामिद करजई बड़े मेहमाननवाजी का लुत्फ उठाते हैं हमारे यहां। सिर-आंखों पर बिठाते हैं, पलकें बिछाते हैं उनके आगमन पर। लेकिन अब उनका मौन, कोई बयान न देना गहरे अर्थों को जन्म देता है।

हमारे टुकड़ों पर पलने वाला पिद्दी सा बांग्लादेश भी यदा-कदा हमें गरिया देता है। श्रीलंका का चोखटा बचाने के लिए हमने शांति सेना के जरिए कितने ही सैनिक खोए। और फिर युवा नेता भी। बावजूद इसके श्रीलंका की हमें ही चिरौरी करनी पड़ती है। नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान कोई विशुद्ध दोस्ती के काबिल नहीं। हम गले मिलें। वे जेब में छुरा रखें। हमारे ही खिलाफ आतंकियों को प्रश्रय दें। अपनी सीमाओं से आत्मघाती जखीरा ठेलने में मदद करें। हम उनके सामने ट्रे में रखकर दूध का प्याला पेश करें। सांप और मित्र की परख हमारे बयानवीर अपनी कैंचुल से बाहर आ कब करना सीखेंगे।

July 07, 2008

हिसाब मांगती एक-एक सीढ़ी

बारी-बारी से सत्ता का मधुपान कर, पूरी तरह रस निचोड़ जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बेमन से राजभवन की ओर जा रहे हैं। (अलबत्ता पहुंच चुके) पांव भारी हैं। जेब में इस्तीफा पड़ा है। बोझ से पग डगमगा रहे हैं। मुगालते में जीते-जीते वे आखिरी सच के द्वार पर आ पहुंचे। और उस नीम सच से सामना कर रहे हैं, जिससे कल को केन्द्र की कांग्रेस सरकार को भी करना है। और हर उस पार्टी को करना पड़ता है, जो सिद्धान्तों को कैरोसिन दिखा, इस उजाले में सत्ता की चौखट चढ़ती है। आज उसी चौखट से कांग्रेस नीचे उतर रही है। पीडीपी, जो पहले ही मधु के छाते को खाली कर चुकी थी, ने और इन्तजार करना मुनासिब नहीं समझा और समर्थन वापस ले लिया। ढाई साल इन्तजार करते-करते एक अदद बहाने का छींका उनके हिस्से टूटकर गिर ही गया। जिसके सहारे समर्थन वापस लिया जा सकता था। हालांकि सरकार को बली से बचाने के लिए मुख्यमंत्री ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी जमीन वापस भी ले ली थी। लेकिन, अफसोस, सरकार को बचाया नहीं जा सका और मुख्यमंत्री को इस्तीफा लेकर राजभवन की सीढ़ियां चढ़ना पड़ा। सत्ता की सीढ़ियां झटपट चढ़ लेने की स्फूर्ति यहां गायब रही होगी। एक-एक सीढ़ी चढ़ते वे दिन याद आ रहे होंगे उन्हें।
उन्हें और भी बहुत कुछ याद आना चाहिए। पहली सीढ़ी पर पांव धरते ही याद आया होगा कि बेमेल मिश्रण का स्वाद एक दिन कितना कटु होता है। कुछ दिन तू सत्ता सुख चाट, कुछ दिन मुझे चटा, की तर्ज पर बनाई सरकार में कड़वे अहसास भी बहुत होते हैं। उन्हें याद आया होगा कि अपनी उदार छवि के चलते देश को उनसे कितनी उम्मीदें थीं, जब वे मुख्यमंत्री बने थे। जम्मू-कश्मीर नेताओं के अब तक पाक राग के बीच उदार और साफ दिखती छवि के आजाद नई जिम्मेदारियों से रूबरू थे। लेकिन आज उनके लिए आत्म मंथन का समय है कि अब देश उनके बारे में क्या सोचता है। उनकी राष्ट्रीय छवि एक राज्य के अपने आईने में कितनी धुंधली हुई। अफजल गुरु के बचाव में बोलने से देश में उनकी छवि कितनी मलिन हुई होगी। अगली सीढ़ी पर उन्हें महसूस होना चाहिए कि उन्होंने किस तरह खुद को कश्मीर जाकर, किस तरह संकीर्ण सांचे में फिट कर, किस तरह महफूज समझ लिया था।अंतिम सीढ़ी पर उन्हें अहसास होना चाहिए था कि अब वे अगले आम चुनाव में जब कांग्रेस के प्रचार के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में जाएंगे, तो क्या वहां लोगों की सुलगती आंखें उनसे सवाल नहीं करेंगी?
लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि नेताओं की महसूसने की शक्ति कितनी दुर्बल होती है। अहसासों का कत्ल कर ही वे सच्चे नेता कहलाने के लायक बनते हैं।

July 05, 2008

रोम जला, नीरो ने बजाई बांसुरी

जब रोम जल रहा था, तब नीरो बांसुरी बजा रहा था। नीरो ने गलत क्या किया? जिस बेसुरी बांसुरी में फटे सुर निकलें, उसे और किस मौके पर बजाया जा सकता है। कम से कम ऐसे मौके के बहाने बांसुरी को लोगों ने देखा तो सही। वैसे कहावत में कितना दम, पता नहीं। लेकिन हम नई कहावत आंखों के सामने गढ़ी जाते देख रहे हैं। देश में जलने से कमतर हालात नहीं हैं और सारे नीरो (राजनीतिक दल) अपनी-अपनी बांसुरी बजाने में मशगूल हैं। साम्प्रदायिक आग के शोले भड़क रहे हैं। कई जानें जा चुकीं। आतंकाकारियों से लोहा लेते जवान रोज शहादत को प्राप्त होते हैं। इधर, आम आदमी भी कोई कम शहादत की स्थिति में नहीं है। शहीदाना अंदाज में सिर पर कफन बांधे घूम रहा है। बावजूद इसके सबका एकमेव एजेण्डा खुद के अस्तित्व को सलामत रखने की बेशर्म और स्वार्थ से भरी शतरंजी चालें चलने की खोज है।
औचक सारी समस्याएं सरकार की प्राथमिकता से डिलीट हो गई हैं। उसके एजेण्डे में एकमात्र तरकश है- डील। सपा से लेकर अमरीका तक, डील का डोल जमाने की फिक्र छाई है उस पर। इस समय देश में जैसे राजनीतिक हालात हैं, उसमें राजनीतिक दलों की नग्नता साफ दिखने लगी है। अब तक जिनको जिनका मुंह तक देखने से एलर्जी थी, अब मुंह दिखाई में पूरी सरकार सौंपने को आतुर हैं। यह आतुरता, जनता की अधीरता बढ़ा रही है। धैर्य की कठिन घड़ी है। इनकी बेशर्म, बेमेल गलबहियां उन सारी समस्याओं के गाल पर करारा तमाचा है, जो देश को भयाक्रान्त किए हुए हैं। लेकिन इन सबकी इन्हें कोई फिक्र नहीं। माहौल एकाएक समझौता प्रधान सा हो चुका है। मानसूनी बादल अवसरों के टुकड़े लेकर घूम रहे है। हर दल इन्हें लपकने के पूरे मूड में है। प्रधानमंत्री बनने को आतुर एल के आडवाणी ने भी सरकार को चेतावनी दी है कि वह संसद में बहुमत साबित करे। ...और उसके पास बचा ही क्या है साबित करने को। बाकी सब कुछ साबित हो चुका, बस अब एक बहुमत ही साबित करना है उसे। बाकी मोर्चों पर तो लोग उसे देख ही चुके हैं।
सरकार की डील को अंतिम परिणति तक पहुंचाने की जो जिद सामने आई है, उसमें समूचा देश हाशिए पर खिसक चुका है। करोड़ों लोगों की बद् दुआएं भी इनकी आत्मघाती जिद के आगे बेअसर हैं। न इनको महंगाई की फिक्र है, न मौजूदा भड़कते दंगों की। तेल की बू लोगों को परेशान किए है। रसोई गैस समूचे देश के पेट में आफरा ला चुकी है। सरकार के पास कोई तात्कालिक हाजमोला नहीं, जो इस आफरे को ठीक कर सके। हर वह जो चीज है और आम आदमी के जरूरत की है, बढ़ने की ठाने हुए है। महंगाई चौबारे चढी है। सरकार चुपके से पिछवाड़े उतर रफूचक्कर हो चुकी है। सत्ता प्रतिष्ठानों के पिछवाड़े हंसी की गूंज है, शायद वहां नए सारथियों के स्वागत-सत्कार के बहाने, भविष्य की शतरंज पर हाथी-घोड़े चलने की चालें खोजी जा रही है।

July 04, 2008

बेहिसाब, बेसाख्ता, नौटंकी जारी है... देखते रहिए

इस समय देश में अजीब सी खामोशी है और सन्नाटे का हृदयभेदी शोर है। देश के आकाश में मानसूनी कम, किसी अनिष्ट की आशंका के बादल ज्यादा तैर रहे हैं। सियासत में बेतुके फैसलों की घड़ी है। कई पार्टियों के अंगने में मौसम सुहावना हो चुका है, वहां गुंजाइशों-संभावनाओं के फूल खिलने की भीनी-भीनी खुशी तैर रही है। तो किसी-किसी अंगने में कैकटस उग रहे हैं। रोज कोई कांटा सा उगता है, पर पता नहीं राजनेताओं की मोटी त्वचा उस चुभन को महसूस करती है कि नहीं। आम आदमी रोज उस चुभन के साथ जगता है, और दवा बन चुकी पुरानी पीर के साथ सोता है।
देखें तो इस समय सारे ज्वलंत मुद्दे रद्दी को टोकरी में डाले जा चुके हैं। एकमात्र बेकरारी परमाणु करार को लेकर है। जहां घोड़ी चढ़े दूल्हे की तरह तोरण मारने जैसी उत्कंठा के शिकार हैं पीएम और उनके पार्टी बाराती। वामदलों की समर्थन वापसी की दीर्घकालीन धारावाहिकी धमकियों का सम्भवतः तीन दिन बाद समापन हो जाए। क्योंकि कांग्रेसनीत यूपीए को अब नया सारथी मिलने की अघोषित खुशियां दस जनपथ से बाहर छलक मीडिया के आंगनों में गिरने लगी हैं। यूएनपीए की राष्ट्रीय बहस का मुद्दा भी शिगुफा भर ही निकलने वाला है। यह सिर्फ इसलिए, ताकि जनता को बहस के वहम में डाल चुपके से सरकार के पाले में समर्थन की बॉल डाली जा सके। अब तक एक कदम बढ़ाकर, दो कदम पीछे खींच लेने की आदी रही सरकार के मौजूदा आणविक दुस्साहस पर गौर करें, तो यह लगभग तय है कि उसका नया साथी कौन है? एकबारगी इस मुद्दे को परे कर के देखें कि करार देशहित में या विरोधी, तो जो आईना सामने आ रहा है उसमें भी किस गर्व के साथ चेहरा देखने की खुशफहमी पालें?
क्योंकि देश के आकाश में सब हवाई किले जैसे निर्माण किए जा रहे हैं। जहां जनता की नजर में ये सब रेत के किले भर हैं। कोई ठोस आकार-प्रकार नहीं। कोई ऐसी आकृति नहीं, जो यथार्थ के धरातल पर टिकी हो। कोई छद्म धर्मनिरपेक्षता के ईंटों से बनाया गया है, तो कहीं उसमें उग्र हिन्दुत्व का गारा मिला हुआ है। एक का मकसद भुलावे और भ्रम का माहौल बनाए रखना है, तो दूसरे का मरियल बाजुओं में जोश की लहरें पैदा कर वोट तक पहुंचाने की कोशिश भर है। लेकिन धोखे और दिखावे की नींव पर टिके ये किले अवाम को कोई राहत पहुंचाने वाले नहीं है। अवाम के सिर तिक्त धूप के टुकड़ों में झुलसते रहेंगे। यह तय है।
अब न महंगाई मुद्दा है, न उछाल मारता शेयर। शेयर का उछाल रूटीन की खबर भर रह गया है। सोने को इसलिए रोज याद करना पड़ता हैं कि देखें आज कितना चढ़ा। बाजार आपे से बाहर है, जनता अपनी औकात में रह...वाले मुहावरे के साथ अपनी हद में आ चुकी है। वह ऐसे चौराहे पर पहुंचा दिया गया है, जहां खुदकुशी के सिवाय कोई चारा नहीं। चारा होता, तो मौजूदा जारी तमाशे को मूकदर्शक की भांति देखती क्या? वह आंदोलन भी करती है तो इन्हीं पार्टियों द्वारा घोषित बंद की शक्ल में।

July 01, 2008

जाणता राजा (राजा सब जानता है)

कल रात जयपुर के सूरज मैदान में जाणता राजा देखा। जाणता राजा अर्थात राजा सब जानता है। यह छत्रपति महाराज शिवाजी पर बाबा साहिब पुरन्दरी लिखित भव्य नाटक है। इसमें शिवाजी की हिन्दवी स्वराज की कल्पना को खुले आकाश तले, विशाल, वास्तविक से लगने वाले मंच पर साकार किया गया। मंच किसी किले जैसा आभास देता था। संभवतः यह हिन्दुस्तान की पहली ऐसी महानाट्य प्रस्तुति होगी, जिसमें हाथी, घोड़े और ऊंटों का प्रयोग किया गया। यह नाटक देश प्रेम से ओत-प्रोत, तात्कालिक हिन्दुस्तान पर विदेशी आक्रान्ताओं की ज्यादती और स्वराज के लिए उनसे अकेले दम लोहा लेते छत्रपति महाराज शिवाजी की तड़प को अभिव्यक्त करने में कामयाब रहा।
तड़प तो वहां बैठे हजारों दर्शकों में भी कम नहीं थी। पूरा मैदान खचाखच भरा था। उससे ज्यादा दिलों में आग। कोई विरला ही दर्शक होगा, जिसके रोम कूपों से जोश की ज्वाला न निकली हो। रह-रह कर शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के नारे भी लगे। खासकर, अफजल खान को शिवाजी द्वारा मारे जाने के दृश्य पर कई दर्शक मुट्ठियां कसे नजर आए। दरअसल आज के अफजल गुरु के स्मरण ने उनको बेचैन कर दिया और उन्होंने एक दूसरे को इस आशय का मैसेज भी भेजा कि उस अफजल खान को तो शिवाजी ने सबक सिखाया, लेकिन आज के इस अफजल गुरु की मौत की सजा पर आखिर कब तामील होगी। आज का स्याणा राजा कब फरमान सुनाएगा?
नाटक के दौरान एक ही सवाल मन में उमड़ रहा था। क्या आज का राजा सब कुछ जाणता है? या फिर सत्ता के इर्द-गिर्द की ऊंची दीवारों के पार वह कुछ नहीं जाणता। क्या यह काणा राजा है, जिसके आगे सब कुछ घटित होता है फिर भी इसे कुछ दिखाई नहीं देता। देखकर भी आंखें मुंदी होने का अभिनय करता है। यह अभिनय के उच्च शिखर पर है। देखकर मुंह फेर लेने का अभिलाषी है यह राजा। उस राजा का संकल्प था कि धरती उसकी पत्नी है, प्रजा उसकी संतान। और प्रजा को संतान की तरह ही पालित-पोषित किया। मगर आज का राजा सिवाय इसके क्या संकल्प ले सकता है कि यह कुर्सी उसकी रखैल है और प्रजा उसकी वोट बैंक। जिसे जब चाहे अपनी इच्छानुसार कभी भी मसल, कुचल सकता है। इसके दिल में सिर्फ सत्ता की वासना की हिलोरें मारती हैं। ये उद्दाम लहरें, सत्ता के गलियारों में टकराती रहती हैं।
उधर, प्रजा सिर फोड़ती है। सिर धुनती है। कोसती है। गालियां बकती है। इससे ज्यादा उसके हिस्से में कुछ है नहीं। लेकिन यह राजा कब जाणेगा?

June 30, 2008

हर्षाने का सुख, मुर्झा जाने तक

इस देश में मानसून का आना खुशियों का प्रतीक माना जाता है। इस दफा ये खुशियां ज्यादा देर तक कायम न रह सकें, शायद। आसमान से टप-टप पानी गिरेगा, लेकिन ज्यादा शोर भाषणों का होगा। रिमझिम बारिश के साथ सुनियोजित ढंग से तैयार किए गए स्वर झरेंगे। मेंढकों की जगह अजीब किस्म की टर्राहट सुनाई देगी। और लगभग शुरू भी हो चुकी है। या फिर फाइनल रिहर्सल जारी है। एक जोरदार स्क्रिप्ट लिखी जा रही है- फाइनल टच इस कामना के साथ कि एक-एक डायलॉग पर जनमानस दे ताली। यानी चुनावी प्रहसन के पट खुलने में अब देर नहीं है। कुल मिलाकर यह धैर्य धारण करने का वक्त है। रग-रग में शक्ति बटोरने पर्व है। यह हर्षाने का नहीं, मुर्झाने का वक्त है।
इसके बाद दर्शकों के हाथ में यानी वोटर्स के पास कोई चारा नहीं रह जाएगा। सिवाय इसके कि वह लोकतन्त्र के हवाले से एक और बेवकूफी कर डाले और जाति, धर्म, क्षेत्र के नाम पर बरगलाया जाकर सहर्ष खुदकुशी कर ले। सुसाइड नोट के नाम पर ईवीएम पर एक खास जगह अंगुली धर दे। अगले चुनाव तक उसके हाथ में यह बचा रहेगा कि रोज सुबह हड़बड़ाकर उठे, हाथ मले, जबड़ा कसे और मुट्ठियां भींचे। इस एक्सरसाइज के साथ वह नित्य फ्रेश हो सकता है।
लेकिन टर्राने वालों को कहां फिक्र है इस सबकी। उनकी आंखों में छलिया जैसी चाहत दिखने लगी है। उनकी आंखों में महंगाई की रफ्तार के बावजूद कहीं भी शर्मसार होने के चिन्ह नहीं दिखते। शर्मसार हों भी कैसें? गरीबों के नाम पर गरीब रथ चलाकर कोई कैसे शर्मिंदा हो सकता है। शर्म वे करें, जो उनकी सदाशयता पर अंगुली उठाते हैं, और डूब मरें। उनका आग्रह यह है कि किसानों की कर्जमाफी को चुनावी घोषणा पत्र समझा जाए और महंगाई को भूल के कूड़ेदान में डाल दें। सुबह-सुबह बढ़ती मुद्रास्फीति की खबर पर चाय का स्वाद कसैला न करे, बल्कि यह देखें कि सरकार में शामिल दल साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ किस हद तक एकजुटता से डटे हुए हैं। अब वे करार पर रार इस बिना पर ठान सकते हैं कि उनको नया साथी मिलने का गणित कथित देशहित के फॉर्मूले पर भारी है। यह चुनाव की वेला में, सत्ता के गलियारों में फिर से फूल खिलाने की उम्मीद को लेकर ज्यादा अपीलिंग मैटर है।
एक दल इसलिए खुद की पीठ ठोक-ठोक मजबूती अनुभव कर रहा है कि उसके तरकश में एक साल से प्रधानमंत्री नामक तीर बेकार पड़ा है और बेध सकने लायक कुर्सी खाली नहीं कर रहा कोई। जो उस पर धंस, देश को पांच साल स्वास्थ्य की कामना करते रहने का अवसर दे सकता है। हो सकता है बाकी कुर्सियों पर भी फिट हो सकने लायक जीवों के नाम भी तय हों। इनके घोषणा पत्र में भी परेशान हाल आदमी के लिए कोई नया मंत्र नहीं है। इनके पास प्रत्याशी तय हैं और बस, इसे ही घोषणा पत्र का प्रारूप समझ एक अदद दाद दे दें।
कुल मिलाकर सरकार मृत्यु शैय्या पर है और आम आदमी कीलों की शैय्या पर लेटा अनुभव कर रहा है। अब तो उसके पास मर्सिया गाने की ताकत भी शेष नहीं। देश में उदासी का आलम है, राजनीतिक दलों के आंगन को छोड़कर जहां, प्रत्याशी तय कर लेने की बेशर्म हंसी तैर रही है।

June 28, 2008

ट्रेन टु विलेज-२

(मेरी गांव यात्रा)
परसों गांव जाने के अपने अनुभव शेयर कर रहा था। कुछ ब्लॉगर साथियों ने टिप्पणियां भेजीं। लगा, सफलता की कहानी कहीं भी गढ़ ली जाए भले, स्मृतियों से गांव कभी छूट नहीं सकता। शहरों में आकर रच-बस गए लोगों की शिराओं में आज भी गांव खून बनकर दौड़ते हैं। हो सकता है हमें इस बात की खबर ही न हो कि हमारी यादों में वही गांव आबाद है, जिसे कभी अलविदा कह आए थे। हमारे साथ-साथ पलते-बढ़ते हैं। इतना जरूर है कि उन स्मृतियों पर शहरी चकाचौंध की गर्त छा गई है। व्यस्तता का बहाना है। समय नहीं मिल पाने के बहुतेरे किस्से-कहानी जुबानी हैं। गांव उन लोगों की आज भी राह तकते हैं, जो सफल पुरुष तो बने, लेकिन लौटकर नहीं गए। जबकि वे वादा करके आए थे। कसमें खाईं थीं। पढ़ाई के लिए या कमाने-धमाने के लिए गांव छोड़ते वक्त, बड़े-बुजुर्गों से, माता-पिता से, युवा साथियों से, खेत-खलिहानों से, गलियों से, सौंधी मिट्टी से, ढोर-ढंगर से एक अलिखित वादा किया था। कितनी ही नेमतों की गठरी बांध विदाई ली थी। कहा था-कुछकर बनकर लौटेंगे। अपनों के बीच, चौपाल पर बैठकर, बड़े-बुजुर्गों के हुक्के की गुड़गुड़ाहट के बीच सफलता की स्वाद भरी कहानी सुनाएंगे। ...लेकिन अफसोस। ऐसा हो न सका। आज हालत यह है कि हमने ही गांवों पर पिछड़ेपन का टैग चिपका दिया है और अब अपने बच्चों को गांव ले जाने से इसलिए कतराते हैं कि कहीं वे गांव के बच्चों के संग घुल-मिल न जाएं। या उनकी परीक्षाएं डिस्टर्ब हो सकती हैं। कुछ गंदी आदतें न सीख लें। मिट्टी में न सन जाएं?
लेकिन क्या मिट्टी पराई हो सकती है? मैं पन्द्रह रोज पहले गांव पहुंचा, तो मुझे उसी मिट्टी से किया वादा याद आ गया। इस बार मुझमें गांव को लेकर जरूरत से ज्यादा अकुलाहट थी, एक बेचैनी थी। टूटकर बिखर जाने की जिद सी आकार ले रही थी। इसके कारण तो खैर, शहर में जन्मी कुंठाओं से उपजे थे। कैमरा साथ ले गया था, एक-एक क्षण को अविस्मरणीय बनाने को। मैं बरसों बाद जीना चाहता था। भरपूर जीने की चाहत दिल में बसाए ही इस यात्रा की शुरुआत की थी। अपनी मिट्टी में पहुंचते ही मैं बचपन में लौट चुका था। मेरा वर्तमान कहीं नहीं था। बस, मैं और मेरा गांव था। मैंने वो सारी गलियां नापी। सारे संगी-साथियों से मिला। खेतों की डगर चला। पगडंडियों पर घूमा। पेड़-पौधे देखे। कुछ पेड़ और घने, छायादार बन चुके थे। पौधों में भी रवानी थी, अपनी जवानी पर इतरा रहे थे। घर में दसेक अनार के पौधे लगे हैं। इतने छोटे पौधे और अनार से लदे-फदे। देखकर सुखद अनुभूति हुई। अमरूद भी सैकड़ों की संख्या में लगे थे। बोझ के मारे टहनियां धरती को छू रही थी। अहा, इतनी विनम्रता, सदाशयता यदि इन्सान में आ जाए तो क्या कुछ हो सकता है, यह अकल्पनीय है।
मैंने पेड़-पौधों के संग खूब फोटो खिंचवाई। वे भी खूब मन से लिपटे। झूम-झूमकर स्वागत-सत्कार कर रहे थे। स्कूली पढ़ाई के दिनों में अपनी भैंस का दूध मैं ही निकाला करता था। सो, इस बार भी बाल्टी लेकर बैठा दूध निकालने। लेकिन भैंस ने अजीब नजरों से देखा और फिर दूर जा खड़ी हुई। उसे मैं अपरिचित लगा। यह चाह पूरी नहीं कर पाया। दस साल में पहली बार मुझे इस तरह की हरकतें करते देख मम्मी-पिताजी खूब हंसते रहे। उस हंसी से मैं जितना आल्हादित हुआ, बयां करना मुश्किल है।
गांव की रातें शीतल होती हैं। छत पर सोने का आनन्द निराला ही है। रात को जिन्दगी से भरी मंद-मंद बयार बहती है। तनाव से अकड़ी सारी नसें खुल जाती हैं। शहर में दो पल लॉन में बैठ जाओ, तो मच्छर धावा बोल देते हैं। शहर में शाम सुहानी नहीं आती, मच्छर भगाने की दुश्चिंताएं लेकर आती है। और वहां निर्मल सी हवा तैर रही थी। मैं उसे फेफड़ों में इस हद तक भर लेने को आतुर था कि पता नहीं फिर ऐसा मौका मिले या नहीं। वहां एक भी मच्छर नहीं था। ताजगी भरा वातावरण था। शहर में सात घण्टे सोकर भी सुबह जल्दी उठने का मन नहीं करता। वहां देर से सोकर भी प्रातःकाल जल्दी आंख खुल जातीं। कभी थकान महसूस नहीं हुई। कभी लगा ही नहीं कि किसी पार्क में जाकर टहलने की जरूरत है। या तनाव मुक्त करने के लिए किसी हास्य क्लब में जाकर क्षण भर के लिए हा-हा-हा करने की आवश्यकता है। शहर में हमने जिन्दगी से हंसी को निकाल दिया है। वहां तो हंसी स्वयंमेव चेहरों पर तैरती है। इस नैसर्गिक आनन्द को में कभी भुला नहीं सकता।
दोस्तों, मैं यह सब इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैंने कोई नया काम कर डाला है या गांव कोई दुर्लभ चीज है। मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि जहां हमारी आत्मा रचती-बसती है, उस जगह के प्रति हम दिल से आभारी बनें। और यदि दिल लगाया जाए तो कोई गोवा, कोई देहरादून, कोई शिमला, कोई काठमांडू या मलेशिया, मॉरिशस वह आनन्द नहीं दे सकते, जो गांव दे सकते हैं। आज घूमने का अर्थ किसी पिकनिक स्पॉट या विदेश भ्रमण हो गया है। ऐसे में हमें कहने की जरूरत है- आओ गांव चलें। हो सके तो प्लीज, गांव को जिन्दगी से मत निकालिए।

June 26, 2008

ट्रेन टु गांव

(मेरी गांव यात्रा)
शहर में मन ऊब चला, तो गांव चला गया। सोचा, चलो फ्रेश हो लेंगे। (कभी-कभी गांवों की यही उपयोगिता महसूस होती है। क्योंकि गांवों में भी अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। लेकिन गांव फिर भी गांव हैं।) खैर, दस दिन गांव रह कर लौट आया हूं। सात दिन हो गए शहर आए। अभी तक गांव की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाया हूं। मन वहीं किसी खेत में छूट गया है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है। वर्ना होता यह था कि शहर से ऊबकर गांव जाता और फिर जल्द ही वहां से ऊब शहर का रुख कर लेता। लेकिन इस बार वैसा नहीं था। पहले से ही तय था कि इस बार गांव को भरपूर जीना है। उन गलियों की यादें ताजा करनी हैं, जहां हम बचपन में खेले-कूदे। उन खेतों की, मैदानों की, गली-कूचों की तस्वीर को एक बार पुनः ताजा करना है। उन किशोरों-युवाओं से खूब घुलना-मिलना है, जो तब कमीज की बांह से नाक पौंछते थे। मतलब यह कि पूरी तरह बचपन में लौट जाऊंगा। भूल जाऊंगा कि मैं वर्तमान में क्या हूं, कहां हूं, क्या कर रहा हूं। इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं-सपनों की गठरी को उतार परे धर दूंगा। बोझमुक्त हो इतना हल्का, इतना हल्का हो जाऊंगा कि मौजूदा मैं से एकदम बाहर निकल जाऊंगा। मैंने शुरूआत लोकल ट्रेन से की। बस से चार घण्टे में त्वरित पहुंचने की बजाय ट्रेन में छह घण्टे का सफर ज्यादा मजेदार लगा। इधर धीमे-धीमे ट्रेन चली। मैंने खुशवंत सिहं की ट्रेन टु पाकिस्तान निकाली। सफर में पढ़ने का इरादा इतना ज्यादा हावी था कि शरद जोशी की दिन प्रतिदिन और कमलेश्वर की कितने पाकिस्तान भी साथ थी। और रास्ते में १०० पेज पढ़ भी डाले। (बचे हुए पेज शहर में आने के बाद आज तक शुरू नहीं हो पाए हैं)। साथ ही इतना चौकन्ना भी रहा कि पैसेंजर ट्रेन में सफर का कोई आनंदित करने वाला क्षण चूक न जाए। ट्रेन के साथ दौड़ते पेड़-पौधे, शहर-गांव सबको भरपूर मन, सजग निगाहों से देखता रहा। बचपन में देखी-पहचानी चीजों को देखता तो मन खुशी से उछलने लगता। बस, यह मलाल रहा कि अकेला होने की वजह से यह खुशी समूचे रास्ते अव्यक्त सी रही। पर मैं इस खुशी को अन्तस में इतना भर लेने को उत्कंठित था कि शहर में मिले सारे तनाव, परेशानियां कुछ समय के लिए सही, गायब हो जाएं। ट्रेन में फेरिवाले से खरीदकर नमकीन खाई। पलसाना की स्टेशन पर आइस्क्रीम का लुत्फ उठाया। चौमू की स्टेशन पर सूखे बेर खाए। सीकर में पेठे, तो झुझुनूं स्टेशन पर उतरकर बाहर आते ही दो पेड़े खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर सका। उस स्वाद के प्रति इस आग्रह को देखकर महानगर से ईर्ष्या सी हो उठी, जहां अपने ही भीतर को मारने पर तुले हैं। स्वाद भीतर ही है, बस मौजूदा जिन्दगी की रफ्तार, काम, जबरियां इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं ने उस नैसर्गिक स्वाद को कसैला बना दिया है। अन्तःकरण का स्वतः स्फूर्त अनुभूतियों का सोता सूख सा गया है। हम महसूस करने की शक्ति खो बैठे हैं।
अब प्राथमिकताओं में आगरे के पेठे का स्वाद या चौमू का झड़बेर नहीं आता। न ट्रेन की सख्त बेंच पर बैठे-बैठे खाई जाने वाली आइस्क्रीम है। अब फ्लेवर्ड आइस्क्रीम का आग्रह है, क्योंकि जहां हम बैठे हैं वहां और लोग भी ऑर्डर कर रहे हैं। पड़ौसी के बच्चों को इतने फ्लेवर याद हैं कि सुनकर हम घबरा उठते हैं। शहर में पन्द्रह किलोमीटर पावभाजी खाने इसलिए चले जाते हैं कि अमुक पावभाजी वाला मक्खन ज्यादा लगाता है या पड़ौसी भी वहां जाते हैं। जरा कल्पना कीजिए, क्या रोटियों में मां के हाथ से डले उस मक्खन के स्वाद का दुनिया की कोई भी पावभाजी या पित्जा-बर्गर मुकाबला कर पाएंगे। खैर। समूचे रास्ते, छह घण्टे आनन्द से भरता रहा। काश, यह सफर रोज यूं जारी रह सके। लग रहा था जैसे बचपन की फिल्म रिवर्स चल रही है।

June 02, 2008

कल रात आपने क्या देखा?

मैं रात्रि में अस्पताल में भर्ती एक रिश्तेदार के पास था। लेकिन मैच का ताजा स्कोर जानने की प्रबल उत्कंठा का शिकार था। मेरा बीमार रिश्तेदार ब्रेन हैमरेज के बावजूद एक लम्बी चैन की नींद में था, लेकिन मैं? मेरी दिमागी नसों में दौड़ते लहू को महसूस कर सकता था। दो नीरस और इकतरफा सेमीफाइनल के बाद रोमांच से भरे फाइनल की उम्मीद कम थी। उम्मीद थी तो सिर्फ इसलिए कि शेन वार्न अपनी फिरकी के इस्तेमाल के साथ-साथ दिमागी गुगली से भी विपक्षी टीम को मात देने की कोशिश करेंगे। वहीं, महेन्द्रसिंह धोनी भी मैदान पर रणनीति और जोश के समिश्रण से राजस्थान रॉयल्स को आसानी से ताज नहीं पहनने देंगे। हुआ भी वही। बार-बार फोन कर एक मित्र से बराबर जानकारी ले रहा था। आखिरी ओवर्स में तो मोबाइल चालू रखा और उससे बॉल दर बॉल हाल सुनता रहा। अन्तिम ओवर में मैंने जो बेचैनी महसूस की, कल रात आम क्रिकेट प्रेमी भी उससे बच नहीं पाया होगा। मैंने महसूस किया, मेरी धड़कनें तेज हो रही हैं। दिमाग में उथल-पुथल मची है। मैं इसे नजरअंदाज करने की भरपूर चेष्टा कर रहा था। अस्पताल की उस सख्त बेंच पर करवटें बदलते देख कोई भी मेरी बेचैनी की हालत को साफ-साफ पढ़ सकता था। ऐसा हुआ भी। पास के एक-दो लोगों ने मेरे चेहरे के उतार-चढ़ावों को नोट किया और उत्सुकता से देखा। मैं क्रिकेट को जुनूनी अंदाज में नहीं लेता। इसलिए मैं खुद मेरी हालत पर चौंक रहा था। लेकिन पैंतालीस दिन के आईपीएल तमाशे के बाद फाइनल मैच तक आते-आते जो स्थित बन रही थी, क्या वह ट्वंटी-२० क्रिकेट की बेतहाशा लोकप्रियता का नमूना नहीं था? तमाम आशंकाओं के बावजूद कल रात हर बॉल के साथ यह नौटंकी हिट हो रही थी। शुरू में इस क्रिकेट में भावनाओं को खारिज कर देने वाले लोग स्वयं भावनाओं पर काबू नहीं रख पाए होंगे। शोहेल तनवीर को पिटता देखने के आकांक्षी रहे लोग, वे याचक की मुद्रा में उससे दो रनों की कामना कर रहे थे। यह क्रिकेट में नया ऐरा की धमाकेदार दस्तक है। क्या आपने सुनी? किसी चीज के परिणामों तक उस पर संशय रहना लाजिमी है। आईपीएल को लेकर भी कुछ ऐसा ही था। कुछ अनिश्चय के शिकार इसके आयोजक भी रहे होंगे, इसलिए चीयर लीडर्स को नचाने से लेकर बॉलीवुड कलाकारों तक का तड़का लगाया गया। शुभंकर को रोचक तरीके से पेश किया गया। बांस पर चढ़े बीस फुट आदमी को खड़ा कर इस क्रिकेट को भी ऐसे खड़ा करने के सौ-सौ जतन थे। शुरुआत में लोगों ने इसे क्लासिक क्रिकेट के खात्मे के रूप में देखा। लेकिन इसकी लोकप्रियता के ज्वार में सारी आशंकाएं बह गई। अब कुल लब्बोलुआब यह है कि यह एक तीन घंटे की मशाला पिक्चर की तरह सामने आईहै, फिर भी पूरी तरह पारिवारिक। पूरे परिवार के एक साथ बैठकर देखने लायक। पूरी रुचि लेकर इसे देखा जा सकता है। पांच दिन के उबाऊ और एक दिन बर्बाद करने वाली क्रिकेट से परे इसका अलग ही सुख है। शाम को ऑफिस से लौटकर भी बच्चों के संग स्टेडियम जाया जा सकता है। भेलपुरी-पावभाजी उदरस्थ करें और स्टेडियम में घुस जाएं। तीन-साढ़े तीन घंटे में खेल खत्म, पैसे हजम। आ, अब लौट चलें।

April 19, 2008

क्रिकेट में ड्रामा, ड्रामे की क्रिकेट

इसमें एक्शन है। ड्रामा है। सितारे हैं। राजनीति है। बिल्लो रानी का डांस है।...और क्रिकेट भी है। आईपीएल का तमाशा है ही ऐसा। आदमी क्रिकेट से बोर नहीं हो सकता। बोर होगा, तो बिल्लो रानी को देखने लगेगा। बिल्लो रानी ढंग से नहीं ठुमकी तो वीवीआईपी दीर्घा की ओर गर्दन उचकाकर सितारों को देख लेगा। देशी में दम ना हो तो फॉरेर्नर चीयर गर्ल भी तो हैं। डांस समझ में नहीं आए तो चिकनी टांगे ही काफी हैं मन लगाने को। यहां सब कुछ देखने की चीज है। और तबीयत से देखा जा सकता है। फुल्ली एंटरटेन है।
आईपीएल नाम का यह तमाशा कई प्रकार के मसालों से बनी खिचड़ी है। नूडल्स है। पित्जा है। बर्गर है। सब कुछ है। कुल मिलाकर सुस्वादु सा मामला बन गया है। यह बड़ी बात है कि आज सब कुछ महंगे के बावजूद सुस्वादु चीज भी परोसी जा रही है। कम से कम ४४ दिन तक दिल लगी का सा खेल चलता रहेगा। देश को, देश के कृषि मंत्री के प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने मंत्री पद की जिम्मेदारी के बीच, प्रधानमंत्री बनने के ख्वाबों के बगीचे में दिन-रात टहलते हुए, किसानों की कर्जा माफी का यश लूटने के पुरजोर प्रयासों और सोनिया प्रधानमंत्री पद से दूर रहें इस किस्म की राजनीति के बीच भी क्रिकेट के लिए इत्ता कुछ कर डाला। और करते रहेंगे।
यहां कुछ बुनियादी सवाल खड़े हो गए हैं। यह क्रिकेट है या तीन घंटे की बॉलीवुड फिल्म है। वैसे यह समझने में माथापच्ची करने की कोई जरूरत नहीं। जिनको क्रिकेट समझ में नहीं आती, वे फिल्म के तौर पर देख सकते हैं। और जिनको फिल्म से परहेज है, वे क्रिकेट समझ तीन घंटे मजे से बिता सकते हैं। जिनको दोनों से एलर्जी हो, वे अक्सर कला प्रेमी लोग होते हैं। उनके लिए मजा यह है कि वे चियर गर्ल के डांस में कला के तत्व खोजने की मशक्कत कर सकते हैं। ...और जो तीनों तरफ से रूखे से आदमी हैं, वे तीन घंटे भीड़ का हिस्सा बन इस जिग्यासा में गुजार सकते हैं कि आखिर यहां हो क्या रहा है? हर बंदे के लिए मामला काफी रोचक है। पता भी नहीं लगे और सब कुछ पता भी लग जाए।
दूसरा कठिन सवाल यह उभर रहा है कि जिसका उत्तर खोजा जाना जरूरी है। शाहरुख, प्रीति जिंटा वगैरह भविष्य में भी टिकट बेचते रहेंगे या एक्टिंग वगैरह में भी लौटेंगे। और मान लीजिए टिकट ही बेचते रहे, सारे मैचों में मौजूद रहे तो फिर फिल्मों क्या होगा। यदि क्रिकेट में मन रम गया तो, शाहरुख कोलकाता से ओपनिंग कर सकते हैं। शाहरुख ओपनिंग में उतरे और मोहाली से मैच हुआ तो प्रीति जिंटा गेंदबाजी में हाथ जरूर आजमाएंगी। फिर तो प्रीति गेंद फेंकेंगी और शाहरुख दिल की तरह गेंद को उछाल कैच आउट हो सकते हैं। मामला तब और भी पेचीदा हो सकता है, जब अभिनेता और अभिनेत्री इतनी बार आमने-सामने हुए कि दोनों प्रतिस्पर्धा भूल दिल लगा बैठें और पिच पर ही एक-दूसरे की बाहों में समा जाएं। कुछ भी संभव है।
यदि सितारों ने क्रिकेट सीखा, तो युवराज, धोनी, गांगुली वगैरह इनके संग रह-रह एक्टिंग जरूर सीख जाएंगे। (वैसे अब भी क्रिकटे से ज्यादा एड वगैरह में एक्टिंग करते हैं)। इस तरह इस क्रिकेट में कई खतरे हैं, तो मजे भी हैं। हो सकता है पंवार साब आगे चल प्रधानमंत्री बन जाएं, तो क्रिकेट के लिए काफी कुछ कर सकते हैं। क्रिकेट सीखने पर सब्सिडी दे सकते हैं। जिन देशों की यात्रा निकलेंगे, वहां क्रिकेटर्स को भी साथ ले जाएंगे। मैचों के जरिए मैत्री को प्रगाढ़ करेंगे। मुशरर्फ को क्रिकेट के मैदान में चुनौती दे सकते हैं। आने वाले कुछ दिनों तक देश वासियों को ऐसे-वैसे ही खयाल आते रहेंगे। लगेगा, यह देश पंवार साब और उनका बोर्ड ही चला रहा है।

April 16, 2008

महंगाई के साथ बयानबाजी के कुछ प्रयोग

लोकसभा में महंगाई पर बयानबाजी जारी है। बयान ही बयान। कुछ धांसू। कुछ फांसू। कुछ इमोशंस से भरे फिल्मी डायलॉगनुमा। सुनकर आंखों में आ जाएं आंसू। तो कुछ शर्मसार कर देने वाले भी। लेकिन नेता सुबह से गला फाड़ रहे हैं। सरकार न शर्मसार हो रही, न इमोशनल होने का उसका कोई मूड है। न टस, न मस। सरकार की ढीठता देख शायद महंगाई खुद ही इमोशनल हो ले, या शर्मसार हो ले। इत्ती शर्मसार हो जाए कि स्वयं ही गिर जाए। क्योंकि कुछ भी हो, महंगाई नेताओं से ज्यादा ढीठ नहीं हो सकती।
महंगाई पर सारी बकवासबाजी के बाद देश के कृषि मंत्री कम क्रिकेट मंत्री भी बयानों की श्रृंखला में अपना योगदान देंगे। यह योगदान अहम होगा, क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था, महंगाई और भविष्य की कुछ तस्वीर होगी। उनके बयान की कुछ भनक लगी है, जिसका लब्बोलुआब यह है-
...तो साथियो, आप सभी जानते हैं कि महंगाई के बाउंसर लगातार जारी हैं। आज सुबह से आप-हम भी खूब झिक-झिक कर चुके हैं। यह सच है कि महंगाई की इस विकट क्रिकेटबाजी से आम आदमी इत्ती बार बोल्ड हो चुका है कि अब क्रीज तक जाने की उसकी हिम्मत नहीं बची। वह झोलेनुमा बैट उठा बाजार रूपी क्रिकेट के मैदान की ओर जाने से डरता है, क्योंकि उसे वहां से फिर बोल्ड होकर लौटना है। वह हमेशा गिरे हुए विकेट की तरह रहता है। लेकिन घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हार-जीत लगी ही रहती है। आज हारे, कल जीते। यूं भी महंगाई आजकल ऑस्टरेलिया सी टीम हो गई है। चाहे जब पीट देती है। चाहे जिसको पीट देती है। लेकिन ध्यान रखें, उसे हमने हराया है, इसे भी पछाड़ देंगे।
जल्द ही आईपीएल शुरू कर रहे हैं। देश की क्रिकेट अर्थव्यवस्था में यह मील का पत्थर साबित होगी। हमने दाल से भी सस्ते टिकट रखे हैं। इसलिए, बाजार जाने की बजाय आदमी, क्रिकेट मैदान का रुख करे तो उसे ज्यादा सुकून मिलेगा। मजदूरी से लौटकर आदमी शाम के भोजन की चिन्ता न करे। सीधा स्टेडियम पहुंच जाए। इस तमाशे का आधी रात तक आनन्द उठाए। भूख की क्या चिन्ता। उपवास प्रिय देश है हमारा।
...तो महंगाई का कुछ यूं भी मुकाबला किया जा सकता है।

April 14, 2008

...गर मनमोहनजी सब्जी बेचने निकलें?

आजकल कई उलटबांसियां सी हो रही हैं। कई बांस उलटे बरेली को हैं। कहां शाहरुख खान करोड़ों कमाने के चक्कर में क्रिकेट के चक्कर में फंस बैठे। उनके आईपीएल के टिकट नहीं बिक रहे। कोलकाता टीम के टिकट बेचते-बेचते पता लग गया है कि टिकट बेचना कोई डॉयलोग बोलने जैसा नहीं है। शुरू से खूब मशक्कत कर रहे हैं। पिक्चर-विक्चर छोड़ पिछले दिनों से लोगो, डे्स, हेलमेट वगैरह के अनावरण में भी खूब व्यस्त रहे। अब टिकट भी पूरे अभिनय के साथ बेचने निकले। हें, हें, हें, आ...पने अपनी फिल्में तो खूब देखी होंगी, अब देखिए अपना क्रिकेट का सुपर-डुपर हिट जलवा। इसमें क्रिकेट भी होगा, एक्टिंग भी होगी। क्रिकेट नहीं भी हुआ, तो गांगुली तो जरूर होगा। आपको जो पसंद आए, देखें। पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें। अरे भाई साब, क्या करते हैं। बोहनी का टाइम है। टिकट खरीद लो। यह आपसे शाहरुख कह रहा है। अरे, उधर कहां से निकल लिए। इधर आओ ना, इतनी सस्ती, फिर भी इतनी बेरुखी। मुंह मोड़े चले जा रहे हैं। अरे ये क्या करते हो, कोई तो आओ। भइया मैं तो यूं बर्बाद हो जाऊंगा। (...और इस तरह शाहरुख के टिकट आशानुसार नहीं बिके। सुपर स्टार निराश हो गया।)
वैसे इस टिकटमारी में कई धांसू सीन बन रहे हैं। उधर, प्रीति जिंटा खुद मोहाली में दुकान पर शानदार काउंटर जमा कर बैठी हैं। आइए, आइए, मैं खुद यानी हीरोइन प्रीति जिंटा टिकट बेचने निकली हूं। यह कोई आलू, तरकारी नहीं है, जो यूं मुंह मोड़कर निकल जाओ। शुद्ध, खांटी क्रिकेट का टिकट है। ले जाइए, सब्जी से भी सस्ती। दाल-चावल, चीनी से भी सस्ती। राम कसम इतने किफायती दामों में पिक्चर का टिकट भी नहीं मिलेगा। यहां आपको क्रिकेट का टिकट मिल रहा है। आइए, पसंद कीजिए और ले जाइए। ५०, १००, १५०, २०० जो भी मन को भाए, ले जाएं। खुद भी लें औरों को भी दिलाएं। एक बार लेंगे, बार-बार आएंगे। नहीं लेंगे, पछताएंगे। इसमें सब कुछ होगा। क्रिकेट भी होगी, छक्के भी होंगे। क्रिकेट न भी हुई तो बिल्लो रानी का शानदार डांस जरूर होगा। महंगाई से निराश हैं, तो मैदान में आकर मन बहलाएं। आपकी कसम, यह झूठ नहीं है। इस तरह प्रीति जिंटा दोपहर तक बैठीं। पर टिकट क्या हुई, सब्जी हो गई। नहीं बिकी। खुद के बैठने के लिहाज से टिकट नहीं निकले। दर्शक न जाने क्या भाव से हो गए हैं, जो पहुंच से एकदम बाहर। या शेयर सूचकांक से हो ऊपर चढ़ गए हैं। हीरोइन को कित्ती चिरौरी करनी पड़ रही है कि भइया नीचे उतरो, ठिकाने पर लौटो। अभी विजय माल्या, मुकेश अम्बानी वगैरह भी शुभ मुहूर्त देख शटर उठाने वाले हैं। अम्बानी को तो सब्जी वगैरह बेचते-बेचते अच्छा-खासा सा अनुभव हो गया। थोक के साथ खुदरा में भी बेच लेंगे। और भी कई घराने खुदरा पर उतर आए हैं।
इससे एक बात तो साफ हुई। इन लोगों को भी पता लगा गया कि टिकट वगैरह बेचना कितना कठिन काम है। वैसे भी महंगाई के जमाने में पब्लिक टिकट कैसे खरीदे। आटे-दाल के भाव से पगलाया आम आदमी टिकट की कैसे सोचे। वह सब्जी मण्डी की ओर निकलने का साहस जुटाए कि मैच देखने के मंसूबे पाले। भाव सुनकर गश खा जाने वाला आदमी टिकट खरीदने के लिए होश कहां से लाए। उसके लिए काफी विकट सी चीज हो गई है टिकट। यह तो शरद पंवार टाइप नेताओं के बस की ही बात है, जो महंगाई के जमाने में कृषि मंत्रालय भी संभाल रहे हैं और क्रिकेट, विश्व क्रिकेट भी।
यदि एक बार मनमोहन सिंह भी सब्जी की दुकान खोल लें, तो पता चल जाए कि सरकार चलाने और सब्जी बेचने में कितना फर्क है। सरकार भले ही, तमाम लेफ्ट, राइट, फ्रन्टबाजी के बावजूद चल जाए, सब्जी बेचना कोई सरकारों का खेल नहीं।

April 11, 2008

नजरें जो घड़ियाल हो गई हैं...

सरकार चुनावों का गणित बिठाने में व्यस्त है। महंगाई बेशुमार बढोतरी पर है, पर सरकार को न जगाइए। वह अभी चुनाव जीतने का दिवास्वपन देख रही है। क्योंकि उसने किसानों का कर्जा माफ कर दिया है। बजट लोक लुभावन बना दिया है। तीन साल पब्लिक की रगड़ाई कर चौथे सार का बजट का गोलमाल कर दिया। लो हो गई जीत की हकदार। अब उसकी कवायद इस बात पर है कि चुनाव की तारीख कब मुकर्रर की जाए। पर विपक्ष को भी कुछ मत बोलिए। उसकी हालत भी कोई ठीक नहीं है। कुछ अन्दरूनी कलह, ऊपर से मुद्दों का अकाल। अन्दर निपटने में जितनी ऊर्जा नष्ट होती है, उसके बाद सरकार से लड़ने की उनकी हिम्मत नहीं बचती। हां, उन्होंने एक कार्य में कांग्रेस से बाजी मार ली है। उन्होंने अपना प्रधानमंत्री चुन लिया है। उसके लिए यह उपलब्धि महंगाई पर हाय-हाय करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। सो, उसने वह हासिल कर लिया है, जो अभी कांग्रेस नहीं कर पाई है। कांग्रेस के पास प्रधानमंत्री नहीं है भावी। भाजपा के पास चुनाव से पहले ही प्रधानमंत्री हो गया है। सो , महंगाई उनके लिए भी कोई मुद्दा नहीं रहा। यूं महंगाई पर सोचें, यह वक्त किसके पास है। देश के कृषि मंत्री को क्रिकेट से फुर्सत नहीं। बोर्ड के झगड़े। इंटरनेशनल क्रिकेट में धाक कायम करने की उत्कट चाह। डालमिया को ठिकाने लगाने की राजनीति। आईपीएल की धमा-चौकड़ी। क्रिकेट को लेकर तमाम तरह की माथापच्ची। वेंगसरकर के कॉलम पर नजर। युवा टीम थोपने की कसरत। राजनीति से ज्यादा दांव-पेच। अब इनसे कहां इतनी फुर्सत मिलती है कि महंगाई पर सोच पाएं। कुछ किसानों की सोच पाएं। बाकी बचा समय प्रधानमंत्री बनने की लालसा और सपनों में निकल जाता है। आखिर एक मंत्री, जो क्रिकेट में भी फंसा हो, कहां तक करे। कहां तक सोचे।
वाम मोर्चा की हालत इनसे खस्ता। सरकार में रहकर कैसा बैर। लेकिन राजधर्म से ज्यादा बैर धर्म निभाने की मशक्कत में जुटे हैं। बैर करके भी सरकार में बने रहने की कला। अन्दर सहमत, बाहर असहमत। बाहर सहमत, तो अन्दर असहमत। या जैसा होना है, वह दिखाना नहीं। जो दिख रहा है वैसा होना नहीं। अजीब कलाकारी है। यह क्या कम जादुई काम है। फिर सरकार पर बराबर नजर रखना कि परमाणु डील कहां तक पहुंची। दिन में चार बार परमाणु डील का जिक्र। डील का नाम ले-ले सरकार को गरियाना। इनकी हालत आम आदमी से गई गुजरी। सरकार गिराने की धमकी और बनाए रखने की मजबूरी। कैसा अन्तर्विरोध पाले पड़ा है, जो न चुनाव करवाने देता है और ना सहमत होने की मंजूरी देता है।
तीसरे मोर्चा को पता नहीं महंगाई किस चिड़िया का नाम है। उनकी चिन्ता है, उनका जनाधार नहीं बढ़ रहा। उनकी कवायद खुद को तीसरा मोर्चा बनाए रखना है। रह-रहकर ऐसी कोशिशें करना और उनको अमलीजामा पहनाने की कुचेष्टा करना। हारे हुए लोग इकट्ठा होकर सरकार बना लेने का सपना देखें, इसी का नाम तीसरा मोर्चा है। अब महंगाई कहां नजर रखें। नजरें पता नहीं कैसी घड़ियाल टाइप हैं, जो उधर उठती ही नहीं। न गिरती मुद्रा स्फीति की तरफ उठती हैं और ना चढ़ती महंगाई पर चौंकती हैं।

April 03, 2008

गायब होने का उम्दा भारतीय कौशल

लो, जी आदमी गायब हो सकेगा। साइंस ने ऐसी तरकीब खोज कर ली है। अमरीका आदि देशों ने यह खोज की है। वैसे इसमें नई खोज क्या हुई। इंडिया में यह तरकीब बहुत पहले से चालू है। साइंस की मदद से गायब आदमी कुछ देर बाद तो दिखाई दे जाएगा। यहां आजादी के तत्काल बाद गायब हुए लोग आज तक नहीं मिल रहे। आओ चलें, हम सब उन्हें ढूंढें।
नेताजी को गायब होने की विधा विरासत में मिली। बाप ने बेटे को संभलाई। बेटे ने बेटे को या चाचा, भतीजा, भाई वगैरह जितने भी खूनी रिश्ते हैं, उन्होंने सबने गायब होने की कला सीख ली। और सब आज तक पूरी कुशलता और धूर्तता से गायब हैं। सांसद-विधायक चुनाव जीते और पूरे पांच साल के लिए गायब। चुनाव की आहट हुई। तब इनका बयान आया। तिथि घोषित हुई। तो रोनी-धोनी सूरत लेकर लाव-लश्कर के साथ खुद प्रकटे। चुनाव का कुंभ सम्पन्न। जीते तो गायब। हारे तो भी गायब। गायब हर हाल में होना है। सदन में पहुंचे, तो वहां दर्शन नहीं। दर्शन तो, प्रर्दशन नहीं। क्षेत्र की समस्याएं उठाने का वक्त आया, तो गायब मिले। मुद्दे उठने के इंतजार में दम तोड़ बैठे। ये उठकर गए, तो लौटे नहीं।
गायब और भी बहुत से हैं। साठ वर्षों से उन्हें लोग खोज ही रहे हैं। चप्पलें घिसी जा रही हैं। जूते इसलिए चमकाए जा रहे हैं, ताकि चमक उतारी जा सके है। लोगों के लिए सड़कों की चलने से ज्यादा इस काम में अधिक उपयोगिता है। सड़कों पर बिछी डामर जनता के जूते-चप्पलों की चमक फीकी करने के बखूबी काम आ रही है। जिसे ढूंढने का उपक्रम करो, वही गायब। सरकारी दफ्तर जाओ तो बाबू गायब। एक नहीं, कई-कई दिन गायब। गायब होने का उम्दा प्रर्दशन। जादुई प्रर्दशन। जनता हैरान, परेशान, चमत्कृत। सिर धुनती हुई, खुजाती हुई। कुर्सी को कोसती हुई। अफसर से शिकायत करने पहुंचो तो वो खुद गायब। सिर्फ कुर्सी मौजूद है। उससे ऊपर जाओ तो वो भी गायब। हर ऊपर वाला गायब। अब करो शिकायत।
गायब होने की लम्बी फेहरिश्त। सब कुछ होकर भी गायब है। नल है, पानी गायब। बिजली के तार हैं। बिजली की बातें है। बिजली उत्पादन के चर्चे हैं। पर बिजली गायब। गांवों में बच्चे पढ़ने बैठते हैं, बिजली गायब। सदन है, संसद है, नेता गायब। नेता हाजिर, तो मुद्दे गायब। मुद्दे भी हों, नेता भी हों, तो बहिस्कार कर तुरंत गायब। अजीब मर्ज है। हैं भी, नहीं भी। यानी होकर भी नहीं हैं। सच क्या है, झूठ क्या है? समझ से परे है।
यह नदारद होने का इंडियन कौशल है। अब अमरीका की साइंस खोज क्या कर लेगी। हमारी गायब कला से क्या मुकाबला।

April 02, 2008

महंगाईबाजी बनाम कमेटीबाजी

एक अप्रेल को खबर आई कि सरकार महंगाई पर लगाम कसेगी। यह संशय भरी खबर थी। यह वैसी ही घोषणा थी, जैसी अक्सर सरकारों की हुआ करती हैं। लोगों ने इसलिए भी भरोसा कम किया कि कहीं वे अप्रेल फूल न बन जाएं। लेकिन २ अप्रेल को एक और खबर आई है कि सरकार महंगाई रोकने के लिए एक कमेटी का गठन करेगी। यानी तात्पर्य यह कि महंगाई कमेटी रोकेगी। यह नई बात हुई। अब तक कमेटियां फाइल को लाल फीते से बांध रिपोर्ट देती आई हैं, यह महंगाई रोकने के लिए विचार करेगी।
यह बात तो ठीक, लेकिन महंगाई फिर भी नहीं रुकी तो उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा। सरकार या कमेटी? शायद कमेटी। नहीं, सरकार। या दोनों। कुछ भी हो सकता है। दोनों जिम्मेदारी लेने से इनकार भी कर सकती हैं। केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहरा सकती है। बदले में राज्य सरकारें इतना सा करेंगी कि वे केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा देंगी। लो, हो गई जवाबदेही तय। खैर।
मेरे खयाल से कमेटी न महंगाई रोकेगी, न जतन करेगी और न कोई ऐसा-वैसा काम करेगी, जिससे महंगाई महंगाई को शर्मिन्दा होना पड़े यानी रुकना पड़े। वह बस, सुझाव देगी। उससे महंगाई रुके तो उसकी मर्जी वरना उनका काम पूरा। यानी एक अच्छी सी रिपोर्ट देगी। जैसा कि कमेटियां दिया करती हैं। और रिपोर्ट से पहले अच्छा-खासा समय लेगी। कमेटियों का काम समय लेना होता है। उनके गठन से एक नारा सा ध्वनित होता है- तुम मुझे समय दो, मैं तुम्हे रिपोर्ट दूंगी। सचमुच सरकार नहीं बदले तो अर्से बाद एक रिपोर्ट आ जाती है। जब तक महंगाई और बढ़ लेती है। वह किसी रिपोर्ट का इन्तजार नहीं करती। फिर उसे रोकने के लिए एक और कमेटी के गठन की गुंजाइश निकल आती है। नई सरकार हुई, तो इस बात के लिए ही एक और कमेटी बना सकती है कि पिछली कमेटी ने क्या किया? (जिन्हें मंत्रीमण्डल में स्थान नहीं मिलता, उन्हें कमेटी में मिल जाता है)। वह न महंगाई पर विचार करती है, न रिपोर्ट पर। उसका काम बस इतना रह जाता है कि पिछली कमेटी की रिपोर्ट कितनी सही थी। इस तरह अच्छी-खासी कमेटीबाजी हो लेती है- बिलकुल महंगाईबाजी की तरह।
इस कमेटी से भी ऐसी ही उम्मीद के सिवा कुछ नहीं रखें। रखें तो अपने रिस्क पर।

March 29, 2008

कौन है यह मल्लिका साराभाई?

कौन है यह मल्लिका साराभाई?
पता नहीं।
तूने नाम सुना है पहले।
नहीं तो...तुमने?
मैंने भी नहीं सुना।
फिर?
फिर क्या?
(सवाल यह था कि फिर क्यों छापा जा रहा है।)
खैर, सहवाग ने कितने बना लिए?
तिहरा शतक ठोक दिया।
पहले भी तो ठोक चुका है।
हां, पाकिस्तान के खिलाफ।
देखना कल की हैडिंग होगी-सहवाग ने किया अफ्रीका के स्कोर को फीका।
यह भी हो सकती है कि मुल्तान के सुल्तान का जलवा।
(यह थे दो युवा पत्रकारों के बीच वार्तालाप के अंश, जिनमें एक पत्रकार अच्छी-खासी रिपोर्टिंग करते हैं, और दूसरे एक महत्वपूर्ण पेज का दायित्व संभालते हैं।)
मशहूर भरतनाट्यम डांसर मल्लिका साराभाई शहर में थीं, और उनका इंटरव्यू जा रहा था। उनका आश्चर्य इस बात को लेकर था कि हमने आज से पहले मल्लिका साराभाई का नाम कभी नहीं सुना, फिर ऐसा क्या है कि इसका इंटरव्यू इतने महत्व के साथ दिया जा रहा है।

March 18, 2008

जंक्शन का सीन देख कष्ट दे गया स्मृतियों में आया गांव

यह वाकई ऐसा ही सीन था, जिसे देख हर कोई ठिठका। रुका। देखा। और मंद-मंद मुस्काते हुए आगे बढ़ गया। वे सात-आठ युवा थे। रंग-गुलाल से सने। अपनी वेशभूषा और अंदाज से निस्संदेह ग्रामीण। आस-पास के माहौल से पूरी तरह बेखर। अपने में मग्न। होली का उल्लास बांटते। ढप, मंजीरे और बांसुरी के साथ होली के गीतों से हर किसी को मंत्रमुग्ध कर रहे थे।
दरअसल आज सुबह मैं पिताजी को छोड़ने जयपुर जंक्शन पर गया था। वहां इन मस्ताने युवाओं की टोली को ढप के साथ नाचते-गाते देखने का यह निराला अनुभव था। महानगरीय प्रसव पीड़ा से छटपटाते शहरों में में ऐसे दृश्यों की कल्पना ही बेमानी है। शुरू-शुरू में मेरी तरह हर कोई उन्हें स्टेशन पर देख चौंक रहा था। लेकिन इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। यहां ऐसे दृश्यों से सामना होने पर गांव से आकर शहरों में स्थापित हुए लोग कनखियों से देख इसलिए निकल लेते हैं, कि कहीं उनके अन्दर के देहाती को कोई पहचान ना ले। ( हमारी अधिकांश शक्ति अपने अन्दर के देहाती को मारने में जाया होती है।) खैर, वे नाचने-गाने में इतने मशगूल थे कि उन्हें ऐसी किसी चीजों से मतलब होना भी नहीं था। वे जयपुर कमाने-धमाने आए ग्रामीण युवा थे और होली पर गांव लौट रहे थे। गांव की होली उन्हें बुला रही थी। जाते समय उन्होंने दोस्तों के साथ अपनत्व भरी होली खेली। नेह के रंग-गुलाल मले। और विदाई की वेला में यहीं से ढप, मंजीरे, बांसुरी का इन्तजाम कर लिया। ट्रेन के इन्तजार में वे फागुनी रसिया प्लेटफॉर्म पर ही रंग जमाने लगे। वहां सैकड़ों लोग और भी थे, जो गंतव्य के लिए अपनी-अपनी ट्रेनों के इन्तजार में चहल-कदमी कर रहे थे।
यह सीन देख गांव की यादें ताजा होना लाजिमी था। मेरी स्मृतियों में गांव का फागुन आ बसा। वे भी क्या दिन थे, जब एक माह पहले ही होली का डांडा रोपा जाता। गांव की गलियों से लेकर घर-घर से होली के गीतों की अनुगूंज सुनाई पड़ती। पेड़-पौधे नया बाना धारण कर लक-दक हो उठते। खेतों से उठती सरसों की गंध से सारा माहौल प्रमुदित हो उठता। चारों तरफ से फाग झरने लगता। अन्तर्मन आल्हादित हो जाता। हर शख्स अलबेला मस्ताना सा नजर आता। बच्चे लोग जहां गांव की गलियों से लेकर खेतों तक चांदनी रात में लुका-छिपी का खेल खेलते, वहीं लड़कियां दस-बीस के समूह में मौहल्ले-मौहल्ले में गीतों भरी सांझ संजोती। इनसे बचना नामुमकिन था। रात को गांव में दो-तीन जगह होली का दंगल होता था। उनमें होली के गीतों भरा कॉम्पिटिशन होता। आधी रात बाद तक चलता रहता यह दौर। बीच-बीच में धरे जाते स्वांग बांधे रखते थे। हम बच्चे दिन में क्लास में ही तय कर लेते थे कि आज कैसे छुपकर घर से निकलना है, क्योंकि वे परीक्षाई दिन होते थे। घर वाले पढ़ने पर जोर देते, और हम रात को स्वांग देखने की तिकड़में खोजते रहते। मैं और मेरा दोस्त हमारे घर की छत पर बल्ब लटका पढ़ते थे और घर वालों के सो जाने के बाद छत से कूदकर फरार होते थे। बीस-पच्चीस दिनों की उस उत्सवधर्मिता से कटे रहना वाकई असंभव था। कई लोग अलगोजा इतना शानदार बजाते थे, कि आज शहर में आकर उनकी उस कला का अहसास होता है। ज्यादातर ग्वाले, किसान ही ढप, अलगोजा, झांझ-मंजीरे बजाने में निष्णात थे। उन्होंने इन्हें सीखने के लिए कहीं, किसी डिप्लोमा पाठ्यक्रम में एडमिशन नहीं लिया। वहीं गलियों, खेतों, पशुओं के पीछे भागते-भागते सुर फूंकते-फूंकते सीख गए। शुरू-शुरू में अनगढ़ से, बेसुरे से, लेकिन निरन्तर अभ्यास से इतने प्रवीण होते गए कि वह कर्णप्रिय आवाज आज भी कानों में गूंजती है। सच, वैसी मिठास राजधानी में कई बड़े-बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी नहीं हुई।
लेकिन पिछले दस-पन्द्रह साल में गावों की यह कला भी गर्दिश में है। दिल में हूक सी उठती है। अब होली पर गांव जाते हैं- वैसे नजारों की कल्पना में खोए, लेकिन वह सब नहीं देख निराशा होती है। गांव के लोग एक-दूसरे से कटे हैं। शहरों जैसे सैटबैक छोड़े जा रहे हैं दिलों के बीच। इतनी जूतमपैजार सदनों में विरोधी नेताओं के बीच भी नहीं होती, जितनी दो दलों के समर्थक पड़ोसियों में हो जाती है। साल भर एक-दूसरे से इसलिए खिंचे रहते हैं कि फलां अमुक पार्टी का समर्थक है। लट्ठम-लट्ठा आम बात है। बिना मारपीट, या घोर तनाव के वोटिंग नहीं होती। जलन, ईर्ष्या घोर चरम पर हैं। केस-मुकदमों की संख्या बढ़ रही है। भाई-भाई खून के प्यासे हैं। जनप्रतिनिधियों ने इस कमजोर नस को पकड़ा है। विकास के वादों की बजाय वे केस-मुकदमों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं।
ऐसे में बताइए कहां वह गांव, कहां वह होली, और कहां वह निरापद, निराला आनन्द? जब-जब स्मृतियों गांव जुटता है, कष्ट ही देता है।

March 13, 2008

एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को

डरे, सहमे, लज्जित से हॉकी खिलाड़ी दबे पांव सरजमीं पर लौट आए। कुछ कैमरामैन उनके चेहरों को फोकस करने एयरपोर्ट पहुंचे। अपने हिसाब से कामयाब भी रहे। इससे पहले ही खिलाड़ियों के गुनहगार मुद्रा में मीडिया में फोटो छप चुके थे। हॉकी का काला दिन। हॉकी में हाहाकार। हॉकी को श्रद्धांजलि। देश शर्मसार। जितने और जिस चतुराई से हैडिंग कौशल का परिचय दिया जा सकता था, दिया गया। अखबारों ने एक तरह से जज की कुर्सी पर पांव पसार साबित ही कर दिया था कि अब हॉकी खत्म ही समझो। लिखने का ही कर्म और श्रम करने वाले बुद्धिजीवियों ने भी पारिश्रमिक के बदले गालियां देने में कसर नहीं रखी। कुछ ने गिल से लेकर हॉकी फैडरेशन के पदाधिकारियों को अपनी लेखनी का आहार बनाया। हर शख्स, जो खुद को और किसी लायक समझे या नहीं, एक अदद टिप्पणी के काबिल समझता ही है, कोसने की ठीक-ठाक रस्मअदायगी कर डाली। हारे को हरिनाम, जीते सो पहलवान। हार के बाद सोचिए भला, सिवाय इन बातों के बचता ही क्या है?
तो खिलाड़ी लौट के देश आ गए। उनको आना ही था। जाते कहां? ओलम्पिक की फ्लाइट वे पकड़ नहीं पाए थे। कहा गया, देश अस्सी साल में पहली बार ओलम्पिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाया। इसके लिए कई चश्मों, नजरियों और वैचारिक दिमागों ने जोर लगाया। अपने हिसाब से कई कारण गिनाए गए, हल भी सुझाए गए। अब इनसे पूछा जाए, ये विश्लेषण पहले कहां थे? क्या हम पागलपन भरी उम्मीद से थे कि हॉकी का ओलम्पिक जीत ही लाएंगे? कब तक ध्यानचंद के ध्यान में हॉकी के खयाली ओलम्पिक जीतते रहेंगे? यह सुखद सलौना सपना कब टूटेगा? हॉकी का ग्राउण्ड क्या है? जहां फैडरेशन ही हॉकी के मैदानों की हरी-भरी घास चरने की जिद्द पर अड़ी हो, वहां क्या तो खिलाड़ियों की पौध तैयार करेंगे और क्या ओलम्पिक जीतेंगे? हम हॉकी की हुंकार क्यों भरते हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और यह कंगूरा हम हर हाल में माथे पर चिपकाए रखना चाहते हैं। हम अपनी औलाद को तो क्रिकेट में ठेल रहे हैं, बाकियों से उम्मीद करते हैं वे ही हॉकी में कुछ करें। हर बच्चे में एक भावी सचिन की खोज जारी है। बच्चों को महंगे क्रिकेट क्लबों में भेज रहे हैं। क्रिकेट का भविष्य संवारने की जिद्द के चलते महंगे विदेशी कोच आयात कर रहे हैं। सनकपन की हद तक क्रिकेटरों को मण्डी में खड़ा कर बोलियां लगा रहे हैं। देश के हर ग्राउण्ड को हम क्रिकेट ग्राउण्ड में बदल डालने को कृत संकल्पित हैं। किसी भी हालत में, क्रिकेट मैच की टिकट हथिया खुद को धन्य समझ और हॉकी की दुर्दशा पर हाय-हाय करने वाले लोग हैं हम। चौके-छक्कों पर तालियां बजा, मौका लगते ही हॉकी को गरियाने वाले लोग हैं हम। कसम खाइए, कितने लोग हॉकी खिलाड़ियों के नाम जानते हैं?
अभी तक हॉकी की हार पर काफी अनर्गल प्रलाप हो चुका। सिर धुने जा चुके। अब कुछ सार्थक सोचिए, आखिर सोचने वालों का देश है हमारा। उधर देखिए, मैदानों में लटें घुस गई हैं। इल्लियों का जमावड़ा है। कुतर-कुतर हॉकी खाने के मजे हैं। स्टिक को दीमकें खोखला कर रही हैं। खिलाड़ियों का डीए भी कुतरने से गुरेज नहीं।
इन हालातों में भी फैडरेशन का अध्यक्ष कुर्सी से चिपका है। देश मैदान छोड़ आया, और ये कुर्सी तक नहीं छोड़ना चाहते। एक बेशर्म जिद्द सी है। ऐसे हालात में क्या आपको अब भी लगता कि
एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को।

March 05, 2008

सॉफ्टवेयर महोदय, यह भी भविष्यवाणी करते जाओ

नैराश्य के माहौल में इस खबर में सारी समस्याओं का हल ढूंढा जा सकता है। खबर यह है कि एक ऐसा सॉफ्टवेयर बन गया है, जो आतंकी घटनाओं की भविष्यवाणी करेगा। अहा, क्या सीन होने वाला है? इधर गोपनीय स्थल पर गुफ्तगू के बाद कमाण्डर का निर्देश ले आतंकी बदन पर विस्फोटक बांध निकलेंगे, उधर सॉफ्टवेयर घोषणा कर देगा कि अलां-फलां स्थान पर आतंकी वारदात होगी। आतंकियों को ऐसा दबोचा जाएगा कि उनको बटन दबाने का मौका ही न मिले। वैसे हमारे पास खुफिया तंत्र नामक सॉफ्टवेयर पहले से मौजूद है, जो अधिकांश वारदातों के बाद चेताने का काम करता आया है। हर वारदात के बाद एक बयान यह आता है कि खुफिया तंत्र ने पहले ही चेता दिया था। इसको यहीं छोड़ें। नई उम्मीदों के बारे में सोचें। हमारे यहां कुछ धांसू-फांसू सॉफ्टवेयरों की जरूरत है। जिनके बनने से हमारे सिस्टम की नब्ज पकड़ सके। खासकर पॉलिटिक्स में कुछ राहत सी मिल जाए। एक सॉफ्टवेयर ऐसा बन जाए, जो नेताओं पर केन्द्रित हो। नेताओं के मूड को पकड़े। उनके मिजाज को भांप भविष्यवाणी करे कि अब फलां नेता क्या बयान देने वाला है और उनमें कितनी सचाई होगी, कितना झूठ होगा? कौन नेता कल पार्टी में बगावत कर विरोधियों से हाथ मिला लेगा? कौनसी पार्टी समर्थन वापस ले सरकार गिराने के मंसूबे पाल रही है? यह भी पता चले कि आज विपक्ष सदन में किन मुद्दों पर वॉकआउट करेगा? यदि ऐसा हो जाए, तो सदनों में संभावित जूतमपैजार-माइकपैजार, कुर्सीपैजार, धक्क-मुक्कमपैजार आदि से बचा जा सकता है। ऐसे सॉफ्टवेयर बहुत सी समस्याएं हल करने में देश की मदद कर सकते हैं। कल्पना कीजिए, आसन्न सारी समस्याओं की घोषणा होने लग जाए, तो कैसा रहे? सॉफ्टवेयर बता सकता है कि अगले कुछ घंटे महिलओं पर कितने भारी गुजरने वाले हैं? कितने बलात्कार होने वाले हैं? कितनी हत्याएं होंगी? सड़क दुर्घटनाओं में कितने लोग मारे जाएंगे? नेताओं द्वारा कितने और किस पैमाने पर झूठ बोले जाएंगे? भ्रष्टाचार का सेंसेक्स कितना चढ़ेगा। कुल कितना धन भ्रष्टाचार के पेटे जाएगा? कौन कितना कमीशन खाएगा? बाबू आज फिर दफ्तर में नहीं बैठेगा? छह महीने से अटकी फाइल अगले छह महीने चलने की उम्मीद नहीं। फिर आदमी क्यों दफ्तर के चक्कर लगाए? दो पड़ोसी आज किस बात पर लड़ बैठेंगे? इससे उनको खासी तैयारी का वक्त मिल जाएगा। सेंसेक्स कितना गोता खाने के मूड में है, ताकि उसे वक्त से पहले ही थामा जा सके। क्लास में आज फिर लेक्चरर दर्शन नहीं देंगे। क्लास खाली जाएगी, यह पता चले तो स्टूडेंट्स क्लास में क्या लेने जाएं? सच, ऐसे सॉफ्टवेयर तो बहुत काम के साबित हो सकते हैं। छोटे-छोटे संकटों से लेकर बीस सूत्री, पंचवर्षीय समस्याओं तक का खाका पल में सामने आ जाएगा। यह भी पता लगे कि वारदात होगी और पुलिस आदतानुसार कितनी लेट पहुंचेगी या हो सकता है धौंस में आ जाए तो नहीं भी पहुंचे? कितने फरियादियों को थानों से बिना रपट के टरका दिया जाएगा? किन-किन पर बेवजह पुलिस के डंडे-फंडे, धोल-धप्पे पड़ने वाले हैं? ऐसा होने लगे, तो अपराधियों की भी खैर नहीं। वे प्लानिंग करें और इधर सॉफ्टवेयर महोदय सारा कच्चा-चिट्ठा खोल दें? यहां, अपराधी होशियार निकले तो, वे बीच में ही प्लानिंग चेंज कर सकते हैं। जैसे किसी का अपहरण करने जाएं और अपहरण छोड़ किसी को टपका आएं। सब कुछ संभव है। फिर तो सॉफ्टवेयर बहुद्देश्यीय साबित हो सकता है। सरकारें भी सारी समस्याओं का हल सॉफ्टवेयर में खोज सकती हैं। वे यह बहाना कर ज्यादा निकम्मी भी हो सकती हैं कि फलां खतरे के बारे में सॉफ्टवेयर ने बताया ही नहीं था। या केन्द्र राज्य को धमका कर कहे कि वारदात से पहले सॉफ्टवेयर ने राज्य को चेता दिया था।

March 01, 2008

लड़कियां तो साइकिल फिर भी नहीं चलाएंगी?

सोचा तो यह गया था कि लड़कियों को साइकिल मिलें। वे साइकिल चलाते हुए स्कूल आएं। आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी स्कूल से ही चढ़ें। अहा, क्या नजारा है, गांव की पगडंडियों पर दो चोटियों वाली लड़कियां साइकिल चलाते हुए स्कूल की ओर बढ़ रही हैं। आपस में बतियातीं, हंसी-मजाक करती, पैडल दर पैडल आत्मविश्वास बटोर रही हैं। गांव की आत्मा खुद को धन्य समझ रही है कि बेटियां उसके आगोश में सलीके से पल-पढ़-बढ़ रही हैं। गांव की रपटीली, पगडंडियों पर जवां होतीं बेटियां सीने में कुछ करने का जोश जगा रही हैं।
लेकिन अफसोस, सीन इससे कुछ उल्टा है। सीन कुछ यूं बन रहा है कि लड़कियां पगडंडियों के किनारे हैं और उन्हीं के भाई या अन्य लड़के उन साइकिलों पर मस्ती करते या राह में लड़कियां छेड़ते मुंह चिढा़ रहे हैं। दरअसल साइकिलें इश्यू हुई लड़कियों के नाम और अब उन पर सवार हैं उनके भाई, पिता या अन्य पड़ौसी, रिश्तेदार।
साइकिलों का यह किस्सा राजस्थान का है। सरकार ने पिछले बजट में यह घोषणा की थी कि स्कूली छात्राओं को ३०० रुपए में साइकिल दी जाएंगी। उसकी परिणति अब अगले बजट के बाद हो रही है। तब तक कुछ लड़कियां साइकिलों पर बैठने की हसरत लिए अगली कक्षाओं में पहुंच गईं, तो कुछ स्कूल छोड़ गईं या फिर कुछ बाली उम्र में ही उनकी मर्जी के बगैर पिया संग भेज दी गईं।
दिखने में यह बात काफी हल्की भी लग सकती है और मजाक में भी उड़ सकती है। लेकिन ऐसा मैंने कुछ गांवों में देखा है। जिन लड़कियों के नाम पर साइकिलें ली गईं, उनका अधिकार बस दस्तखत भर करना था। अब वे घर के पुरुषों की थाती हैं। वे उन पर घूम सकते हैं। बाजार जा सकते हैं। खेत से चारा ला सकते हैं। और नहीं तो उनके भाइयों के लिए आवागागर्दी का जरिया तो बन ही सकती हैं। लड़कियां पहले की तरह पैदल आती हैं। बस से आती हैं या फिर अन्य उपलब्ध साधनों से। संभव है उन्हें हिदायतें भी मिलीं होंगी कि खबरदार, साइकिलों के हाथ जो लगाया। पुरुष मानसिकता के बोझ से दबे घरों में यह कोई आश्चर्य नहीं है।
इसके विपरीत हो यह भी सकता है कि घर के पुरुष लड़कियों को सपोर्ट करें। उन्हें खुद साइकिल सिखाएं और चलाने के लिए प्रेरित करें। उनमें आत्मविश्वास जागृत करने का यह पहला पायदान हो सकता है। इसके विपरीत उनके मन में यह पैबस्त किया जाएगा कि साइकिल वगैरह चलाना लड़कियों का काम नहीं है। वे दिल में यही डर मिश्रित हिदायत लिए कॉलेज चली जाएंगी या फिर ससुराल। स्कूल वालों को भी शायद ही जिम्मेदारी का अहसास हो कि वे ही कुछ पहल करें।
...गांव की आत्मा निस्संदेह ही कष्ट पा रही होगी।

February 28, 2008

आया मौसम बजटियाने का...

ये उथल-पुथल भरे दिन हैं। कुछ उथले हैं, कुछ पुथले हैं। सर्दी की विदाई, गर्मी की आहट, बसंत की कविताई। काव्यमना लेखक कहते हैं, आए दिन अभिसार के, प्रियतम से मिलने के दिन हैं ये। लेकिन प्रियतमाओं के मन में ऐसा कोई उल्लास नहीं है। मिलन की ऐसी कोई उत्कंठा भी नहीं है। वे इस समय टकटकी बांध के देश के वित्तमंत्री की ओर निहार रही हैं। उन्हें यह शख्स छलिया लगता है। निगाहें कहीं पे, निशाना कहीं पे। क्या पता, कब नजरें टेढ़ी करे और क्या चाल चल दे। इसलिए मिलन की सारी जल्दबाजियां फिलहाल स्थगित हैं। बजट को लेकर अफवाहों से भरे दिन हैं। आम पब्लिक के कशमकश भरे दिन हैं। बासंती नहीं, गर्दिश के दिन हैं। क्या महंगा होगा? क्या सस्ता होगा? कौनसे नए कर करों की अन्तहीन फेहरिश्त की शोभा बढ़ाएंगे? क्या कोई छूट भी मिलने वाली है? वित्तमंत्री नामक शख्स के हाथों इस बार कौनसे शर छूटेंगे कि उम्मीदों के बिजूके धड़म-धड़म नीचे आ गिरेंगे?। ऐसे ढेर सारे सवालों की मण्डी में बेचैनी का आलम है। आम आदमी की भ्रमित आत्मा बेचैनी से चहल-कदमी कर रही है। अपने आप से ही बार-बार सवाल-अभी क्या खरीद लें? क्यों न खरीद लें? इस समय यह भारतीय मानसिकता काफी पसोपेश में है। उसकी नजरों में महंगाई का ग्लोब घूम रहा है। रगों में जैसे रक्त की जगह पेट्रोल-डीजल दौड़ने लगा है। तन-मन में रसोई गैस का आफरा उठ रहा है। एकाएक गैस्ट्रिक ट्रबल बढ़ने लगी है, जो धीरे-धीरे पूरे देश के पेटों में घुस खलबली मचा रही है। महंगाई जायके में खराशें घोल रही है। इन दिनों सारी आत्माओं में खलबली मच जाती है। आम आदमी अपनी आदत अनुसार दुबलाने लगता है, वहीं व्यापारी स्टॉक के बारे में सोचने लगते हैं। क्या रखना है, क्या जमाना है? सब तय है, क्योंकि इनके पिछवाड़े से निकला रास्ता सीधे सत्ता के गलियारों तक पहुंचता है। इसलिए बजट पूर्व की भनक तैरती हुई आती है और गंध सूंघ व्यापारी जमा-धमा का जुगाड़ा कर लेते हैं।खयालों में अचानक वित्तमंत्री उभरने लगे हैं। वही पारम्परिक वित्तमंत्री। मुस्काता हुआ। एक-एक मुस्कान में ढेरों रहस्य रेखाएं। हाथों में ब्रीफकेस। जिनमें बंद देश का भाग्य। ब्रीफकेस संसद की टेबल पर खुलेगा और इससे निकला जिन्न समूचे देश में हजारों-लाखों शरीरों में विभक्त होकर बिखर जाएगा। जनमानस साल भर कांव-कांव करता, अपने तन-मन का ग्रास बनते देखने को अभिशप्त है।

February 22, 2008

नौटंकी शैली की क्रिकेट में नाचेगी बसंती

अब आपको क्रिकेट के नाम पर वनडे कुर्बान नहीं करना पड़ेगा। बोझिल टेस्ट भी नहीं झेलनी पड़ेगी। क्रिकेट का नूडल्स संस्करण मौजूद है अर्थात फटाफट टी-२०। आपके लिए सहुलियत इतनी कि कुत्ता पालना आपकी मजबूरी हो सकती है, लेकिन टीम भावना या देश भावना पालने की हर्गिज जरूरत नहीं। सलाम कीजिए उन सर्जकों को, जिन्होंने यह नई शैली ईजात की है और आपके देश में अवतरित कर रहे हैं। इसे आप नौटंकी शैली की क्रिकेट भी कह सकते हैं। तमाशा भी कह लीजिए। एक एसा तमाशा जिसमें पूरी दुनिया के क्रिकेट बोर्डों की सहमति है। इसमें सारे ताम-झाम मौजूद होंगे। आपका दिल बहलाने के सारे इन्तजामात हाजिर। इसमें क्रिकेट भी होगा। छक्के भी होंगे, मजेदार बाद यह कि इसमें बसंती भी नाचेगी। क्यों नहीं नाचेगी। आपने पैसे फेंके हैं, नाचना उसका जितना कर्त्तव्य है, उतना ही आपका हक। आप हर गेंद पर छक्के की अपेक्षा कर सकते हैं। जब क्रिकेट में मजा नहीं आ रहा हो। छक्के नहीं लग रहे हों, तब आप नजरें हटाकर ठुमके का मजा ले सकते हैं। नीरस क्रिकेट में रस आ सकता है। विदेशी नृतकियां आपको आनंदित कर सकती हैं। ठेठ देशी नजारे भी मन बहला सकते हैं। इस क्रिकेट में जरूरी नहीं कि आप धोनी की तारीफ करें। युवराज से छक्कों की अपेक्षा रखें। उथप्पा से कहें कि चल उठा के मार। हार-जीत की कशमकश में दिमाग की नसों को तकलीफ दें। जैसी कि अब तक इस पीड़ा से दो-चार होते रहे है। आप पोंटिंग से भी रिक्वेस्ट कर सकते हैं। आफरीदी से भी उसी हक से कह सकते हैं, जितना गांगुली से। इंडिया में रहकर पाकिस्तान परस्ती का डर नहीं। यह भौगोलिक सीमाओं से परे का क्रिकेट है। तन-मन से परे विशुद्ध मनोरंजन का क्रिकेट है। दिलों से बाहर मन बहलाव का क्रिकेट है। संवेदन होने से शर्तिया मुक्ति का क्रिकेट है। इसे पिकनिक की तरह लें। यह मान सकते हैं कि आपको आज शाम को परिवार सहित किसी पिकनिक स्पॉट पर घूमने जाना है। बच्चों की जिद्द है। तब आप बीच रास्ते मूड बदलकर स्टेडियम में घुस सकते हैं। वहां सारी झांकियां एक जगह सजी मिलेंगी। या सर्कस समझकर घुस जाइए। वहां भांति-भांति के खिलाड़ी अपने करतबों से मनोरंजन करते नजर आएंगे। हो सकता है, वे आपको जमूरे नजर आएं, क्योंकि उनकी डोर उस बाजीगर के हाथ होगी, जिनके हाथ में उनके गले की रस्सी है। उसने मंडी से बोली लगाकर उन्हें खरीदा है। बाजीगर कहेगा, बोल जमूरे छक्के लगाएगा? हुजूर लगाएगा। बोल विकेट लेगा? लेगा हुजूर। बोल बोल्ड होकर दिखाएगा? दिखाएगा हुजूर, दस बार दिखाएगा। आप कहेंगे तो सब कुछ करेगा। कहिए, यह क्रिकेट हुई, कि तमाशा हुआ या नौटंकी हुई या फिर सर्कस?

February 20, 2008

आज बेटियों के ब्लॉग की चर्चा राजस्थान पत्रिका में

यह अच्छी और सुखद खबर है कि अब ब्लॉग्स की चर्चा मीडिया में भी हो रही है। हालिया दिनों में लगभग सभी अखबारों में इस पर कई दफा चर्चा हुई है और होनी भी चाहिए, क्योंकि ब्लॉग मीडिया के समानान्तर एक नई क्रान्ति सदृश नजर आ रहा है। आगे चलकर यह विधा सशक्त रूप अख्तियार करेगी, इसमें कोई संशय नहीं। इसी कड़ी में आज राजस्थान पत्रिका के परिवार सप्लीमेंट में बेटियों के ब्लॉग पर आर्टिकल छपा है। इससे पूर्व एक अखबार में ब्लॉग पर कॉलम शुरू हुआ है। इसका तात्पर्य यह कि मीडिया ने इस विधा को इसके जन्म के भोर में ही स्वीकार कर लिया है, यह और भी अच्छी बात है। आज राजस्थान पत्रिका में छपे आर्टिकल में बेटियों के ब्लॉग की चर्चा के साथ बताया गया है कि अभी इसके ग्यारह मेम्बर हैं और कहा गया है कि कोई भी इसमें लिख सकता है। वाकई, बेटियां होती ही हैं घर की क्यारी में खिले फूलों की तरह। बेटियां खुशबू हैं, जिनसे घर-आंगन महकता है। बेटियां अन्तर्मन में उल्लास की सृजना करती हैं। इसे हम पहचान रहे हैं। ब्लॉग के जरिए उन्हीं भावों को व्यक्त कर रहे हैं, जो हम महसूस तो करते हैं, लेकिन किसी से शेयर नहीं कर पाते। अब शेयर भी कर रहे हैं। एक-दूजे से खुशियां बांट रहे हैं। तमाम आपाधापी, चिन्ताएं, सृजनाओं की कशमकश के बीच कितना अच्छा लगता है कि जब नन्हीं कोंपलों के निर्दोष करतबों को बयां करते हैं। यह एक मंच है, साझा मंच। जहां कुछ भी तेरा-मेरा नहीं है। हैं तो सिर्फ अन्नत संभावनाओं से भरपूर बेटियां ही बेटियां। साधुवाद।

February 19, 2008

एक और चीरहरण...

जब अन्तर्मन में संवेदनाओं का आधिक्य होता है, तब आदमी का मिजाज काव्यमयी हो जाता है। मैं जब संवेदनाओं में डूबा तो कविता लिखने की ओर प्रवृत्त हुआ। ग्यारहवीं कक्षा से मन के भाव कविता के जरिए अभिव्यक्त करने लगा। प्रस्तुत कविता बी।ए. प्रथम वर्ष के दौरान लिखी थी। कैसी है, इस निर्णय का सर्वाधिकार आपके पास सुरक्षित है?
एक और चीरहरण...
चौराहे पर
कांप रही अबला
है तैयारी
एक और चीरहरण की।
खौल रहा
किसका खून
चुप हैं पांडव
आस नहीं
कृष्ण शरण की।
अबूझ पहेली सी
विषण्न मन
विस्फारित आंखें
कैसे उड़े
उन्मुक्त गगन
कतर दी पांखें
मौन सिला सी
प्रतीक्षारत्
ईश चरण की।
कोमलांगी
नर की
अतृप्त इच्छाओं का
मोल पाश्विक वृत्त
से बुभूक्षित आंखों में
रूप राशि
रहा वह तौल
बस, अभ्यस्त हाथों ने
निभा दी रस्म
.....अनावरण की।

February 18, 2008

इस विरह के भय ने डरा रखा है

पिछले तीन-चार दिन से न लिखने के ढेर सारे बहाने गिना रहा हूं और साथ ही लिखने के ढेर सारे कारण भी बता रहा हूं। मुझे भी लग रहा था कि अब बहुत हो चुका, लिखना चाहिए। लेकिन उससे पहले ही आज साथी अभिषेक के एक सवाल ने अन्दर तक झकझोर डाला। लगभग निरूत्तर ही कर दिया। उसका कहना था कि न लिखने की मंशा और लिखने की महज रस्मअदायगी क्यों? साफगोई से स्वीकार कर रहा हूं कि मेरे पास कोई उत्तर नहीं था।न लिखने का कारण बस इतना सा ही था कि एक तो मूड नहीं था, ऊपर से सप्ताह भर से कुछ अजीब किस्म का तनाव और तीसरा लिखने के लिए अनुकूल माहौल का नहीं होना। और फालतू की बातें सिर्फ इसलिए लिख रहा था कि ब्लॉगर्स बन्धुओं के बीच बने रहने की चेष्टा भर थी। नौसिखिया होने की वजह से चाहता हूं कि ब्लॉगर्स की सूची में रोज एक बार आ ही जाऊं। सूची में न दिखूं तो यह मुझे विरह वेदना सा अहसास कराता है। यह मन की कन्दरा में बैठा कोई डर ही था, जो बार-बार आशंकित मन को खींच ले जाता है। दिल से कहूं तो मेरी स्थति लगभग वैसी ही हो रही है जैसे विवाह के बाद का पहले विरह की कल्पना मात्र से उपजने वाली सिहरन। हालांकि जब लिखने के इरादे से इस मैदान में उतरे हैं तो लिखेंगे, और यह भी तय है कि खूब लिखेंगे। कुछ सार्थक लिखने की कोशिश भी करेंगे, फिलहाल तो उसी विरह से बचने की कवायद भर है। आशा है, सभी ब्लॉगर्स बन्धु मुझे माफ करेंगे।एक-दो दिन में लिखने के मूड का जुगाड़ कर लेंगे। अगल-बगल की परिस्थतियां तो यूं ही बनी रहनी हैं, क्योंकि इन से निपटने के लिए जो जरूरी योग्यताएं मौजूदा वक्त में होनी चाहिए, उनमें से अपने पास एक भी नहीं। निरे फिसड्डी ठहरे। काम करते हैं, और आशा करते हैं वक्त पर कोई मूल्यांकन कर लेगा। यदि न हो तो एकबारगी पीड़ा होना लाजिमी है, लेकिन किया भी क्या जाए? फिर उम्मीद की पतवार के सहारे.....।

February 17, 2008

ब्लॉगर्स जैसा भाईचारा, अपनत्व कहीं नहीं

यह बात माननी पड़ेगी कि ब्लॉगर्स जैसा भाईचारा, अपनत्व कहीं नहीं है। और इस लिहाज से मैं ब्लॉगर्स भाइयों का शुक्रगुजार भी हूं कि ब्लॉगिंग में सद्यजात होने के बावजूद मुझे काफी सपोर्ट मिला है। पहले पहले मैं इसे यूं ही हल्के-फुल्के अंदाज में लेता था, लेकिन जब से ब्लॉगिंग में हाथ आजमाने शुरू किए हैं और जैसी ब्लॉगर्स भाइयों की टिप्पणियां आ रही हैं, उससे काफी हौसला बढ़ता है। मन खिन्न हो तब भी भाइयों की हिम्मत देखकर लिखने को जी चाहता है। यह अच्छी बात है और उस स्थति में और भी अच्छी जबकि आपके आस-पास के माहौल से आपको खीज होती हो, आप इरिटेट होते हों, कई प्रकार की खराशें आपका मन खराब कर दें, तब ब्लॉगिंग के जरिए दिल की बात कहिए। ब्लॉगर्स साथी आपकी मदद को तत्पर मिलेंगे। इनका भाई सम्बोधन भी एसी स्थति में रामबाण औषधि से कम नहीं। सच सारा गुस्सा, सारी अशांति, सारी कड़वाहटें पल में काफूर हो जाती हैं। इसलिए मेरा जी सभी ब्लॉगर्स साथियों के प्रति श्रद्धा से भरा है। मैं इनका शुक्रगुजार हूं। आभार, सभी ब्लॉगर्स साथियों।

February 16, 2008

ब्लॉगिंग क्यों बन रही है अनिवार्य?

रोज-रोज ब्लॉगिंग करना सिरदर्द से कम नहीं है? आखिर ब्लॉगिंग क्यों इतनी अनिवार्य बन जाती है? एक तो यही कि जब आप लिखना शुरू कर देते हैं तो फिर आपको उपस्थिति दर्ज करानी ही पड़ती है। नहीं कराते हैं तो खालीपन का अहसास होता है। बेचैनी बढ़ती है और बढ़ते-बढ़ते उस बिन्दु तक पहुंच जाती है, जहां आकुलता का जन्म होता है। एसा आप नहीं चाहेंगे, लिहाजा कुछ भी लिखो, लिखना अनिवार्य मजबूरी है।मैं मेरे विषय में कह सकता हूं, जब से इस कीड़े द्वारा काटा गया हूं, कुछ न कुछ लिखने की अनिवार्यता के साथ उठता हूं। विषय सोचता हूं। कई जमते हैं। कई खारिज होते हैं। फिर विचारों की तारतम्यता बनाने की कोशिश करता हूं। इसी बीच कोई नया विषय दिमाग में कौंध जाता है। फिर उसमें सिर खपाने लगता हूं। फिर वही बेचैनी। यदि लिख भी लिया तो साथियों की टिप्पणियों का इन्तजार। टिप्पणियां नहीं आएं तो लगता है अपना लिखा हुआ सिरे से खारिज। यह भी कम परेशानी का विषय। अधिकांश ब्लॉगर्स साथियों की पोस्टें पढ़ते हैं। कुछ को देखकर ही छोड़ देते हैं। उनमें अधिकांश से ध्वनित होता है कि सभी सिर्फ मौजूदगी के लिए एक जंग लड़ रहे हैं। यह रोज की जंग है। जंग लड़ते रहो साथियो। शुभकामनाएं।

February 15, 2008

लिखने के ढेर सारे कारण और टिप्पणियों से दुरुस्त होना मूड का

कल मूड नहीं था, सो यूं ही लिख दिया था कि आज मूड नहीं लिखने का, और फिर आपके लिखने से भी क्या हो जाएगा? मैं सोच भी नहीं सकता कि एक छोटी सी स्वीकारोकि्त पर साथी ब्लॉगर इतना अपनत्व ऊंडेल देंगे। कई रोचक टिप्पणियां आईं। जो मूड उखड़ा हुआ था, टिप्पणियों से उसकी मरम्मत हो गई। दिल हल्का हो गया। यह मित्रों की सदाशयता ही है कि एक उखड़ा मूड उनके सीधे दिल से निकले चंद शब्दों से दुरुस्त हो सका। अनिता कुमार ने लिखा कि लिखते भी हैं और कहते हैं मूड नहीं भई वाह। पढ़कर अच्छा लगा। हरिमोहन जी की टिप्पणी और भी मजेदार रही। क्या आप दुनिया बदलने के लिए लिख रहे हैं? लगा-खराशें उनके मन में भी हैं। साथ ही एक अपील भी थी कि दुनिया बदले या न बदले, लिखना अवश्य चाहिए। सहकर्मी अभिषेक ने भी हौसला अफजाई में कसर बाकी नहीं रख। सुनिता जी ने मेरी बात से सहमति जताई कि लिखने के लिए मूड का होना आवश्यक है। और सबसे जो खास टिप्पणी रही वह उड़ तस्तरी जी कि आज नहीं तो कल लिख लेना, दिल छोटा नहीं करो। वाकई दिल बड़ा हो गया। यूं भी हर रोज, हर पल हमें कुछ न कुछ लिखने के लिए प्रेरित भी करता है और बाध्य भी। ...और फिर जब इतने सारे दोस्त मददगार हों, आपके पीछे खड़े हों संबल बनकर तो क्यों न की बोर्ड पर अंगुलियां चलाईं जाए। इसलिए आज मन कर रहा है कि क्यों न लिखा जाए। बेशक लिखा जाए, क्योंकि लिखने के लिए विषय भी है और सबसे बड़ी बात यह कि मूड भी है।

दुषित पानी से मौतें और एक मंत्री कहता है कि यह सृषि्ट का नियम है जो आया है, सो जाएगा?

राजस्थान की राजधानी जयपुर में पिछले कुछ माह से दूषित पानी से मौतों के समाचार आ रहे हैं। आरोप है कि जलदाय विभाग की पाइप लाइनें और सीवरेज लाइनों के मिल जाने से पानी दूषित हो रहा है। इस पर कल जिम्मेदार मंत्री का बयान आया कि यह प्रकृति का उसूल है कि जो आया है, सो जाएगा। यह एक मंत्री का बयान मात्र नहीं है। इस बयान के आईने में एक सत्ता का चरित्र साफ देखा जा सकता है। मिनरल वाटर पीकर एसे गैर जिम्मेदार बयान देने वाले मंत्री शायद यह भूल रहे हैं कि वे जिस आने-जाने के ब्रह्म वाक्य की बात कर रहे हैं, कल चुनाव में उन्हें और उनकी सरकार को उसी जनता के सामने जाकर रिरियाना है। वे ही सब्जबाग उन्हें फिर दिखाने हैं। साफ पानी के वादे भी उन्हें करने हैं। तब वही जनता भी उन्हें परिवर्तन का पाठ सिखा सकती है।इस समूचे परिदृश्य पर गौर करें तो इस हमाम में सभी की नंगई दिखेगी। मंत्री, अधिकारी, ठेकेदारों तक सबकी मिलीभगत का परिणाम है यह हादसा। आरोपों के बचाव में एसे बयान देने की बजाय पाइप लाइनें चैक की जाएं। गलती का सूत्र ढूंढा जाए। और यदि कोई आरोपी है तो उसकी पहचान की जाए तो न उनकी किरकिरी होगी और न उन्हें एसे बयान देने की नौबत जाएगी।

February 14, 2008

आपके लिखने से क्या हो जाएगा?

अजब समस्या है। शायद आपकी भी होगी। हर लिखने वाले की होगी। क्या लिखा जाए? उससे बड़ा सवाल यह कि क्यों लिखा जाए? आपके लिखने से क्या हो जाएगा? कौनसी परिवतॆन की लहर चल निकलेगी? लिखने से अधिक इस पर सोचना पड़ता है कि किस-किस पर लिखा जाए। किस पर न लिखा जाए। वैसे लिखने के लिए विषय भी कम नहीं। खबरों के समन्दर में रोज उगते हैं। रोज दफन होते हैं। लीजिए-महाराष्ट् में गुण्डा राज अभी तक कायम है। राज की गिरफ्तारी की रस्म अदायगी भले हो गई। लेकिन हिंसा पर कोई असर नहीं। बदस्तूर जारी है। इससे परे हटकर देखें तो सांसद पप्पू यादव को सजा हो गई। उस पर भड़ास निकाली जा सकती है। आज वैलेन्टाइन डे है और तथाकथित संस्कृति के पहरेदारों के डण्डे भी निरदोष प्रेमियों पर चल रहे होंगे। इस पर लिखा जा सकता है। लिखने के लिए इससे अच्छा विषय क्या हो सकता है। कई बार लठ और कलम चलाने वालों की मजबूरी कमोबेश एक जैसी होती है। उसी बाध्यता के चलते लिखा जा सकता है। और नजर फैलाइए। हर घटना आपको लिखने के लिए आमन्त्रण दे रही है। स्वीकार कीजिए। लेकिन लिखने के लिए जरूरी है एक अदद भले से मूड का। अब मूड बनना कोई आसान काम तो है नहीं। क्या पता कब उखड़ जाए? किस बात पर उखड़ जाए? क्यों उखड़ जाए? कुछ कहा नहीं जा सकता। जैसे आज मेरा उखड़ा हुआ है। बिलकुल मूड नहीं है लिखने का। इसलिए नहीं लिखूंगा। माफ करना।

February 13, 2008

...तो फिर यह मुम्बई आपको ही मुबारक?

गांधीगिरी के देश में ठाकरेगिरी का जिन्न फिर जाग गया है। चालीस साल पहले दफन यह भूत राजनीतिक महत्वाकांक्शाओं की कोख से एक बार फिर जबरन निकाला गया है। फिर खासकर गैर महाराष्टि्यन लोग निशाने पर हैं। लेकिन ठहरिए, इन पर बेरहमी से लठ चलाने से पहले तनिक सोचिए। अपना आत्मा को झकझोरिए। यदि ये लोग वाकई इतने अवांछित हैं, तो पहले बिड़लाओं को भी निकालिए। अम्बानियों को भी निकालिए। पीरामलों को भी निकालिए। सिंहानियों को भी निकालिए। उद्योगपतियों से लेकर हर एरे-गैरे को निकालिए, जो वोट के आपके सांचे में फिट नहीं बैठ रहे हैं। आपकी मुम्बई को सुन्दर बनाने में गैर मराराष्टि्यन लोगों का योगदान क्या बिलकुल नहीं है? आपकी मुम्बई को, राज की मुम्बई को, ठाकरे की मुम्बई को, पंवार की मुम्बई को सुन्दर बनाने में आपसे कहीं अधिक योगदान इन गैर करार दिए गए लोगों का है। बॉलीवुड को निकाल दीजिए मुम्बई से, फिर देखिए आपकी क्या पहचान है? बिना बॉलीवुड की मुम्बई की कल्पना भयावह स्वपन की तरह है, जो आपभी कतई नहीं देखना चाहेंगे। आज जितने ही सितारे हैं, फिल्म मेकर हैं, वे कहां से आए हैं? गिनती कीजिए- देश के कोने-कोने से चलकर पहुंचे इन लोगों ने महाराष्ट् को सही मायनों में महा राष्ट् बनाया है। आप इनके योगदान के बलबूते देश में सिर गवॆ से उठा कर दुनिया में थूक सकते हैं। पर इन लोगों पर मत थूकिए।देश के हर कोने से पहुंचा व्यकि्त जब सफल होकर अपने घर-गांव-कस्बे-शहर लौटता है तो उससे आपकी मुम्बई की भी शान बढ़ती है। लौटकर वह फिर मुम्बई-महाराष्ट् की तरक्की में योगदान देने लगता है। उसकी पीढ़ियां अपनी जड़ों को भूल जाएंगी, लेकिन वे महाराष्ट् को हमेशा सींचेंगे-संवारेंगे। लेकिन यदि वह जरा सा अपनी मातृ भूमि का ऋण चुकाना चाहता है तो इससे आपको कहां दिक्कत होनी चाहिए। उनसे आप भी मांगिए। हक से लीजिए। फिर वह कभी मना नहीं करेगा। बेशक आपको ये लोग नहीं चाहिए, लेकिन आपको चुनाव में चन्दा कौन देता है। क्या बाहर से आए ये उद्योगपति आपके चुनाव संचालन में मददगार नहीं बनते। एक अरब से अधिक की आबादी वाली मुम्बई का जन भार कौन ढोता है, यही बाहर से आए मेहनतकश लोग। आपके यहां जो भव्य अट्टालिकाएं खड़ी शोभा बन रही हैं, उन्होंने किसके पसीने ऊंचाइयां चढ़ी है, इन्हीं लोगों से न।माना आपको कुरसी चाहिए। आपकी मजबूरी है, लेकिन एसी भी क्या मजबूरी जो राष्ट् और संविधान की अखण्डता को ही तार-तार कर दे। आपका विकास का नारा बुलन्द कीजिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने लठ चलाइए। मुम्बई को अण्डरवल्डॆ से मुकि्त के लिए अभियान चलाइए। उसमें आपकी भी असल शोभा है। फिर भी आप इसी एजेण्डे के सहारे सत्ता सुख भोगना चाहते हैं, तो फिर एसी मुम्बई आपको ही मुबारक।

February 12, 2008

परदेसी, तू मरने के लिए यहां आया था क्या?

डेढ़ घंटे तक परदेसी का शव सड़क किनारे पड़ा रहा। लोग आते-जाते रहे। दो घंटे तक जाम भी लगा। लेकिन वाह रे भारतीय सिस्टम। एक अदद एम्बुलेंस नहीं पहुंच पाई। नसीब हुई भी तो हेल्पिंग-सरफिंग की एम्बुलेंस, जिसमें मृत-घायल पशु-पक्शियों को ले जाया जाता है। सिस्टम पर तो करारा तमाचा इतने भर से ही लग गया कि सिर से रिस रहे खून के बावजूद परदेसी की पत्नी ने स्वयं का इलाज कराने से इनकार कर दिया। यह है इक्कीसवीं सदी के महानगरीय प्रसव पीड़ा से छटपटाते शहरों की तस्वीर।बेल्जियम के माइकल को इंडिया आने से पहले यह अंदेशा नहीं था कि यह उसका आखिरी सफर होगा। अब उसकी पत्नी ओटिका अपने पति को खोकर अपने वतन लौट जाएगी, साथ सदा-सदा के लिए ले जाएगी कड़वाहट भरी यादें यहां की अव्यवस्थाओं की। यह जोड़ा दिल्ली भ्रमण के बाद वहां से इंडिका लेकर जयपुर भ्रमण पर आया था। वे आमेर महल का दीदार करने पहुंचे। सड़क पर इंडिका से उतरे ही थे कि पुलिस के वाहन ने टक्कर मार दी। माइकल की मौत तत्काल हुई या कुछ देर बाद, इससे भयावह सवाल यह था कि डेढ़ घंटे तक वहां एम्बुलेंस नहीं पहुंची। ओटिका डेढ़ घंटे तक असहाय-निरूपाय सड़क किनारे पति के शव के पास बैठी आते-जाते लोगों को ताकती रही। जीप से उसने शव ले जाने से इनकार कर दिया। फिर उसे एम्बुलेंस तो नसीब हुई, लेकिन वह भी जानवरों-पक्शियों को ले जाने वाली। अव्यवस्था से खिन्न ओटिका ने स्वयं की मरहम पट्टी करवाने से भी इनकार कर दिया। सवाई मानसिंह अस्पताल के मुरदाघर के बाहर खामोश बैठी ओटिका का मौन वहां पसरे सन्नाटे से कहीं भयावह था। आंखों का सूनापन कई प्रश्नों को जन्म दे रहा था। क्या इन खामोश प्रश्नों का कोई उत्तर दे सकता है? क्या यही शाइनिंग इंडिया, इनक्रेडिबल इंडिया है, जहां किसी घायल का जीवन बचाना तो बाद की बात, तत्काल अस्पताल ले जाने की व्यवस्था तक नहीं हो सकती। क्या हम किसी का भरोसा जीतने के काबिल बन सकते हैं। हम पयॆटकों का आह्वान करते हैं, विदेशी मुद्रा से अपने कोष भरने की कामना रखते हैं, लेकिन जब विदेशी यहां पहुंचते हैं तो उनका इस्तकबाल किस तरह होता है, यह किसी से छुपा नहीं है। परदेसी दिखते ही हर किसी के मन में यही खयाल आता है कि इसे किस तरह लूटा जाए। लपकों से लेकर दुकानदार, वाहन चालक या हर कोई एरा-गैरा। सब इसी फिराक में रहते हैं। अब इंडिया के भिखारी तक अच्छी तरह जान चुके हैं कि कहीं टूरिस्ट दिखाई दे जाए, तो इस कदर पीछा करें कि डॉलर-पाउण्ड उनकी झोली में डाल जाए।वे जहां-जहां जाते हैं हर समय कोई न कोई उनके पीछे लगा रहता है। रोकने वाला कोई नहीं। न पयॆटन पुलिस, न अन्य कोई व्यवस्था। एसे में पयॆटक स्वयं को इन अवांछित परेशानियों से बचाये या पयॆटन स्थलों का लुत्फ उठाए। यहां से जाकर जब परदेसी इंडिया को गालियां बकते हैं तो हमारे पेट में एंठन नहीं होनी चाहिए। यदि होती है तो पहले उनकी हिफाजत करने के इंतजामात करने चाहिए और उनका नारों से ऊपर उठ स्वागत-सत्कार भी उसी ढंग से होना चाहिए। आखिर हमारी अथॆव्यवस्था में इनका योगदान भी तो कम नहीं।

February 11, 2008

बाबा आम्टे को भारत रत्न क्यों दिया जाए?

भारत रत्न डिमांड की मार्केटिंग काफी हो चुकी। अगले पचास-साठ साल तक के दावेदार सामने आ चुके हैं। चलो, ढेर सारी समस्याओं वाले देश में एक टेंशन तो खत्म हुई। अब बाकी फील्ड में निस्संकोच काम किया जा सकता है। इस बीच सवाल यह नहीं उठना चाहिए कि बाबा आम्टे को भारत रत्न क्यों नहीं दिया गया? बेशमॆ सवाल यह होना चाहिए कि बाबा को भारत रत्न क्यों दिया जाए? उनसे एसा हुआ क्या है कि एक भारत रत्न खराब किया जाए। आप खुद तुलना कीजिए, कुछ कद्दावरों से, बाबा इस सूची में कहीं नहीं ठहरेंगे। एक लंगोटी वाला आखिर ठहर भी कैसे सकता है?भारत रत्न तो सचिन तेंदुलकर को मिलना चाहिए। जिन्होंने अनाज के भूखे देश की खाली झोली हजारों रनों से भर दी। क्रिकेट के बलबूते चार सौ करोड़ की सम्पत्ति बनाई है। देश की अथॆव्यवस्था में यह योगदान कम नहीं है। गली-गली तक क्रिकेट क्रांति इनसे ही हुई है और आज हर मां-बाप का बच्चा सचिन बनना चाहता है। इनको न मिले तो भारत रत्न रतन टाटा को मिलना चाहिए। जिनकी बदौलत निम्न वगॆ का कार का सपना पूरा होगा। देश में भले ही ढंग से सड़कें न बन पाई हों, लेकिन हर घर में कार तो आ ही जाएगी। अमिताभ बच्चन को लगातार खबरों में बने रहने के लिए दिया जा सकता है। एसी खबरों से देश का ध्यान दूसरी समस्याओं से हटता है। यूं तो शरद पंवार किससे कम हैं। राजनेता होकर क्रिकेट में उनका अनुपम योगदान भुलाया नहीं जा सकता। देश कृषि के मामले में निरन्तर प्रगति करे या नहीं क्रिकेट में तो कर ही रहा है। टीम जीत भी रही है। इसलिए पंवार साहब का दावा तो बनता है और मजबूती से बनता है। यही क्या कम है?भारत रत्न स्व. चौधरी चरण सिंह को क्यों नहीं मिलना चाहिए, जिन्होंने देश को दल-बदल की परम्परा दी। यदि यह परम्परा नहीं होती, तो आज की सरकारें कैसे चल रही होती। जगजीवनराम को उनके प्रधानमंत्री बनने के गम्भीर प्रयासों के लिए दिया जा सकता है। मुलायम सिंह भी बाबा आम्टे से कहीं प्रबल दावेदार हैं, जो आज निराले किस्म का समाजवाद(धनवाद) देश में खिलाने के प्रयत्नों में जुटे हैं। कॉमरेड ज्योति बसु भी सॉलिड उम्मीदवार हो सकते हैं। वैसे हर कॉमरेड नेता को इसलिए ही दिया जा सकता है कि उन्होंने पानी में रहकर मगर से बैर करने की परिभाषा गढ़ी है। यानी समथॆन दे भी दिया और नहीं भी दिया। देखा, कैसा जादुई समथॆन है और जादू से बनी सरकार है। फिर क्यों न एक भारत रत्न हो जाए इस बात पर।बाला साहब ठाकरे को देश भक्त होने के नाते दिया जा सकता है। वैसे एश्वयाॆ को देश में ब्यूटी पौधा खिलाने के लिए क्यों न दिया जाए। आज अधिकांश तरुणियों ब्यूटी मंच पर भारत का नाम रोशन करने के लिए घोर तैयारियों में जुटी हैं। लिस्ट काफी लम्बी हो रही है। कुछ आप भी तो सोचें?...आखिरी सवाल?बात फिर बाबा आम्टे पर पहुंच गई। उनका देश में योगदान कितना है। महाराष्ट के एक कोने में खोल लिया आश्रम, ठूंस लिए कुष्ठ रोगी। बताइए यह भी कोई देश के लिए योगदान हुआ? फिर क्यों सचिन, अमिताभों, मुलायमों, मायावतियों, टाटाओं, बिड़लाओं, अम्बानियों की सूची में आम्टे का नाम शामिल किया जा सकता है।

February 10, 2008

बाबा आमटे कोई अमिताभ बच्चन है क्या?

बाबा आमटे कोई अमिताभ बच्चन है क्या? आमटे कौन है? कोई अमिताभ बच्चन है क्या? जो कभी उद्योगपतियों से दोस्ती को लेकर, कभी सबसे ज्यादा जुमॆ वाले प्रदेश में जुमॆ सबसे कम कह कर समाजवादी दल की पैरवी को लेकर तो कभी तथाकथित किसान होने को लेकर चैनल्स और अखबारों की सुखिॆयों में रहने का सुख भोगता है? कभी जेल के अन्दर, कभी बाहर होता संजय दत्त, सलमान खान हैं क्या? एक बीबी को छोड़, विदेशी से इश्क फरमा, और अब तीसरी अदाकारा के संग इश्कियाता सैफ अली खान है क्या? नशीली सामग्री के साथ पकड़ा गया सितारा भी नहीं है। किसी सेलिब्रिटी का प्रेम किस्सा भी तो नहीं है। और न ही किसी हस्ती का विवाह प्रकरण? किसी राजनेता का बिगड़ैल शहजादा भी नहीं है। उद्योगपति का अन्धा पुत्र भी नहीं है, जो फुटपाथ पर सोये गरीब-गुरबा लोगों पर गाड़ी चढ़ा दे। बदला लेने को आतुर नागिन की प्रेम कथा भी नहीं है। हद से हद यह कि कोई साधुनुमा इन्सान ही तो था, तन पर साधारण कपड़े पहनता था। आश्रम में रहता था और दीन-दुखियों की सेवा में लगा हुआ था। जिन कुष्ट रोगियों से घृणा का फैशन हमें अव्वल वगॆ में शुमार कर देता है, वह उन्हीं भूले-बिसराये, सड़े-गले लोगों को गले से लगाए सेवा-सुश्रूषा में लगा हुआ था। और ज्यादा से ज्यादा यह कह सकते हैं कि आखिरी गांधीवादी था। फिर क्योंकर नेशनल न्यूज बनता भाई। उसको विस्तार देने से किस चैनल की टीआरपी बढ़ने वाली थी। किसके एड्स में इजाफा होने वाला था? कैसा आदमी था, न अखबारों को पसंद, न चैनों को। भारत रत्न के काबिल भी नहीं था। वरना कभी का दे दिया गया होता? उसके पीछे किसका वोट बैंक था, जिसको भारत रत्न देने से दलों के वोट बैंक में इजाफा होता। यह सब नहीं था, फिर हम अखबारों के पहले पन्ने पर क्योंकर उसे चार कॉलम छापते। सिंगल कॉलम भी अहसान की गरज से छाप दिया।खामख्वाह यह आदमी इत्ते साल दुबलाता रहा सेवा में। इससे अच्छी तो धोनी की जुल्फें ही हैं, जिनके मुशरॆफ तक मुरीद हैं। आईपीएल ज्यादा बड़ी है कहीं। खबरों के पैमाने के अनुसार। विराटता में भले ही पंगू ही हो। विराटता किसने देखी है। विराटता ही होती तो नाग-नागिन की प्रेम कथा में कहां की विराटता है?मुझे अफसोस है बाबा आमटे तू अमिताभ क्यों नहीं था?

February 09, 2008

मुरदा संवेदनाओं का सबब गुरदा काण्ड

जिन्दगी में गर कोई दुआ मांगने के लिए कहा जाए, तो मैं यही मांगूंगा कि काश एसा हो जाए कि कभी डॉक्टरों के पास न जाना पड़े। लेकिन यह खरा सच यह है कि न हम डॉक्टरों के पास जाने से बच पाते हैं और न एसी कोई दुआ मांगने के काबिल। जब-जब डॉक्टरों के पास जाना होता है, एक अजीब किस्म का डिप्रेशन दिमाग में हावी होने लगता है। लगता है, एक और नई बीमारी पैदा हो गई। यह अनायास उपजी बीमारी नहीं है। यह कुछ करतूतों से ही उपजी आशंका है। कुछ डॉक्टरों में भगवान के रूप में शैतान का घर होता है, जिसका उद्देश्य येन-केन-प्रकरेण पैसा कूटना होता है। यह मैं यूं ही हवा में नहीं कह रहा हूं। चौबीस कैरेट सच हमारे सामने है।
गुरदा डीलर पकड़ा गया और जितनी किडनी निकालना कबूला है, उसे सुनकर एकबारगी विश्वास उठ सकता है चिकित्सकीय पेशे से। लेकिन पूरी तरह एसा भी नहीं हो सकता। कुछ डॉक्टर आज भी अपने पेशे के प्रति निहायत ही ईमानदार हैं और एसे डॉक्टर मेरे परिचित भी हैं, जिनके बारे में मैं दावे से कह सकता हूं कि कम से कम वे न तो ऑपरेशन करते समय मरीज के पेट में औजार छोड़ेंगे और न ही मरीज को ऑपरेशन टेबल पर लिटा कर लूटने का उपक्रम करते होंगे।मेरे एक रिश्तेदार ने कल आपबीती सुनाई। यह महज एक घटना है और रोज न जाने किस कोने में, कहां-कहां एसी घटनाएं अंजाम को प्राप्त होती होंगी। दरअसल वे पिछली साल राजस्थान के चूरू जिले में थे, जब उन्हें सीने में कुछ ददॆ महसूस हुआ। वे झुझुनूं आने वाली बस में बैठ चुके थे।(दोनों की दूरू ५२ किलोमीटर है)। रास्ते में ददॆ असहनीय हो उठा। सांस धोंकनी सी चलने लगी। झुझुनूं पहुंचते-पहुंचते सांसे पूरी तरह उखड़ने लगी। उन्हें लगा, शायद डॉक्टर तक भी मुशि्कल पहुंच पाएं। वे बस स्टैण्ड के पास ही एक डॉक्टर जिसको वे दिखाते रहे हैं, के पास पहुंचे। भले डॉक्टर ने उनकी हालत देख तत्काल एक्सरे किया। एक्सरे देख वे दंग रह गए। बकौल रिश्तेदार, फेफड़ा फट गया। डॉक्टर ने उन्हें तुरन्त दूसरे डॉक्टर के पास भेज दिया, यह कहते हुए कि अभी ऑपरेशन करना होगा। उस डॉक्टर के पास गए तो उसने उनकी मरणासन्न हालत को नजरअंदाज करते हुए कुछ दवाएं लिख दी और फीस के पैसे वसूल लिए। वे तत्काल पहले वाले डॉक्टर के पास गए और सारी समस्या बताई। यह भी डॉक्टर ही था, जो मरीज की जान बचाने को चिंतित था। उसने गुस्से में साफ कहा कि वह डॉक्टर कुछ पैसे लेना चाहता था, उसके बाद ही ऑपरेशन करता। (हालांकि भुगतभोगी जानते हैं, सरकारी अस्पतालों में यह कोई नई बात नहीं रह गई है।) उन्होंने फिर एक डॉक्टर के पास भेजा और उसे फोन कर समस्या से अवगत कराया। रिश्तेदार मरीज की किस्मत अच्छी थी और उस डॉक्टर ने जाते ही ऑपरेशन कर दिया और उनकी जान बच गई।
वे रिश्तेदार सीने में थोड़ी प्रॉब्लम लेकर कल ही इस आस में मेरे पास आए थे कि मैं जयपुर में उन्हें किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाऊं।यह एक उदाहरण है। गौर करेंगे तो लाखों प्रकरण हैं इदॆ-गिदॆ। यहां अच्छे डॉक्टर भी हैं। और जितने अच्छे डॉक्टर हैं उनसे बुरे भी यहीं मौजूद हैं। उद्दाम लालसाओं ने उन्हें शैतान बना डाला है। तभी तो गुरदा काण्ड जैसे हादसे समाज, सभ्यता, कानून सबके चेहरे पर कालिख पोतते रहते हैं।

February 08, 2008

नपुंसक इरादों की शिकार एक बेबस लड़की

रात को देर तक उधेड़बुन चलती रही। मन में खराशें उग आईं। दरअसल वह एक किस्सा था, जो पत्नी ने सुनाया था। सुनकर लगा, एक औरत की बेबसी की शायद इससे ज्यादा पराकाष्ठा क्या होगी? पत्नी के ऑफिस में उनकी एक सहयोगी आज बता रहीं थीं कि उनके मामाजी अपनी लड़की की शादी में कैसे लुटे-पिटे-ठगे गए। उन्होंने अपनी लड़की की शादी एक कथित इंस्पेक्टर से की। धूमधाम से लड़की को विदा किया। हैसियत से ज्यादा खचॆ भी। शादी के तीन माह तक ससुराल वालों ने लड़की को पीहर नहीं भेजा। पीहर वालों के बार-बार कहने के बावजूद किसी तरह टालते रहे। पीहर वालों को खटका हुआ। वे जस-तस दो दिन के लिए लड़की को पीहर ले आए। वे यह देखकर दंग रह गए कि तीन माह में अच्छी-भली हष्ट-पुष्ट लड़की कैसे दुबली हो गई। चेहरे की सारी लालिमा जाती रही। आंखें धंसने लगीं। पूछने पर मौन साध लिया। काफी कुरेदने पर लड़की फट पड़ी। रुलाई न रुकी। आंसुओं में गुबार बह निकला। उसने जो बताया, उससे मां के पैरों तले की जमीन खिसक गई। उसे यकीन नहीं हो पा रहा था कि क्या छल इस रूप में भी हो सकता है? लड़की ने जो हकीकत बताई, उसे सुनकर मां के कानों में जैसे पिघला शीशा उंडेल दिया। शादी के बाद पहली ही रात को जिस सुहाग सेज पर वह सिमटी-सिकुड़ी-लजाई सी पति आगमन के इन्तजार के साथ भविष्य के सुखद सपने बुन रही थी, उसे नहीं पता था कि ये सपने तार-तार होने वाले हैं। आहट सुनकर वह चौंकी, लेकिन पति को न पाकर उसे थोड़ा आश्चयॆ हुआ। वहां उसकी ननद थी। उसे तब और भी धक्का सा लगा, जब ननद ही उसके पास सो गई। सोचा, शायद एसा ही रिवाज होगा। लेकिन यह क्या? दूसरे दिन भी एसा ही हुआ। फिर तो तीसरे, चौथे, पांचवें दिन...अन्तहीन सिलसिला। वह रात कभी नहीं आई। इस बीच वह जितना सोचती, उतने ही प्रश्न खड़े हो जाते। वह पति के जितना पास जाने की कोशिश करती, वह उतना ही दूर होने का यत्न करता। वह कुछ कुंठित सा हो चला। और इस कुंठा में उसने बिना वजह ही उस पर हाथ उठा दिया। एक बार हाथ उठाया, तो उठता ही चला गया। और एक रूटीन में बदल गया। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह सब हो क्या रहा है? इस बीच यह भी पता लग गया कि उसका पति इन्स्पेक्ट नहीं है। उसने पूछा तो बदले में मिली मार, इन शब्दों के साथ कि मैं तो मेरे मन का इन्स्पेक्टर हूं। बोलो, क्या कर लोगी? अनिश्चय में घिरी लड़की अपने पीहर वालों से भी कुछ नहीं कह पाई। कभी-कभी उसका ससुर बड़ी बेहयाई से उसके नजदीक आने की कोशिश करता। खींसे निपोर कर कहता, कोई कमी तो नहीं? कुछ चाहिए तो बोलो? (यहां उसने कुछ एसी पेशकश भी की, जिसको मैं यहां लिखना ठीक नहीं मानता।)...और एक दिन वह मनहूस रात...। उसकी ननद अचानक उठकर कमरे से बाहर चली गई। थोड़ी देर बाद बाहर कुछ आहट हुई। उसने उठकर देखा, बाहर उसका ससुर खड़ा था। स्याह रात में उसके चेहरे पर डरावनी हंसी तैर रही थी और उसके चमकते दांत रात को और भयानक बना रहे थे। उसे समझते देर नहीं लगी, उसने फटाक कमरा बंद कर लिया। उसके दो दिन बाद ही उसे किसी तरह पीहर वाले लिवा लाए।सच बहुत डरावना था। वह लड़का नपुंसक था और उसकी एक शादी पहले भी हो चुकी थी। वह लड़की भी अपने भाग्य को कोसती, रोती छोड़कर चली गई थी। दुबारा शादी करने का मकसद यह था कि किसी तरह ससुर पति का स्थान हथिया लेगा और लड़की अपनी इज्जत की खातिर सब-कुछ सहती रहेगी। ...और उन्हें खान-दान का वारिश मिल जाएगा।इस देश, समाज में बहुत सी लड़कियां इस अभागी लड़कियों की तरह ठगी-छली जाती हैं। कुछ चुपचाप जिन्दगी भर सह लेती हैं, कुछ हिम्मत कर कह देती हैं।

February 07, 2008

मुझे यकीं नहीं अभी तक

ब्लॉग को लेकर कई दिनों से मेरी माथापच्ची जारी है। तकनीकी नासमझी की वजह से अभी तक ब्लॉग गाड़ी पटरी पर नहीं आ पाई है। कभी टेम्पलेट में गड़बड़ तो कभी ढंग से पोस्ट नहीं हो पा रही। एक दिन मित्र अभिषेक ने टेसि्टंग के लिए साभार जताते हुए अरविन्द भाई की गजल चिपकाई। लेकिन साभार किसका, अरविन्द भाई का नाम लिखना तो भूल ही गए। मेरे ब्लॉग में अरविन्द भाई का कमेंट आया तब पता चला कि भूल हुई। भूल के साथ मुझे थोड़ा सुखद आश्चयॆ हुआ कि अरविन्दजी ने ब्लॉग कहां देख लिया, जबकि वह तो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा। फिर आज कुवैत में जीतूजी से ऑनलाइन बातचीत हुई। उन्होंने बताया कि नारद और चिट्ठा पर आपका ब्लॉग दिखाई दे रहा है। तब जाकर आस बंधी है कि अब शायद सब कुछ ठीक हो जाएगा। आखिर इन्तजार के भी तो कोई मायने हैं।

February 01, 2008

मुझे काट लिया ब्लॉग के कीड़े ने

ब्लॉगिंग करना कोई बच्चों का खेल नहीं है। दो महीने तक माथापच्ची करने के बाद यह मुझे अच्छी तरह समझ में आ गया है। मैं एसे दोराहे पर खड़ा हूं, जहां से या वापस लौट आऊं या फिर घुस जाऊं। और जितना घुसने की कोशिश कर रहा हूं, उतना ही धंसता जा रहा हूं। तीन दिन पहले मित्र अभिषेक की मदद से ब्लॉग बनाया और उसमें भी तकनीकी लोचा आ गया। वह एग्रीगेटर पर दिखाई ही नहीं दे रहा। इन तीन दिनों में मेरी मनःस्थिति का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। दो रातों से भरपूस सो नहीं पाया। आंख बंद करता हूं तो आंखों में ब्लॉग तैरने लगता है। आखिर कब दिखाई देगा मेरा ब्लॉग? कब दिल की बात आप साथियों तक पहुंचा पाऊंगा। ढंग से सो नहीं पाने की वजह से आंखें भी सूज गईं। मेरी सुबह दोपहर को हुई। पत्नी बार-बार पूछ रही हैं कि यह किस चिन्ता में खोए हुए हो? आपका चैन कहां चला गया है। मैं उन्हें क्या बताता कि आजकल मुझे ब्लॉगिंग के तकनीकी कीड़े ने काट लिया है। खैर, किसी तरह सीधी-सादी भाषा में समझाया कि मैं इन्टरनेट पर कुछ लिखने वाला हूं। फिर उसे सब पढ़ेंगे। यह सुनकर बेचारी खुश हो गई। आज फोन कर के पूछा कि आपका वो बन गया क्या जो आप बनाने वाले थे। मैंने उन्हें कहा कि प्रयास जारी हैं, इंजीनियर अभिषेक ठोक-पीट रहे हैं। आज उम्मीद है, शायद शुरू हो जाएगा। मैं इस उम्मीद में यह लिख रहा हूं कि आज संभवतः मेरी मनःस्थिति को आप से शेयर कर सकूंगा।

January 30, 2008

ब्लॉग किस चिड़िया का नाम है

जब पहली बार साथी अभिषेक को कम्प्यूटर में आंखे गड़ाए, अजीब-अजीब से चिट्ठे पढ़ते देखा तो कुछ जिग्यासा हुई। शुरू-शुरू में ज्यादा रुचि नहीं ली। लेकिन उसकी दीवानगी बढ़ती ही जा रही थी। हमसे भी रहा नहीं गया। फिर कुरेदा, तो पता चला यह ब्लॉग नामक जंजाल है। फिर मन में सवाल उठा आखिर यह किस चिड़िया का नाम है। यह होना भी था, क्योंकि तकनीकी समझ में तो बिलकुल जीरो हैं। अभिषेक ने मागॆदशॆन किया कि यह अपनी बात कहने का मंच है। यहां कोई भी स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है बिना किसी लाग-लपेट के। यानी दिल की बातें कह सकता है। कुछ कही, कुछ अनकही साझा कर सकता है। लेकिन तकनीकी कमजोरी आड़े आ गई। काफी दिन उसमें घुसने की कोशिश करते रहे। पता नहीं, कहां से कहां पहुंच जाते। लेकिन जितना धंसते, उतना डूबते चले जाते। जिग्यासा चरम पर पहुंची। मन में अकुलाहट बढ़ती गई। हो न हो, ब्लॉग अपना भी होना चाहिए। अपन भी दिल की भड़ास निकाल लिया करेंगे। सो, इस तरह शुरूआत हुई ब्लॉग की। और आप जैसे ब्लॉग बन्धुओं से मागॆदशॆन मिलता ही रहेगा।