अगर आपसे पूछा जाए कि वह क्या है, जो सर्दी, गर्मी, वर्षा किसी भी प्रतिकूल मौसम में किसी भी सूरत में नहीं रुकता...? तो मौजूं वक्त के हिसाब से हो सकता है कुछ लोग रेडियो पर आने वाले मोदी के संबोधन से लेकर विदेश दौरे, अच्छे दिन गिनाएं या अपने-अपने नजरिए से कुछ भी गढऩे लगें, लेकिन मेरी नजर में वह एक शिक्षक हैं, जिन्हें लोग शशि पालीवाल जी के नाम से जानते हैं। वे प्रतिदिन जयपुर से 50 किमी का सफर तय कर स्कूल पहुंचते हैं।
स्कूल जयपुर-लालसोट रोड (जिला दौसा) पर एक आदिवासी बहुल गांव में है, जिसके पास अपने कोई संसाधन नहीं, पर्याप्त बिल्डिंग नहीं, खेल मैदान नहीं, शौचालय नहीं, सबसे जरूरी पढ़ाई का माहौल नहीं...शक्लोसूरत ही नहीं, 'कैरेक्टर' से भी पूरा प्राइमरी स्कूल और गत वर्ष चुनावी चकल्लस में जिसकी मांग में सैकंडरी का सिंदूर भर दिया गया। अब जबरन क्रमोन्नति के भरे गए इस सिंदूर का दर्द कोई सरकार क्या जाने?
खैर, कुल पांच कमरों और दस क्लास वाली स्कूल में मेरी पत्नी को हैडमास्टर लगाया गया। वे साल भर से उसे एक स्तर तक लाने के लिए जूझ रही हैं। 'स्कूल की दशा सुधार कर रहेंगे' का बड़ा अरमान और जोशीला संकल्प लेकर हमने जयपुर रहने के मोह का परित्याग किया और बोरिया बिस्तर उठा गांव में ही रहने चले आए। यहां आकर पता चला कि स्कूलों को सुधारना कोई 'बिग बॉस' के घर का टास्क नहीं, शेरों के खुले पिंजरे में कूद जाने से कम नहीं।
इससे हमें यह फायदा जरूर हुआ कि हम तय समय पर स्कूल पहुंचकर अन्य शिक्षकों पर नैतिक दबाव बनाने की स्थिति में आ गए। हालांकि नैतिक दबाव जैसी किसी काल्पनिक चीज में भरोसा करने वाले यह जानकर बेहोश हो सकते हैं कि नित्यप्रति की लेटलतीफी, बहानों की अंतहीन शृंखला, जल्दी जाने की धुन, क्लास तक न जाने की जहमत, छुट्टी मारकर साइन करने के लिए बच्चों की तरह रूठना-मनना और बच्चों का भविष्य नेस्तनाबूद करने की जिद हो, वहां मरी आत्माओं में ठोकरों से भी कोई हलचल नहीं होती, नैतिक दबाव तो दूर की बात है! ऐसे माहौल में भी शशि पालीवाल जी बिला नागा तय समय पर स्कूल पहुंचते हैं। चार अन्य शिक्षक भी जयपुर से तशरीफ लाते हैं, लेकिन उनके लिए सर्दी, गर्मी, वर्षा का होना लेट हो जाने का एक खूबसूरत बहाना भर है, जबकि पालीवाल जी के लिए एक चुनौती और इसमें हर दिन कामयाब होते हैं वे। लेटलतीफों के बहाने भी ऐसे कि रोज सुनने वाला शर्म से डूब जाए, जैसे, बस निकल गई, रद्द हो गई, फाटक बंद था, टायर पंक्चर हो गया, आज तो बाल-बाल बचे, बच्चा बीमार हो गया, ऐनवक्त मेहमान आ गए, बिल्ली रास्ता काट गई, आज तीए की बैठक में जाना है, रजिस्ट्री करवानी है, आज पूजा रखी है, गरुड़ पुराण का पाठ है, कन्याओं को जिमाना है, दान-पुण्य करने जाना है, सास को मंदिर लेकर जाना है, बच्चे का बर्थ डे है, मैरिज एनिवर्सरी है, वगैरह-वगैरह!
इनके बहाने सुनता हूं, तो शशि पालीवाल जी पर मुझे कभी-कभी शक होने लगता है कि इन्हें इंसान क्यों माना जाए? इंसानों के पास तो बहाने होते हैं, झूठ के पुलिंदे होते हैं, संवेदनहीनता होती हैं, अव्वल दर्जे की काहिली होती है, बच्चों का भविष्य बर्बाद करने की जिद होती है, शिक्षा का बेड़ा गर्क करने की नीयत होती है, जबकि पालीवाल जी किसी दूसरे ग्रह के एलियन्स की तरह अपनी धुन में समय पर पहुंचते हैं, जिनके न परिवार, न बच्चे, न कोई काम, बस मस्ती में झूमते हुए, शान से गर्दन उठाए आते दिखते हैं। यही नहीं, दिन भर स्कूल में प्रत्येक कार्य पूरी तन्मयता से निपटाते हैं। प्रार्थना से लेकर अध्यापन, डाक या इतर कार्य, पूरे समय वे तल्लीनता से लगे रहते हैं! क्लास खाली दिखी नहीं कि दन से पहुंच जाते हैं। शिक्षक कम हों, तो दो-तीन कक्षाओं को एक साथ बिठा व्यवस्था बना लेते हैं। दूसरों के दायित्वों को भी खुशी से अपने सिर ओढ़ लेने का दूसरा नाम है शशि पालीवाल जी। तिस पर न कोई खीज, न झुंझलाहट, न थकान, न किसी से शिकायत। शाम को भी वे मुझे उसी चमक और ऊर्जा के साथ मिलते हैं। मेरी यह जानने में रुचि रहती है कि उनकी इस सक्रियता और कार्यकुशलता का बाकी स्टाफ पर क्या असर पड़ता है। यह जानकर ताज्जुब होता है कि लोग उनसे प्रेरित होने की बजाय उलटा उनका मजाक बनाने में ज्यादा एनर्जी लगाते हैं। वे इससे भी विचलित नहीं होते। हैरत नहीं, आज ईमानदार, कर्मठ, कार्य कुशल लोग मजाक के पात्र ही समझे जाते हैं। जाहिल और भ्रष्टों के दौर में और क्या उम्मीद करें?
मैं उनसे अक्सर पूछता हूं, आप यह सब कैसे कर लेते हैं, तो प्रत्युत्तर में उनका जवाब कम, मुस्कान ज्यादा होती है। मैं समझ जाता हूं, जिनके पास बांटने को मुस्कान हो, उनके काम बोलेंगे और जिनके काम बोलते हैं उनके पास क्यों नहीं मुस्कानों का जखीरा होगा?
ऐसे माहौल में जब शिक्षक कौम (बड़ी संख्या) बच्चों के भविष्य के साथ रोज बलात्कार करती है, पालीवाल जी जैसे शिक्षक प्रशंसित, पुरस्कृत और अभिनंदित किए जाने चाहिए। सरकारों पर यकीन नहीं, क्योंकि वहां के प्रतिमान भी उनके ढर्रे जैसे हैं, लेकिन मैं उनका तहेदिल से शक्रिया अदा करना चाहता हूं।
सलाम पालीवाल सर!
स्कूल जयपुर-लालसोट रोड (जिला दौसा) पर एक आदिवासी बहुल गांव में है, जिसके पास अपने कोई संसाधन नहीं, पर्याप्त बिल्डिंग नहीं, खेल मैदान नहीं, शौचालय नहीं, सबसे जरूरी पढ़ाई का माहौल नहीं...शक्लोसूरत ही नहीं, 'कैरेक्टर' से भी पूरा प्राइमरी स्कूल और गत वर्ष चुनावी चकल्लस में जिसकी मांग में सैकंडरी का सिंदूर भर दिया गया। अब जबरन क्रमोन्नति के भरे गए इस सिंदूर का दर्द कोई सरकार क्या जाने?
खैर, कुल पांच कमरों और दस क्लास वाली स्कूल में मेरी पत्नी को हैडमास्टर लगाया गया। वे साल भर से उसे एक स्तर तक लाने के लिए जूझ रही हैं। 'स्कूल की दशा सुधार कर रहेंगे' का बड़ा अरमान और जोशीला संकल्प लेकर हमने जयपुर रहने के मोह का परित्याग किया और बोरिया बिस्तर उठा गांव में ही रहने चले आए। यहां आकर पता चला कि स्कूलों को सुधारना कोई 'बिग बॉस' के घर का टास्क नहीं, शेरों के खुले पिंजरे में कूद जाने से कम नहीं।
इससे हमें यह फायदा जरूर हुआ कि हम तय समय पर स्कूल पहुंचकर अन्य शिक्षकों पर नैतिक दबाव बनाने की स्थिति में आ गए। हालांकि नैतिक दबाव जैसी किसी काल्पनिक चीज में भरोसा करने वाले यह जानकर बेहोश हो सकते हैं कि नित्यप्रति की लेटलतीफी, बहानों की अंतहीन शृंखला, जल्दी जाने की धुन, क्लास तक न जाने की जहमत, छुट्टी मारकर साइन करने के लिए बच्चों की तरह रूठना-मनना और बच्चों का भविष्य नेस्तनाबूद करने की जिद हो, वहां मरी आत्माओं में ठोकरों से भी कोई हलचल नहीं होती, नैतिक दबाव तो दूर की बात है! ऐसे माहौल में भी शशि पालीवाल जी बिला नागा तय समय पर स्कूल पहुंचते हैं। चार अन्य शिक्षक भी जयपुर से तशरीफ लाते हैं, लेकिन उनके लिए सर्दी, गर्मी, वर्षा का होना लेट हो जाने का एक खूबसूरत बहाना भर है, जबकि पालीवाल जी के लिए एक चुनौती और इसमें हर दिन कामयाब होते हैं वे। लेटलतीफों के बहाने भी ऐसे कि रोज सुनने वाला शर्म से डूब जाए, जैसे, बस निकल गई, रद्द हो गई, फाटक बंद था, टायर पंक्चर हो गया, आज तो बाल-बाल बचे, बच्चा बीमार हो गया, ऐनवक्त मेहमान आ गए, बिल्ली रास्ता काट गई, आज तीए की बैठक में जाना है, रजिस्ट्री करवानी है, आज पूजा रखी है, गरुड़ पुराण का पाठ है, कन्याओं को जिमाना है, दान-पुण्य करने जाना है, सास को मंदिर लेकर जाना है, बच्चे का बर्थ डे है, मैरिज एनिवर्सरी है, वगैरह-वगैरह!
इनके बहाने सुनता हूं, तो शशि पालीवाल जी पर मुझे कभी-कभी शक होने लगता है कि इन्हें इंसान क्यों माना जाए? इंसानों के पास तो बहाने होते हैं, झूठ के पुलिंदे होते हैं, संवेदनहीनता होती हैं, अव्वल दर्जे की काहिली होती है, बच्चों का भविष्य बर्बाद करने की जिद होती है, शिक्षा का बेड़ा गर्क करने की नीयत होती है, जबकि पालीवाल जी किसी दूसरे ग्रह के एलियन्स की तरह अपनी धुन में समय पर पहुंचते हैं, जिनके न परिवार, न बच्चे, न कोई काम, बस मस्ती में झूमते हुए, शान से गर्दन उठाए आते दिखते हैं। यही नहीं, दिन भर स्कूल में प्रत्येक कार्य पूरी तन्मयता से निपटाते हैं। प्रार्थना से लेकर अध्यापन, डाक या इतर कार्य, पूरे समय वे तल्लीनता से लगे रहते हैं! क्लास खाली दिखी नहीं कि दन से पहुंच जाते हैं। शिक्षक कम हों, तो दो-तीन कक्षाओं को एक साथ बिठा व्यवस्था बना लेते हैं। दूसरों के दायित्वों को भी खुशी से अपने सिर ओढ़ लेने का दूसरा नाम है शशि पालीवाल जी। तिस पर न कोई खीज, न झुंझलाहट, न थकान, न किसी से शिकायत। शाम को भी वे मुझे उसी चमक और ऊर्जा के साथ मिलते हैं। मेरी यह जानने में रुचि रहती है कि उनकी इस सक्रियता और कार्यकुशलता का बाकी स्टाफ पर क्या असर पड़ता है। यह जानकर ताज्जुब होता है कि लोग उनसे प्रेरित होने की बजाय उलटा उनका मजाक बनाने में ज्यादा एनर्जी लगाते हैं। वे इससे भी विचलित नहीं होते। हैरत नहीं, आज ईमानदार, कर्मठ, कार्य कुशल लोग मजाक के पात्र ही समझे जाते हैं। जाहिल और भ्रष्टों के दौर में और क्या उम्मीद करें?
मैं उनसे अक्सर पूछता हूं, आप यह सब कैसे कर लेते हैं, तो प्रत्युत्तर में उनका जवाब कम, मुस्कान ज्यादा होती है। मैं समझ जाता हूं, जिनके पास बांटने को मुस्कान हो, उनके काम बोलेंगे और जिनके काम बोलते हैं उनके पास क्यों नहीं मुस्कानों का जखीरा होगा?
ऐसे माहौल में जब शिक्षक कौम (बड़ी संख्या) बच्चों के भविष्य के साथ रोज बलात्कार करती है, पालीवाल जी जैसे शिक्षक प्रशंसित, पुरस्कृत और अभिनंदित किए जाने चाहिए। सरकारों पर यकीन नहीं, क्योंकि वहां के प्रतिमान भी उनके ढर्रे जैसे हैं, लेकिन मैं उनका तहेदिल से शक्रिया अदा करना चाहता हूं।
सलाम पालीवाल सर!
1 comment:
बहुत ही अच्छा लिखते हो जनाब लगे रहिये (Keep going so Inspirational and motivational)
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