सिकुड़ती जमीन
- सुरजीत सिंह
वह पहले खेत हुआ करता था। देहयष्टि से भी और अपने गर्भ में उगाने वाली फसलों के लिहाज से भी। महज पांच-दस साल का संक्षिप्त सा समय गुजरा है और अब वह सिकुडक़र प्लॉट का एक टुकड़ा भर रह गया है। चारों ओर ऊंचे, कई मंजिला फ्लैट, मकान, बिल्डिंग बन गए। फॉर्म हाउस अस्तित्व में आ गए। आजकल शहरों के आस-पास फॉर्म हाउस क्रांति में तेजी हैं, यह पैसे वालों की मानसिक अय्याशियों का नतीजा हैं, जिनमें फसलें नहीं उगतीं, रिटर्न के लालच में निवेश के मनी प्लांट उगाए जाते हैं।
खेत के दूसरी तरफ कोने में किसी दिमाग की फूली हुई नसों के जैसा दुकानों का गुच्छा सा उभर आया है। पास में पानी की विशाल टंकी, बगल में फास्टफूड की दुकानें, डिपार्टमेंटल स्टोर, तीन तरफ फ्लैट और बिल्डिंगें! बीच में यह सिकुड़ा हुआ खेत! ताज्जुब है इसका बचे रहना और इससे बड़ा ताज्जुब है कि इसमें किसान ने अब भी थोड़े से टमाटर, मिर्च, बैंगन लगाने की जिद पाल रखी है। गोया खेत की आत्मा को जीवित रखने के प्रयास जारी हैं। अपने फ्लैट की खिडक़ी से देखता हूं, तो मुझे यह खेत षड्यंत्र का शिकार प्रतीत होता है। कभी दूर तक खेत ही खेत, फिर शनै:शनै: कटता गया, टुकड़ों में। यह सोचकर कांप जाता हूं कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी? चारों ओर घातक नजरें लगी हुई हैं। कभी-कभी यह खेत ड्रेगन चीन की चालों में फंसा तिब्बत, वियतनाम, हॉन्गकॉन्ग सरीखा लगता है। कभी शेरों के झुण्ड से घिरा कोई मासूम मेमना सा।
गौर से देखा तो एकाएक लगा जैसे दिल्ली के चिडिय़ाघर में बाघ 'विजय' के खूंखार पंजों में फंसा मकसूद है, बचाने की मर्मान्तक गुहार लगा रहा है! खेत को देखते-देखते मेरी नजरें सिकुडक़र अपने फ्लैट के इर्द-गिर्द गई। जायजा लिया, तो सैटबैक नदारद पाया। बगल में खाली प्लॉट पर जिस दिन फ्लैट बनेगा, हम खिड़कियों से एक-दूसरे के यहां जाने लगेंगे। दरवाजों की उपयोगिता खत्म हो जाएगी। लेकिन अहम सवाल यह कि हम क्यों जाएंगे भला? हम फ्लैटधारी भी आपस में कितने सिकुड़े हुए हैं। बरसों अगल-बगल, ऊपर-नीचे रहते-रहते एक दूजे को शक्ल से जानने के सिवाय और क्या जानते हैं?
बाहर निकलता हूं, दुनिया सिकुडऩे लगती है। रोड भी पहले जैसी खुली, हवादार नहीं है। अतिक्रमण ने सडक़ की अस्मिता छीन ली है। फुटपाथ पहले सिकुड़ते हैं, फिर कहानी के पात्र की तरह हो जाते हैं- यहां कभी फुटपाथ थे! एक शहर में पार्किंग स्थल ढूंढना तो मंगल पर पानी खोजने की तरह है।
महंगाई ने समोसा, कचौरी की साइज को भी बहुत सिकोड़ा है। रेट अलबत्ता न बढ़ी हो या कम बढ़ी हो, लेकिन भरपाई साइज घटाकर कर ली गई। बिस्किट, चिप्स, नमकीन, दाल सहित अन्य खाद्य सामग्रियों के पैकेट्स पर दृष्टिपात किया, तो पाया रेट यथावत, मगर वजन हल्का हो गया है। अब मुझे हर चीज सिकुड़ी हुई नजर आने लगी।
फिर एकाएक ध्यान आया, पिछले हफ्ते मैंने अंडरवीयर और बनियान खरीदी थी। नम्बर वही अपना 85 था। जब से ये चीजें खुद खरीदने लगा हूं, तब से गरीबों की गरीबी और अपना '85' नम्बर चिरस्थाई है। लेकिन एक हफ्ते में टांके उधडऩे लगे तो आश्चर्य हुआ। पहनने में भी काफी तंग लगीं। शायद नम्बर छोटा आ गया हो। बार-बार देखा, नम्बर दुरुस्त था। फिर ब्रेकिंग न्यूज यह निकली कि शायद अंडरवीयर, बनियान भी सिकुडऩ के शिकार हो गए हैं। जल्द हम भी सिकुडक़र इनके नाप में आने लगेंगे।
इसी बीच एक अनोखी घटना घटित हुई है। लोगों को यह जानकर कौतूहल हुआ कि जयपुर में दिसम्बर के प्रारम्भ में पंखे चलते पाए गए। स्वेटरें, शॉल, कम्बल, मफलर, गर्म टोपियां व्यस्तता के दिनों में बेरोजगार बैठी हैं। कहीं सर्दियां भी न सिकुड़ रही हों? बिलकुल! मौसम विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अचानक जयपुर से दिशाएं भटक गई हैं। सो, गर्मी दिसम्बर में भी बनी हुई है। मतलब साफ है, सर्दियों का मौसम भी सिकुड़ रहा है। हवाएं भी सिकुड़ रही हैं। कहीं कुछ सिकुड़ता है, तो कहीं ओर कुछ विस्तार पाता है। अनावश्यक तापमान बढ़ रहा है। ब्लैक होल बढ़ रहा है। ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ रही हैं। ओजोन में छेद बड़ा हो रहा है। इसलिए सर्दियों का दौर लघु होना असामान्य घटना नहीं है।
यदि आज हमारे दिमागों को स्कैन किया जाए, तो उनकी सिकुडऩ किस कदर निकलेगी अंदाजा नहीं है। अनुमान से ज्यादा ही संकुचित पाए जाएंगे। दिलों में भी पहले से ज्यादा तंगदिली है। बड़े दिल और खुले दिमाग किसी प्रयोगशाला में तो नहीं बनाए जा सकते हैं न?
- सुरजीत सिंह
वह पहले खेत हुआ करता था। देहयष्टि से भी और अपने गर्भ में उगाने वाली फसलों के लिहाज से भी। महज पांच-दस साल का संक्षिप्त सा समय गुजरा है और अब वह सिकुडक़र प्लॉट का एक टुकड़ा भर रह गया है। चारों ओर ऊंचे, कई मंजिला फ्लैट, मकान, बिल्डिंग बन गए। फॉर्म हाउस अस्तित्व में आ गए। आजकल शहरों के आस-पास फॉर्म हाउस क्रांति में तेजी हैं, यह पैसे वालों की मानसिक अय्याशियों का नतीजा हैं, जिनमें फसलें नहीं उगतीं, रिटर्न के लालच में निवेश के मनी प्लांट उगाए जाते हैं।
खेत के दूसरी तरफ कोने में किसी दिमाग की फूली हुई नसों के जैसा दुकानों का गुच्छा सा उभर आया है। पास में पानी की विशाल टंकी, बगल में फास्टफूड की दुकानें, डिपार्टमेंटल स्टोर, तीन तरफ फ्लैट और बिल्डिंगें! बीच में यह सिकुड़ा हुआ खेत! ताज्जुब है इसका बचे रहना और इससे बड़ा ताज्जुब है कि इसमें किसान ने अब भी थोड़े से टमाटर, मिर्च, बैंगन लगाने की जिद पाल रखी है। गोया खेत की आत्मा को जीवित रखने के प्रयास जारी हैं। अपने फ्लैट की खिडक़ी से देखता हूं, तो मुझे यह खेत षड्यंत्र का शिकार प्रतीत होता है। कभी दूर तक खेत ही खेत, फिर शनै:शनै: कटता गया, टुकड़ों में। यह सोचकर कांप जाता हूं कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी? चारों ओर घातक नजरें लगी हुई हैं। कभी-कभी यह खेत ड्रेगन चीन की चालों में फंसा तिब्बत, वियतनाम, हॉन्गकॉन्ग सरीखा लगता है। कभी शेरों के झुण्ड से घिरा कोई मासूम मेमना सा।
गौर से देखा तो एकाएक लगा जैसे दिल्ली के चिडिय़ाघर में बाघ 'विजय' के खूंखार पंजों में फंसा मकसूद है, बचाने की मर्मान्तक गुहार लगा रहा है! खेत को देखते-देखते मेरी नजरें सिकुडक़र अपने फ्लैट के इर्द-गिर्द गई। जायजा लिया, तो सैटबैक नदारद पाया। बगल में खाली प्लॉट पर जिस दिन फ्लैट बनेगा, हम खिड़कियों से एक-दूसरे के यहां जाने लगेंगे। दरवाजों की उपयोगिता खत्म हो जाएगी। लेकिन अहम सवाल यह कि हम क्यों जाएंगे भला? हम फ्लैटधारी भी आपस में कितने सिकुड़े हुए हैं। बरसों अगल-बगल, ऊपर-नीचे रहते-रहते एक दूजे को शक्ल से जानने के सिवाय और क्या जानते हैं?
बाहर निकलता हूं, दुनिया सिकुडऩे लगती है। रोड भी पहले जैसी खुली, हवादार नहीं है। अतिक्रमण ने सडक़ की अस्मिता छीन ली है। फुटपाथ पहले सिकुड़ते हैं, फिर कहानी के पात्र की तरह हो जाते हैं- यहां कभी फुटपाथ थे! एक शहर में पार्किंग स्थल ढूंढना तो मंगल पर पानी खोजने की तरह है।
महंगाई ने समोसा, कचौरी की साइज को भी बहुत सिकोड़ा है। रेट अलबत्ता न बढ़ी हो या कम बढ़ी हो, लेकिन भरपाई साइज घटाकर कर ली गई। बिस्किट, चिप्स, नमकीन, दाल सहित अन्य खाद्य सामग्रियों के पैकेट्स पर दृष्टिपात किया, तो पाया रेट यथावत, मगर वजन हल्का हो गया है। अब मुझे हर चीज सिकुड़ी हुई नजर आने लगी।
फिर एकाएक ध्यान आया, पिछले हफ्ते मैंने अंडरवीयर और बनियान खरीदी थी। नम्बर वही अपना 85 था। जब से ये चीजें खुद खरीदने लगा हूं, तब से गरीबों की गरीबी और अपना '85' नम्बर चिरस्थाई है। लेकिन एक हफ्ते में टांके उधडऩे लगे तो आश्चर्य हुआ। पहनने में भी काफी तंग लगीं। शायद नम्बर छोटा आ गया हो। बार-बार देखा, नम्बर दुरुस्त था। फिर ब्रेकिंग न्यूज यह निकली कि शायद अंडरवीयर, बनियान भी सिकुडऩ के शिकार हो गए हैं। जल्द हम भी सिकुडक़र इनके नाप में आने लगेंगे।
इसी बीच एक अनोखी घटना घटित हुई है। लोगों को यह जानकर कौतूहल हुआ कि जयपुर में दिसम्बर के प्रारम्भ में पंखे चलते पाए गए। स्वेटरें, शॉल, कम्बल, मफलर, गर्म टोपियां व्यस्तता के दिनों में बेरोजगार बैठी हैं। कहीं सर्दियां भी न सिकुड़ रही हों? बिलकुल! मौसम विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अचानक जयपुर से दिशाएं भटक गई हैं। सो, गर्मी दिसम्बर में भी बनी हुई है। मतलब साफ है, सर्दियों का मौसम भी सिकुड़ रहा है। हवाएं भी सिकुड़ रही हैं। कहीं कुछ सिकुड़ता है, तो कहीं ओर कुछ विस्तार पाता है। अनावश्यक तापमान बढ़ रहा है। ब्लैक होल बढ़ रहा है। ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ रही हैं। ओजोन में छेद बड़ा हो रहा है। इसलिए सर्दियों का दौर लघु होना असामान्य घटना नहीं है।
यदि आज हमारे दिमागों को स्कैन किया जाए, तो उनकी सिकुडऩ किस कदर निकलेगी अंदाजा नहीं है। अनुमान से ज्यादा ही संकुचित पाए जाएंगे। दिलों में भी पहले से ज्यादा तंगदिली है। बड़े दिल और खुले दिमाग किसी प्रयोगशाला में तो नहीं बनाए जा सकते हैं न?
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