एक अदद रजाई
पाकिस्तान को कश्मीर चाहिए, चीन को अरुणाचल प्रदेश चाहिए, अमेरिका को अपनी जेब में दुनिया चाहिए, दुनिया को मुक्ति चाहिए, समाजवादियों को अपना परिवार चाहिए, परिवार को सत्ता चाहिए, कांग्रेस को गुजरे दिन चाहिए, भाजपा को समूचा देश चाहिए, देश को अच्छे दिन चाहिए, अच्छे दिनों को पता चाहिए, मंत्रियों को विवादित बयान चाहिए, बॉलीवुड को चंद हिट चाहिए, क्रिकेट टीम को ऑस्ट्रेलिया में जीत चाहिए, जनता को काम चाहिए, काम को बाबू चाहिए, बाबुओं को आराम चाहिए, छुट्टी भरे दिन चाहिए, दिन को सूरज चाहिए, सूरज को ताप चाहिए, रातों को सुकून चाहिए और इन सबसे परे मुझे एक अदद रजाई चाहिए! इस समय सब चीजें भुलाकर मैं एक अदद रजाई का तलबगार हूं। गोया मौसम ने अपनी ठंड से भरी मिसाइलें चारों ओर तैनात कर दी हैं और लगातार आक्रमण तन-मन को भेद रहे हैं। जर्रे-जर्रे ने ठंड को फैलाने की, मुझे गलाने की साजिश की है। घबराकर मैं बंकर में घुस जाना चाहता हूं। इस समय रजाई से बेहतरीन, सुरक्षित, मजबूत बंकर कोई नहीं। सारी कायनात एक तरफ, रजाई की करामात एक तरफ। सारी सक्रियता को ठंड लग गई है। दिमाग दही सा जम गया है। सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो रही है। छातियां बूझे चूल्हों की तरह ठंडी पड़ी हैं, जिन्हें सुलगाए रखने के लिए 'आग' चाहिए। कहीं से बीड़ीजलाऊ आह्वान भी नहीं कि 'जिगरवा में बड़ी आग' है। दांत गिटार से बज रहे हैं। मुंह इंजन बन गए हैं, भाप का उत्सर्जन जारी है। नाक सदानीरा है। हड्डियों में हलचल नहीं है। मौसम का सितम ऐसा है कि खून का खुद को खून बनाए रहना इस समय सबसे बड़ी चुनौती है, उसे ऑक्सीजन से ज्यादा गर्माहट की सप्लाई चाहिए। ऐसे में रजाई का आविष्कार बड़ी क्रांतिकारी घटना लगती है।
ऐसे माहौल में जिसके पास एक अदद रजाई हो और बंदा उसमें घुसा पड़ा हो, वह दुनिया का सबसे बड़ा सूरमा है। मुझे तो ऐसे सूरमा के लिए नारा भी सूझ रहा है- दाल, बाटी, चूरमा - रजाई वाला सूरमा। सूरमा ही होगा, क्योंकि रजाई में घुसा हुआ व्यक्ति किस्मत का सांड होता है। फिल्मी डायलॉग में कहें तो वह तो पूरा सलमान खान हो जाता है, जो अपने आप की भी नहीं सुनता। और जिनके पास रजाई नहीं, वे सबकी सुनने को मजबूर हैं, विवश हैं, अभिशप्त हैं। उन्हें हर कोई सुनाता है, वे सुनते हैं। कांपते बदन में इतना भी हरकत नहीं होती कि वे खुद को सुनने से मुक्त करने का यत्न कर सकें।
उनकी यह बात समझ से परे है कि कुछ लोग क्यों जेड सुरक्षा के लिए हाय-तौबा मचाते हैं। इस समय जिसे रजाई मिल जाए, उसे और क्या चाहिए। सरकार चाहे तो रजाई विहीनों को यह जेडनुमा सिक्योरिटी देने का ऐलान कर सकती है। इसे अच्छे दिनों की डिलीवरी भी करार दिया जा सकता है। बिना रजाई के सारी बहादुरी बर्फ की तरह जमती है, जरा से ताप से रूई के फाहों की तरह उड़ जाती है। इसलिए लोगों को सब कुछ छोडक़र इस समय रजाई पर फोकस करना चाहिए। सारी दूसरी मांगें छोडक़र रजाई की मांग करनी चाहिए। जरूरत पड़े तो एक 'रजाई संघ ' बनाया जा सकता है। जिसका काम रजाई विहीन लोगों को चिन्हित करना, उनकी मांग उचित मंचों पर उठाना और उन्हें रजाई सम्पन्न बनाना हो। हालांकि अंदेशा यह भी है कि संघ को रजाइयां प्राप्त होते ही वे उसमें घुस जाएंगे, और जरा सी गर्माहट हासिल होते ही अपनी मांग की धार खो देंगे। धीरे-धीरे नैतिक बल भी जाता रहेगा। जिनको अभी तक गरीबी रेखा से बाहर नहीं निकाला जा सका, उन्हें रजाई के भीतर तो धकेलना सरकार की प्राथमिकता होना चाहिए।
यदि जीवन कविता की एक किताब हो, तो इस समय इसका शीर्षक यही होगा- मुझे रजाई चाहिए। जिनके पास रजाई नहीं, उनका दर्द गुरुदत्त के दर्द के लेवल का होता है कि 'यह दुनिया गर भी जाए तो क्या...?'
पाकिस्तान को कश्मीर चाहिए, चीन को अरुणाचल प्रदेश चाहिए, अमेरिका को अपनी जेब में दुनिया चाहिए, दुनिया को मुक्ति चाहिए, समाजवादियों को अपना परिवार चाहिए, परिवार को सत्ता चाहिए, कांग्रेस को गुजरे दिन चाहिए, भाजपा को समूचा देश चाहिए, देश को अच्छे दिन चाहिए, अच्छे दिनों को पता चाहिए, मंत्रियों को विवादित बयान चाहिए, बॉलीवुड को चंद हिट चाहिए, क्रिकेट टीम को ऑस्ट्रेलिया में जीत चाहिए, जनता को काम चाहिए, काम को बाबू चाहिए, बाबुओं को आराम चाहिए, छुट्टी भरे दिन चाहिए, दिन को सूरज चाहिए, सूरज को ताप चाहिए, रातों को सुकून चाहिए और इन सबसे परे मुझे एक अदद रजाई चाहिए! इस समय सब चीजें भुलाकर मैं एक अदद रजाई का तलबगार हूं। गोया मौसम ने अपनी ठंड से भरी मिसाइलें चारों ओर तैनात कर दी हैं और लगातार आक्रमण तन-मन को भेद रहे हैं। जर्रे-जर्रे ने ठंड को फैलाने की, मुझे गलाने की साजिश की है। घबराकर मैं बंकर में घुस जाना चाहता हूं। इस समय रजाई से बेहतरीन, सुरक्षित, मजबूत बंकर कोई नहीं। सारी कायनात एक तरफ, रजाई की करामात एक तरफ। सारी सक्रियता को ठंड लग गई है। दिमाग दही सा जम गया है। सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो रही है। छातियां बूझे चूल्हों की तरह ठंडी पड़ी हैं, जिन्हें सुलगाए रखने के लिए 'आग' चाहिए। कहीं से बीड़ीजलाऊ आह्वान भी नहीं कि 'जिगरवा में बड़ी आग' है। दांत गिटार से बज रहे हैं। मुंह इंजन बन गए हैं, भाप का उत्सर्जन जारी है। नाक सदानीरा है। हड्डियों में हलचल नहीं है। मौसम का सितम ऐसा है कि खून का खुद को खून बनाए रहना इस समय सबसे बड़ी चुनौती है, उसे ऑक्सीजन से ज्यादा गर्माहट की सप्लाई चाहिए। ऐसे में रजाई का आविष्कार बड़ी क्रांतिकारी घटना लगती है।
ऐसे माहौल में जिसके पास एक अदद रजाई हो और बंदा उसमें घुसा पड़ा हो, वह दुनिया का सबसे बड़ा सूरमा है। मुझे तो ऐसे सूरमा के लिए नारा भी सूझ रहा है- दाल, बाटी, चूरमा - रजाई वाला सूरमा। सूरमा ही होगा, क्योंकि रजाई में घुसा हुआ व्यक्ति किस्मत का सांड होता है। फिल्मी डायलॉग में कहें तो वह तो पूरा सलमान खान हो जाता है, जो अपने आप की भी नहीं सुनता। और जिनके पास रजाई नहीं, वे सबकी सुनने को मजबूर हैं, विवश हैं, अभिशप्त हैं। उन्हें हर कोई सुनाता है, वे सुनते हैं। कांपते बदन में इतना भी हरकत नहीं होती कि वे खुद को सुनने से मुक्त करने का यत्न कर सकें।
उनकी यह बात समझ से परे है कि कुछ लोग क्यों जेड सुरक्षा के लिए हाय-तौबा मचाते हैं। इस समय जिसे रजाई मिल जाए, उसे और क्या चाहिए। सरकार चाहे तो रजाई विहीनों को यह जेडनुमा सिक्योरिटी देने का ऐलान कर सकती है। इसे अच्छे दिनों की डिलीवरी भी करार दिया जा सकता है। बिना रजाई के सारी बहादुरी बर्फ की तरह जमती है, जरा से ताप से रूई के फाहों की तरह उड़ जाती है। इसलिए लोगों को सब कुछ छोडक़र इस समय रजाई पर फोकस करना चाहिए। सारी दूसरी मांगें छोडक़र रजाई की मांग करनी चाहिए। जरूरत पड़े तो एक 'रजाई संघ ' बनाया जा सकता है। जिसका काम रजाई विहीन लोगों को चिन्हित करना, उनकी मांग उचित मंचों पर उठाना और उन्हें रजाई सम्पन्न बनाना हो। हालांकि अंदेशा यह भी है कि संघ को रजाइयां प्राप्त होते ही वे उसमें घुस जाएंगे, और जरा सी गर्माहट हासिल होते ही अपनी मांग की धार खो देंगे। धीरे-धीरे नैतिक बल भी जाता रहेगा। जिनको अभी तक गरीबी रेखा से बाहर नहीं निकाला जा सका, उन्हें रजाई के भीतर तो धकेलना सरकार की प्राथमिकता होना चाहिए।
यदि जीवन कविता की एक किताब हो, तो इस समय इसका शीर्षक यही होगा- मुझे रजाई चाहिए। जिनके पास रजाई नहीं, उनका दर्द गुरुदत्त के दर्द के लेवल का होता है कि 'यह दुनिया गर भी जाए तो क्या...?'