December 17, 2014

एक अदद रजाई
पाकिस्तान को कश्मीर चाहिए, चीन को अरुणाचल प्रदेश चाहिए, अमेरिका को अपनी जेब में दुनिया चाहिए, दुनिया को मुक्ति चाहिए, समाजवादियों को अपना परिवार चाहिए, परिवार को सत्ता चाहिए, कांग्रेस को गुजरे दिन चाहिए, भाजपा को समूचा देश चाहिए, देश को अच्छे दिन चाहिए, अच्छे दिनों को पता चाहिए, मंत्रियों को विवादित बयान चाहिए, बॉलीवुड को चंद हिट चाहिए, क्रिकेट टीम को ऑस्ट्रेलिया में जीत चाहिए, जनता को काम चाहिए, काम को बाबू चाहिए, बाबुओं को आराम चाहिए, छुट्टी भरे दिन चाहिए, दिन को सूरज चाहिए, सूरज को ताप चाहिए, रातों को सुकून चाहिए और इन सबसे परे मुझे एक अदद रजाई चाहिए! इस समय सब चीजें भुलाकर मैं एक अदद रजाई का तलबगार हूं। गोया मौसम ने अपनी ठंड से भरी मिसाइलें चारों ओर तैनात कर दी हैं और लगातार आक्रमण तन-मन को भेद रहे हैं। जर्रे-जर्रे ने ठंड को फैलाने की, मुझे गलाने की साजिश की है। घबराकर मैं बंकर में घुस जाना चाहता हूं। इस समय रजाई से बेहतरीन, सुरक्षित, मजबूत बंकर कोई नहीं। सारी कायनात एक तरफ, रजाई की करामात एक तरफ। सारी सक्रियता को ठंड लग गई है। दिमाग दही सा जम गया है। सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो रही है। छातियां बूझे चूल्हों की तरह ठंडी पड़ी हैं, जिन्हें सुलगाए रखने के लिए 'आग' चाहिए। कहीं से बीड़ीजलाऊ आह्वान भी नहीं कि 'जिगरवा में बड़ी आग' है। दांत गिटार से बज रहे हैं। मुंह इंजन बन गए हैं, भाप का उत्सर्जन जारी है। नाक सदानीरा है। हड्डियों में हलचल नहीं है। मौसम का सितम ऐसा है कि खून का खुद को खून बनाए रहना इस समय सबसे बड़ी चुनौती है, उसे ऑक्सीजन से ज्यादा गर्माहट की सप्लाई चाहिए। ऐसे में रजाई का आविष्कार बड़ी क्रांतिकारी घटना लगती है।
ऐसे माहौल में जिसके पास एक अदद रजाई हो और बंदा उसमें घुसा पड़ा हो, वह दुनिया का सबसे बड़ा सूरमा है। मुझे तो ऐसे सूरमा के लिए नारा भी सूझ रहा है- दाल, बाटी, चूरमा - रजाई वाला सूरमा। सूरमा ही होगा, क्योंकि रजाई में घुसा हुआ व्यक्ति किस्मत का सांड होता है। फिल्मी डायलॉग में कहें तो वह तो पूरा सलमान खान हो जाता है, जो अपने आप की भी नहीं सुनता। और जिनके पास रजाई नहीं, वे सबकी सुनने को मजबूर हैं, विवश हैं, अभिशप्त हैं। उन्हें हर कोई सुनाता है, वे सुनते हैं। कांपते बदन में इतना भी हरकत नहीं होती कि वे खुद को सुनने से मुक्त करने का यत्न कर सकें।
उनकी यह बात समझ से परे है कि कुछ लोग क्यों जेड सुरक्षा के लिए हाय-तौबा मचाते हैं। इस समय जिसे रजाई मिल जाए, उसे और क्या चाहिए। सरकार चाहे तो रजाई विहीनों को यह जेडनुमा सिक्योरिटी देने का ऐलान कर सकती है। इसे अच्छे दिनों की डिलीवरी भी करार दिया जा सकता है। बिना रजाई के सारी बहादुरी बर्फ की तरह जमती है, जरा से ताप से रूई के फाहों की तरह उड़ जाती है। इसलिए लोगों को सब कुछ छोडक़र इस समय रजाई पर फोकस करना चाहिए। सारी दूसरी मांगें छोडक़र रजाई की मांग करनी चाहिए। जरूरत पड़े तो एक 'रजाई संघ ' बनाया जा सकता है। जिसका काम रजाई विहीन लोगों को चिन्हित करना, उनकी मांग उचित मंचों पर उठाना और उन्हें रजाई सम्पन्न बनाना हो। हालांकि अंदेशा यह भी है कि संघ को रजाइयां प्राप्त होते ही वे उसमें घुस जाएंगे, और जरा सी गर्माहट हासिल होते ही अपनी मांग की धार खो देंगे। धीरे-धीरे नैतिक बल भी जाता रहेगा। जिनको अभी तक गरीबी रेखा से बाहर नहीं निकाला जा सका, उन्हें रजाई के भीतर तो धकेलना सरकार की प्राथमिकता होना चाहिए।
यदि जीवन कविता की एक किताब हो, तो इस समय इसका शीर्षक यही होगा- मुझे रजाई चाहिए। जिनके पास रजाई नहीं, उनका दर्द गुरुदत्त के दर्द के लेवल का होता है कि 'यह दुनिया गर भी जाए तो क्या...?'

December 11, 2014

सलाम पालीवाल सर!

अगर आपसे पूछा जाए कि वह क्या है, जो सर्दी, गर्मी, वर्षा किसी भी प्रतिकूल मौसम में किसी भी सूरत में नहीं रुकता...? तो मौजूं वक्त के हिसाब से हो सकता है कुछ लोग रेडियो पर आने वाले मोदी के संबोधन से लेकर विदेश दौरे, अच्छे दिन गिनाएं या अपने-अपने नजरिए से कुछ भी गढऩे लगें, लेकिन मेरी नजर में वह एक शिक्षक हैं, जिन्हें लोग शशि पालीवाल जी के नाम से जानते हैं। वे प्रतिदिन जयपुर से 50 किमी का सफर तय कर स्कूल पहुंचते हैं।
स्कूल जयपुर-लालसोट रोड (जिला दौसा) पर एक आदिवासी बहुल गांव में है, जिसके पास अपने कोई संसाधन नहीं, पर्याप्त बिल्डिंग नहीं, खेल मैदान नहीं, शौचालय नहीं, सबसे जरूरी पढ़ाई का माहौल नहीं...शक्लोसूरत ही नहीं, 'कैरेक्टर' से भी पूरा प्राइमरी स्कूल और गत वर्ष चुनावी चकल्लस में जिसकी मांग में सैकंडरी का सिंदूर भर दिया गया। अब जबरन क्रमोन्नति के भरे गए इस सिंदूर का दर्द कोई सरकार क्या जाने?
खैर, कुल पांच कमरों और दस क्लास वाली स्कूल में मेरी पत्नी को हैडमास्टर लगाया गया। वे साल भर से उसे एक स्तर तक लाने के लिए जूझ रही हैं। 'स्कूल की दशा सुधार कर रहेंगे' का बड़ा अरमान और जोशीला संकल्प लेकर हमने जयपुर रहने के मोह का परित्याग किया और बोरिया बिस्तर उठा गांव में ही रहने चले आए। यहां आकर पता चला कि स्कूलों को सुधारना कोई 'बिग बॉस' के घर का टास्क नहीं, शेरों के खुले पिंजरे में कूद जाने से कम नहीं।
इससे हमें यह फायदा जरूर हुआ कि हम तय समय पर स्कूल पहुंचकर अन्य शिक्षकों पर नैतिक दबाव बनाने की स्थिति में आ गए। हालांकि नैतिक दबाव जैसी किसी काल्पनिक चीज में भरोसा करने वाले यह जानकर बेहोश हो सकते हैं कि नित्यप्रति की लेटलतीफी, बहानों की अंतहीन शृंखला, जल्दी जाने की धुन, क्लास तक न जाने की जहमत, छुट्टी मारकर साइन करने के लिए बच्चों की तरह रूठना-मनना और बच्चों का भविष्य नेस्तनाबूद करने की जिद हो, वहां मरी आत्माओं में ठोकरों से भी कोई हलचल नहीं होती, नैतिक दबाव तो दूर की बात है! ऐसे माहौल में भी शशि पालीवाल जी बिला नागा तय समय पर स्कूल पहुंचते हैं। चार अन्य शिक्षक भी जयपुर से तशरीफ लाते हैं, लेकिन उनके लिए सर्दी, गर्मी, वर्षा का होना लेट हो जाने का एक खूबसूरत बहाना भर है, जबकि पालीवाल जी के लिए एक चुनौती और इसमें हर दिन कामयाब होते हैं वे। लेटलतीफों के बहाने भी ऐसे कि रोज सुनने वाला शर्म से डूब जाए, जैसे, बस निकल गई, रद्द हो गई, फाटक बंद था, टायर पंक्चर हो गया, आज तो बाल-बाल बचे, बच्चा बीमार हो गया, ऐनवक्त मेहमान आ गए, बिल्ली रास्ता काट गई, आज तीए की बैठक में जाना है, रजिस्ट्री करवानी है, आज पूजा रखी है, गरुड़ पुराण का पाठ है, कन्याओं को जिमाना है, दान-पुण्य करने जाना है, सास को मंदिर लेकर जाना है, बच्चे का बर्थ डे है, मैरिज एनिवर्सरी है, वगैरह-वगैरह!
इनके बहाने सुनता हूं, तो शशि पालीवाल जी पर मुझे कभी-कभी शक होने लगता है कि इन्हें इंसान क्यों माना जाए? इंसानों के पास तो बहाने होते हैं, झूठ के पुलिंदे होते हैं, संवेदनहीनता होती हैं, अव्वल दर्जे की काहिली होती है, बच्चों का भविष्य बर्बाद करने की जिद होती है, शिक्षा का बेड़ा गर्क करने की नीयत होती है, जबकि पालीवाल जी किसी दूसरे ग्रह के एलियन्स की तरह अपनी धुन में समय पर पहुंचते हैं, जिनके न परिवार, न बच्चे, न कोई काम, बस मस्ती में झूमते हुए, शान से गर्दन उठाए आते दिखते हैं। यही नहीं, दिन भर स्कूल में प्रत्येक कार्य पूरी तन्मयता से निपटाते हैं। प्रार्थना से लेकर अध्यापन, डाक या इतर कार्य, पूरे समय वे तल्लीनता से लगे रहते हैं! क्लास खाली दिखी नहीं कि दन से पहुंच जाते हैं। शिक्षक कम हों, तो दो-तीन कक्षाओं को एक साथ बिठा व्यवस्था बना लेते हैं। दूसरों के दायित्वों को भी खुशी से अपने सिर ओढ़ लेने का दूसरा नाम है शशि पालीवाल जी। तिस पर न कोई खीज, न झुंझलाहट, न थकान, न किसी से शिकायत। शाम को भी वे मुझे उसी चमक और ऊर्जा के साथ मिलते हैं। मेरी यह जानने में रुचि रहती है कि उनकी इस सक्रियता और कार्यकुशलता का बाकी स्टाफ पर क्या असर पड़ता है। यह जानकर ताज्जुब होता है कि लोग उनसे प्रेरित होने की बजाय उलटा उनका मजाक बनाने में ज्यादा एनर्जी लगाते हैं। वे इससे भी विचलित नहीं होते। हैरत नहीं, आज ईमानदार, कर्मठ, कार्य कुशल लोग मजाक के पात्र ही समझे जाते हैं। जाहिल और भ्रष्टों के दौर में और क्या उम्मीद करें?
मैं उनसे अक्सर पूछता हूं, आप यह सब कैसे कर लेते हैं, तो प्रत्युत्तर में उनका जवाब कम, मुस्कान ज्यादा होती है। मैं समझ जाता हूं, जिनके पास बांटने को मुस्कान हो, उनके काम बोलेंगे और जिनके काम बोलते हैं उनके पास क्यों नहीं मुस्कानों का जखीरा होगा?
ऐसे माहौल में जब शिक्षक कौम (बड़ी संख्या) बच्चों के भविष्य के साथ रोज बलात्कार करती है, पालीवाल जी जैसे शिक्षक प्रशंसित, पुरस्कृत और अभिनंदित किए जाने चाहिए। सरकारों पर यकीन नहीं, क्योंकि वहां के प्रतिमान भी उनके ढर्रे जैसे हैं, लेकिन मैं उनका तहेदिल से शक्रिया अदा करना चाहता हूं।
सलाम पालीवाल सर!

December 06, 2014

श्रद्धा सुमन कुबूल करना, मित्र!

प्रधानमंत्री मुग्ध हो सकते  हैं कि उन्होंने ओबामा को गणतंत्र दिवस पर आमंत्रित कर विरोधियों को एक ही झटके में निपटा दिया है। उनका आत्मविश्वास कहता है कि वे घाटी में 'कमल' खिलाकर विरोधियों को दूसरी बार फिर पीटेंगे। तो दूसरी ओर सरकार के मंत्री 'रामजादों' की परिभाषा तय करने में लगे हैं। कुछ को मरोड़ यह उठ रही है कि मोदी नाम के बढ़ते 'हुदहुद' को कैसे रोका जाए और भानुमति का कुनबा जोडऩे के लिए कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा एकत्र करने में लगे हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो प्रधानमंत्री के विदेश दौरे की प्रतीक्षा में अपने शब्दकोश में आलोचनाओं के नए मुहावरे गढ़ रहे हैं, तो उनकी चिंता यह है भी कि पूर्णकालिक विदेश मंत्री होते हुए भी पीएम खुद ही विदेश मंत्री के अवतार में क्यों नजर आते हैं। सबके अपने-अपने मुहावरे, एजेंडे और सीनाजोरी है। इससे किसी को क्या कि संसद ठप है, बहिष्कार है, काली पट्टियां, काली शॉल और बिना बारिश की आशंका के काले छाते तने हुए हैं। किसी की मराठी मानुष की अस्मिता 'कुर्सियों' की बलिवेदी पर ढेर हो रही है! कुल मिलाकरर सबकी अपने अस्तित्व की छद्म लड़ाइयां हैं, शह-मात के प्रपंच हैं। अपने-अपने आलाप की मुद्रा में लीन इन सबको क्योंकर खबर होगी कि मेरा एक मित्र शहीद हो गया है। सुदूर छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के घात लगाकर किए गए हमले में दर्जन से अधिक जवान गोलियों के शिकार हो गए, जो तकनीकी रूप से 'शहीद' कहलाते हैं।
उस सूची में एक नाम राजेश कपूरिया भी था। कल रात को यह खबर फेसबुक पर पढ़ी, तो सन्न रह गया। नाम सुनकर झटका सा लगा-राजेश कपूरिया! मैं उस राजेश को जानता हूं, जिससे एमए की पढ़ाई के लिए जयपुर पदार्पण पर प्रथम बार मिला था।
दिमाग में 16 साल पहले का वह दृश्य कौंध गया, जब मैं एक बैग और बिस्तर लेकर जयपुर-लुहारू पैसेंजर ट्रेन से उतरकर किसी का इंतजार कर रहा था। वहां पहले से ही जयपुर आकर अध्ययन कर रहा एक मित्र मुझे लेने आने वाला था। वादे के मुताबिक वह तय समय पर जंक्शन पर नहीं मिला, तो मेरी जान सूख रही थी। किससे पूछूं, किधर जाऊं? बार-बार जेब में पड़े मुड़े-तुड़े एड्रेस को पढक़र किसी से पता पूछने की कोशिश कर रहा था कि तभी किसी ने पीछे से धौल जमाई। मैंने हड़बड़ाकर पीछे देखा, तो मित्र को देख तसल्ली हुई। उसने साथ आए नौजवान से परिचय कराया- यह है राजेश कपूरिया! हम अस्थाई तौर पर दसेक दिन राजेश के आवास पर रुके, जो सम्भवत: उसके कश्मीर में तैनात फौजी पिता के नाम से अलॉट था। इस दौरान इतना जान पाया कि वह भी झुझुनूं के किसी गांव का रहने वाला है, कॉमर्स कॉलेज में पढ़ता है और मिलिट्री ज्वॉइन करने की ख्वाहिश रखता है, इसके लिए वह फिजिकल एक्सरसाइज से ज्यादा इंग्लिश से जूझ रहा है। दो बार सीएसडी की एग्जाम क्लियर कर इंटरव्यू दे चुका है और तीसरी बार भी आश्वस्त था। मैं अपने संकोची स्वभाव से बाहर निकल उससे याराना कायम करता, उससे पहले ही हमने अलग कमरा किराए पर ले लिया। उसके बाद यदा-कदा राजस्थान विश्वविद्यालय में वह नजर आया। खासतौर पर लाइब्रेरी में। जब भी बात हुई, इंग्लिश से शुरू होकर इंग्लिश पर ही खत्म हुई। वह तो इस निष्कर्ष पर भी पहुंच चुका था कि शेखावाटी के आदमी को बाहर निकलने पर दो चीजें सबसे ज्यादा परेशान करती हैं, एक तो लहजा, दुसरी इंग्लिश!
रात के 12 बज रहे थे और मेरे जहन में एक ही नाम तैर रहा था-राजेश कपूरिया! छोड़ो यार, नाम तो कितनों के ही एक जैसे हो सकते हैं-मन ने समझाया! लेकिन झुझुनूं दिल धडक़ा रहा था। उसकी तिरंगे में लिपटी तस्वीर को लैपटॉप में डाउनलोड कर कई एंगल से देखा, लेकिन उलझन बरकरार थी। फिर वह तो शांत लेटा था, दीन-दुनिया से बेखबर, जैसे बरसों बाद ढंग की नींद आई हो, न क्लांत, न श्रांत! मन ने किया, इसे ही जगाकर पूछ लूं कि क्या तुम वही राजेश हो, इतने दिन कहां गायब थे दोस्त? क्या इसलिए कि एक दिन अचानक आधी को इस रूप में सामने आकर उलझन में डाल दोगे? गूगल पर सर्च किया, तो भी कोई अन्य तस्वीर नहीं मिली। (जरूरी तो नहीं, गूगल हमारी हर शंका का समाधान करे ही।)
मन में तरह-तरह के खयाल उभर रहे थे। न्यूज में फौजी पिता का उल्लेख भी था। दिमाग ऐसी कई साम्यताओं के आधार पर नतीजे पर पहुंच रहा था कि यह वही राजेश है। लेकिन मन प्रतिकार कर रहा था, तेल रीते दीए की आखिरी लौ की तरह। बेचैनी का आलम यह था कि न आंखों में नींद थी, न तसल्ली! उद्विग्नता इतनी कि बस, बिना जाने यह रात न बीतेगी, न सुबह होगी! लेकिन आधी रात को किसे जगाकर पूछूं? तब के कोई दोस्त भी तो सम्पर्क में नहीं। रात इस उधेड़बुन में बीत गई। रातें बीत जाती हैं, वे सिर्फ आपके हिस्से की कहानी छोड़ जाती हैं। सुबह उठते ही झुझुनूं में दर्जनों परिचितों को फोन करने के पश्चात एक ऐसे मित्र के नम्बर मिले, जो विश्वविद्यालय में एकाधिक बार राजेश के साथ नजर आया था। फोन मिलते ही 'कुण-शुण' के बाद जब मैंने अपना परिचय देते हुए धडक़ते दिल से कहा कि मैंने कल कोई बुरी खबर पढ़ी है, तो उसके जवाब ने मुझे बिना पैराशूट ही आकाश से धक्का दे दिया- वो ई है सागी ही...राजेश शहीद हो गया!
मेरे पास तुम्हारी ज्यादा स्मृतियां नहीं हैं राजेश; एक बार छूटे, तो फिर कभी मिले भी नहीं। जिंदगी की जद्दोजहद में इतने आगे निकल आए कि कभी पीछे मुडक़र हमने 'छूटे' को टटोलने की कोशिश भी नहीं की। आज जब तुम्हारी खबर भी आई, तो इस रूप में! अब भी विश्वास नहीं हो रहा। कोई खबर को झुठला दे। मिलिट्री ज्वॉइन करने का जुनून, इंग्लिश में बेहद कमजोर होने के बावजूद उस पर फतह और सीआरपीएफ में असिस्टेंट कमांडेंट के रूप में सेवाएं देते हुए शहादत को प्राप्त हो जाना! कुल इतनी सी कहानी लगती है, लेकिन तुम बहुत कुछ कर गए हो। तुम मर कर भी 'जी' गए हो! मरे हुए तो वे हैं, जिनके पास इन अंतहीन लड़ाइयों के हल नहीं, करुण गाथाओं के उपसंहार नहीं।
सरकारों के पास पैकेज हैं, मेरे पास श्रद्धा के दो फूल हैं। मित्र, इन्हें स्वीकार करना!
तुम्हारे हिस्से का तुम कर चुके, हमारे हिस्से यही है!
पुनश्च: शेखावाटी में परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी सैनिक होने की गौरवशाली परम्परा है। संयोग से पिता बच गए थे, दुर्भाग्य से बेटे नहीं बच सके या पौते!
(तस्वीर साभार- PilaniNews Pilani)

December 02, 2014

सिकुड़ती जमीन
- सुरजीत सिंह
वह पहले खेत हुआ करता था। देहयष्टि से भी और अपने गर्भ में उगाने वाली फसलों के लिहाज से भी। महज पांच-दस साल का संक्षिप्त सा समय गुजरा है और अब वह सिकुडक़र प्लॉट का एक टुकड़ा भर रह गया है। चारों ओर ऊंचे, कई मंजिला फ्लैट, मकान, बिल्डिंग बन गए। फॉर्म हाउस अस्तित्व में आ गए। आजकल शहरों के आस-पास फॉर्म हाउस क्रांति में तेजी हैं, यह पैसे वालों की मानसिक अय्याशियों का नतीजा हैं, जिनमें फसलें नहीं उगतीं, रिटर्न के लालच में निवेश के मनी प्लांट उगाए जाते हैं।
खेत के दूसरी तरफ कोने में किसी दिमाग की फूली हुई नसों के जैसा दुकानों का गुच्छा सा उभर आया है। पास में पानी की विशाल टंकी, बगल में फास्टफूड की दुकानें, डिपार्टमेंटल स्टोर, तीन तरफ फ्लैट और बिल्डिंगें! बीच में यह सिकुड़ा हुआ खेत! ताज्जुब है इसका बचे रहना और इससे बड़ा ताज्जुब है कि इसमें किसान ने अब भी थोड़े से टमाटर, मिर्च, बैंगन लगाने की जिद पाल रखी है। गोया खेत की आत्मा को जीवित रखने के प्रयास जारी हैं। अपने फ्लैट की खिडक़ी से देखता हूं, तो मुझे यह खेत षड्यंत्र का शिकार प्रतीत होता है। कभी दूर तक खेत ही खेत, फिर शनै:शनै: कटता गया, टुकड़ों में। यह सोचकर कांप जाता हूं कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी? चारों ओर घातक नजरें लगी हुई हैं। कभी-कभी यह खेत ड्रेगन चीन की चालों में फंसा तिब्बत, वियतनाम, हॉन्गकॉन्ग सरीखा लगता है। कभी शेरों के झुण्ड से घिरा कोई मासूम मेमना सा।
गौर से देखा तो एकाएक लगा जैसे दिल्ली के चिडिय़ाघर में बाघ 'विजय' के खूंखार पंजों में फंसा मकसूद है, बचाने की मर्मान्तक गुहार लगा रहा है! खेत को देखते-देखते मेरी नजरें सिकुडक़र अपने फ्लैट के इर्द-गिर्द गई। जायजा लिया, तो सैटबैक नदारद पाया। बगल में खाली प्लॉट पर जिस दिन फ्लैट बनेगा, हम खिड़कियों से एक-दूसरे के यहां जाने लगेंगे। दरवाजों की उपयोगिता खत्म हो जाएगी। लेकिन अहम सवाल यह कि हम क्यों जाएंगे भला? हम फ्लैटधारी भी आपस में कितने सिकुड़े हुए हैं। बरसों अगल-बगल, ऊपर-नीचे रहते-रहते एक दूजे को शक्ल से जानने के सिवाय और क्या जानते हैं?
बाहर निकलता हूं, दुनिया सिकुडऩे लगती है। रोड भी पहले जैसी खुली, हवादार नहीं है। अतिक्रमण ने सडक़ की अस्मिता छीन ली है। फुटपाथ पहले सिकुड़ते हैं, फिर कहानी के पात्र की तरह हो जाते हैं- यहां कभी फुटपाथ थे! एक शहर में पार्किंग स्थल ढूंढना तो मंगल पर पानी खोजने की तरह है।
महंगाई ने समोसा, कचौरी की साइज को भी बहुत सिकोड़ा है। रेट अलबत्ता न बढ़ी हो या कम बढ़ी हो, लेकिन भरपाई साइज घटाकर कर ली गई। बिस्किट, चिप्स, नमकीन, दाल सहित अन्य खाद्य सामग्रियों के पैकेट्स पर दृष्टिपात किया, तो पाया रेट यथावत, मगर वजन हल्का हो गया है। अब मुझे हर चीज सिकुड़ी हुई नजर आने लगी।
फिर एकाएक ध्यान आया, पिछले हफ्ते मैंने अंडरवीयर और बनियान खरीदी थी। नम्बर वही अपना 85 था। जब से ये चीजें खुद खरीदने लगा हूं, तब से गरीबों की गरीबी और अपना '85' नम्बर चिरस्थाई है। लेकिन एक हफ्ते में टांके उधडऩे लगे तो आश्चर्य हुआ। पहनने में भी काफी तंग लगीं। शायद नम्बर छोटा आ गया हो। बार-बार देखा, नम्बर दुरुस्त था। फिर ब्रेकिंग न्यूज यह निकली कि शायद अंडरवीयर, बनियान भी सिकुडऩ के शिकार हो गए हैं। जल्द हम भी सिकुडक़र इनके नाप में आने लगेंगे।
इसी बीच एक अनोखी घटना घटित हुई है। लोगों को यह जानकर कौतूहल हुआ कि जयपुर में दिसम्बर के प्रारम्भ में पंखे चलते पाए गए। स्वेटरें, शॉल, कम्बल, मफलर, गर्म टोपियां व्यस्तता के दिनों में बेरोजगार बैठी हैं। कहीं सर्दियां भी न सिकुड़ रही हों? बिलकुल! मौसम विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अचानक जयपुर से दिशाएं भटक गई हैं। सो, गर्मी दिसम्बर में भी बनी हुई है। मतलब साफ है, सर्दियों का मौसम भी सिकुड़ रहा है। हवाएं भी सिकुड़ रही हैं। कहीं कुछ सिकुड़ता है, तो कहीं ओर कुछ विस्तार पाता है। अनावश्यक तापमान बढ़ रहा है। ब्लैक होल बढ़ रहा है। ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ रही हैं। ओजोन में छेद बड़ा हो रहा है। इसलिए सर्दियों का दौर लघु होना असामान्य घटना नहीं है।
यदि आज हमारे दिमागों को स्कैन किया जाए, तो उनकी सिकुडऩ किस कदर निकलेगी अंदाजा नहीं है। अनुमान से ज्यादा ही संकुचित पाए जाएंगे। दिलों में भी पहले से ज्यादा तंगदिली है। बड़े दिल और खुले दिमाग किसी प्रयोगशाला में तो नहीं बनाए जा सकते हैं न?

November 13, 2014

कांस्टेबल भी संवेदनशील होता है!

एक ही मकान में मेरे पड़ोस में रहने वाला कांस्टेबल दो दिन से अन्यमनस्क है, चुप सा है, अजीब सी खामोशी में लिप्त है, अनिद्रा का शिकार है। मुझे यह देखकर ताज्जुब हो रहा है कि उसे दो दिन की छुट्टी कैसे मिल गई, जबकि बाह्य तौर पर या कहें लाक्षणिक रूप से वह बीमार भी दिखाई नहीं दे रहा। वरना उसे एक-एक दिन की छुट्टी के लिए जयपुर मुख्यालय तक गुहार लगाते मैंने देखा है।
फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि नित्यप्रति सुबह पांच बजे उठकर दौड़ के लिए निकल जाने वाला, छह बजे अपने दोनों बच्चों को उठाकर दैनिक कार्यों से निवृत्त करा, छत पर उन्हें थोड़ी वर्जिश करा, फिर नहा-धुलाकर आठ बजे उनकी स्कूल वैन आने से पहले एक घंटे पढ़ाई भी करवा लेता। दोपहर को भागते-दौड़ते खाना खाने आता, तब भी जाते-जाते बच्चों को कुछ सबक याद करवा जाता। शाम को आता, तब भी मैं उसे बच्चों के साथ पढ़ाई में ही मशगूल देखता। मुझ जैसा घोर आलसी रोज यह देखकर हैरान रह जाता है कि नौ बजते-बजते उधर के पॉर्शन में बत्तियां गुल हो जाती हैं और एक सन्नाटा पसर जाता है। उसे तोड़ते खर्राटे ही सुनाई देते हैं, बस! यह दैनिक क्रिया पिछले चार माह से मैं अनवरत देख रहा हूं। यही वजह है कि सुबह वह परिवार इतना जल्दी उठ पाता है और हम साढ़े सात बजे उठकर थोड़ी शर्मिन्दगी, थोड़ी झेंप के साथ रोज शपथ ग्रहण करते हैं कि कल से हम भी कोशिश करेंगे, लेकिन जल्दी उठेंगे तो तब ना, जब रात 12 बजे सोने की आदत को बदलकर दस बजे बिस्तर पर आने का अभ्यास करेंगे।
खैर, उसकी खामोशी मुझे दो दिन से अखर रही थी। बच्चों से उसे बतियाते भी नहीं सुना। आज सुबह सच भी सामने आ गया। तीन रोज पहले आधी रात को बाइक सवार एक युवक का एक्सीडेंट हुआ। एक्सीडेंट भी ऐसा दर्दनाक कि एक युवा शरीर सडक़ से इस कदर चिपक गया कि घंटों की मशक्कत के बाद खुरचकर ही बोरी में भरा जा सका। उसे खुरचने वाला कोई और नहीं, मेरा पड़ोसी कांस्टेबल ही था। तब से वह सदमे में है। उसकी खोई-खोई सी आंखों में उस मंजर की भयावहता लहरा रही है! जब से यह जाना है, बड़ी बेचैनी है। एक मलाल भी है कि गाहे-बगाहे, हर कहीं वर्दी वाले को देखते ही ठुल्ला, बेईमान, संवेदनहीन, चोर जैसे मुफ्त के तमगे देने की जल्दी में रहने वाले हम लोग कभी सोचते हैं कि एक कांस्टेबल भी संवेदनशील हो सकता है और वह किन परिस्थितियों में काम करता है, छुट्टी शब्द जिसकी नौकरी में नहीं है, सारे पारिवारिक दायित्वों में लगभग उसकी अनुपस्थिति तय रहती है या भागमभाग में निपटाता है। ऊपर से विभाग से लेकर आम जन की गालियों की बारिश अलग! जो लोग, एक घायल को तत्काल अस्पताल पहुंचाने जितनी संवेदना भी नहीं दिखाते, उसके दस मिनट लेट आने को आराम से गरिया सकते हैं, कोस सकते हैं, भीड़ का हिस्सा बनकर पत्थरबाजी, गालीबाजी, ट्रेफिक जाम, नारेबाजी कुछ भी करने के लिए जैसे अधिकृत हैं। हर नौकरी में लेटलतीफी, बंक मारना, ऑफिस से नदारद रहना, मौजूद रहकर भी काम नहीं करना, छुट्टी मारकर साइन करना (आज तू, कल मैं की तर्ज पर) आराम से चलता है, लेकिन पुलिस में ऐसा मुमकिन नहीं, हर्गिज नहीं!
राजस्थान पत्रिका (जयपुर मुख्यालय) में 12 साल पुलिस बीट में काम कर चुका मेरा मित्र ओमप्रकाश शर्मा बार-बार यही कहता है कि 'अगर सिस्टम कहीं बचा हुआ है, तो सिर्फ पुलिस के कारण। बाकी सारे विभाग फेल हो चुके हैं। मैंने सारे विभागों की कार्यप्रणाली नजदीक से देखी है, लेकिन पुलिस की हर आवश्यक जगह मौजूदगी अनिवार्य है और वह वहां होती है। कहीं सडक़ टूटने, बिजली वालों, टेलीफोन वालों की मेहरबानी से सडक़ खुदने, फिर भरने के लिए पलटकर नहीं आने या रोड पर एक पशु के मारे जाने से जाम लग जाए, तो उसे खुलवाने, पशु उठवाने, गड्ढ़े भरवाने के लिए भी एक आम दिमाग में कोसने के लिए पहली छवि जो उभरती है, वह पुलिस की ही होती है। नगर निगम या सडक़ वाले महकमे के लोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।'
ओमप्रकाश के पास गिनाने के लिए एक लंबी फेहरिस्त है, उसे आप चाहकर भी नकार नहीं सकते।
मेरे उससे सहमत होने के पर्याप्त कारण हैं!

August 26, 2014

आमिर का 'ट्रांजिस्टर '

- सुरजीत सिंह
सर्पाकार सी लेटी हुई रेल पटरी है। नॉस्टेल्जिया सा ट्रांजिस्टर है। थोड़े पुराने, ज्यादा नए आमिर हैं। सद्यजात खान है। आधुनिक संस्कार सी देह है। कुल लब्बोलुआब यह कि पटरियों के बीचोंबीच आमिर खान नग्न खड़े हैं, सपाट, भाव शून्य, वस्त्रहीन! हाय! सारी शर्म-हया छोड़...तौबा, तौबा!! वे इंडिया की नजर में न्यूड हैं और भारत की दृष्टि में नंग-धड़ंग। वर्तमान के मुहाने पर खड़े बेशर्म भविष्य की तरह। बदन पर लज्जा वसन नहीं है। सो, लाज किसी तरह ट्रांजिस्टर से ढांपे हैं। कसी हुई नग्न देह बाजार की प्रत्यंचा पर चढ़ी हुई है और ट्रांजिस्टर जैसे लगभग शेष रह गए सांस्कृतिक अवशेष की तरह है, जो आधुनिकता की आंधी से अंतिम मुकाबला लड़ रहा है।
यह वह आत्मलीन दौर है, जिसमें अनावृत्ति, निवृत्ति, मुक्ति ही परफेक्शन की निशानी है। जिसको बाजार की सुनामी ने उघाड़ दिया, उसे दुनिया भर के मॉडर्न और अपार रेंज वाले वस्त्र भी क्या ढांपने की कूव्वत रखते होंगे? उलटबांसियों के इस युग में जो सघोष जितना वस्त्राच्छादित, उतना ही अनावृत्त! जी हां, यहां माल बिकता है! आमिर भी कुछ बेचने निकले हैं। वे स्वयं माल की तरह प्रस्तुत हैं। तसल्लीबख्श यह है कि आमिर के हाथ में ट्रांजिस्टर है। अगर हाथ में लोटा होता, तो वे सब पटरी वाले हाहाकारी चिंता में पड़े होते, जिनका सुबह-सुबह रेल की पटरियों पर लोटा चिंतन का जन्मसिद्ध अधिकार है। आमिर के ट्रांजिस्टर ने उन्हें दुविधा मुक्त कर दिया है। लेकिन आमिर की तरह ही अनुत्तरित सवाल यह खड़ा है कि आमिर यूं क्यूं खड़े हैं? उनकी दशा, दिशा क्या है? कहा जा रहा है आमिर 'पीके '  नग्न खड़े हैं। पिया हुआ बहकने को थोड़ा स्वतंत्र होता है। जबकि यहां तो अनपिये लोग, पूरे होशोहवाश वाले 'बहके ' हुए हैं, फु ल नंगई मचाने पर तुले हैं।
भरे बाजार नीलामी हेतु प्रस्तुत हैं:- कोई उनके सारे वस्त्र ले जाए। सारी लाज ले जाए। बचा-खुचा चरित्र ले जाए। ईमान ले जाए। संस्कार ले जाए। नैतिकता ले जाए। कायदों से शर्म-लिहाज ले जाए। पहचान ले जाए। पुरखों की कमाई इज्जत-आबरू ले जाए। बदले में ढेर सारी बदनामी दे जाए। बेईमानी दे जाए। अहा, वह ऊंचाइयां दे जाए, जो रातों-रात चमकता कंदील बना दे, कंगूरा बना दे, सेलिब्रिटी स्टेटस दे दें।
उचककर गौर से देखें तो आमिर के पीछे विराट भारत खड़ा है। नंग धड़ंग। पूर्णत: अनावृत्त। स्वत्व से निवृत्त। मूल से रहित। लालच की पटरी पर सवार। नेता चरित्र से। नई पीढ़ी संस्कारों से। परिवार परम्परा से। समाज मूल्यों से। राष्ट्र जड़ों से। राज नीति से। अफसर ईमान से। बाबू काम से। बाबा संतई से। हीरोइन वस्त्रों से। एक्टर एक्टिंग से। फिल्में कहानी से। साहित्य उद्देश्य से। कार्य कारण से। नदियां किनारों से। सागर तट से। मौसम मियाद से। हवाएं दिशा से। माटी महक से। एनआरआई वतन से। पुरुष पौरुष से। औरत हया से। युवा युवकोचित कर्म से। पढ़ाई सिद्धांत से। गुरु पढ़ाई से। शिक्षण गांभीर्य से। विश्वविद्यालय शोध से। प्रोफेसर अध्यापन से। खिलाड़ी खेल भावना से। सरकार दायित्वों से। संसद मर्यादा से। पुलिस संवेदना से। कानून पालना से। आंखें पानी से। शरीर आत्मा से। अंतस जमीर से। इच्छाएं संयम से। आदतें व्यवहार से। भाव पहुंच से। वस्तुएं क्रय शक्ति से। गरीब जिंदगी से। परवरिश पोषण से। उफ्, बड़ी लंबी फेहरिस्त है।

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- सुरजीत सिंह,
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