प्रधानमंत्री मुग्ध हो सकते हैं कि उन्होंने ओबामा को गणतंत्र दिवस पर आमंत्रित कर विरोधियों को एक ही झटके में निपटा दिया है। उनका आत्मविश्वास कहता है कि वे घाटी में 'कमल' खिलाकर विरोधियों को दूसरी बार फिर पीटेंगे। तो दूसरी ओर सरकार के मंत्री 'रामजादों' की परिभाषा तय करने में लगे हैं। कुछ को मरोड़ यह उठ रही है कि मोदी नाम के बढ़ते 'हुदहुद' को कैसे रोका जाए और भानुमति का कुनबा जोडऩे के लिए कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा एकत्र करने में लगे हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो प्रधानमंत्री के विदेश दौरे की प्रतीक्षा में अपने शब्दकोश में आलोचनाओं के नए मुहावरे गढ़ रहे हैं, तो उनकी चिंता यह है भी कि पूर्णकालिक विदेश मंत्री होते हुए भी पीएम खुद ही विदेश मंत्री के अवतार में क्यों नजर आते हैं। सबके अपने-अपने मुहावरे, एजेंडे और सीनाजोरी है। इससे किसी को क्या कि संसद ठप है, बहिष्कार है, काली पट्टियां, काली शॉल और बिना बारिश की आशंका के काले छाते तने हुए हैं। किसी की मराठी मानुष की अस्मिता 'कुर्सियों' की बलिवेदी पर ढेर हो रही है! कुल मिलाकरर सबकी अपने अस्तित्व की छद्म लड़ाइयां हैं, शह-मात के प्रपंच हैं। अपने-अपने आलाप की मुद्रा में लीन इन सबको क्योंकर खबर होगी कि मेरा एक मित्र शहीद हो गया है। सुदूर छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के घात लगाकर किए गए हमले में दर्जन से अधिक जवान गोलियों के शिकार हो गए, जो तकनीकी रूप से 'शहीद' कहलाते हैं।
उस सूची में एक नाम राजेश कपूरिया भी था। कल रात को यह खबर फेसबुक पर पढ़ी, तो सन्न रह गया। नाम सुनकर झटका सा लगा-राजेश कपूरिया! मैं उस राजेश को जानता हूं, जिससे एमए की पढ़ाई के लिए जयपुर पदार्पण पर प्रथम बार मिला था।
दिमाग में 16 साल पहले का वह दृश्य कौंध गया, जब मैं एक बैग और बिस्तर लेकर जयपुर-लुहारू पैसेंजर ट्रेन से उतरकर किसी का इंतजार कर रहा था। वहां पहले से ही जयपुर आकर अध्ययन कर रहा एक मित्र मुझे लेने आने वाला था। वादे के मुताबिक वह तय समय पर जंक्शन पर नहीं मिला, तो मेरी जान सूख रही थी। किससे पूछूं, किधर जाऊं? बार-बार जेब में पड़े मुड़े-तुड़े एड्रेस को पढक़र किसी से पता पूछने की कोशिश कर रहा था कि तभी किसी ने पीछे से धौल जमाई। मैंने हड़बड़ाकर पीछे देखा, तो मित्र को देख तसल्ली हुई। उसने साथ आए नौजवान से परिचय कराया- यह है राजेश कपूरिया! हम अस्थाई तौर पर दसेक दिन राजेश के आवास पर रुके, जो सम्भवत: उसके कश्मीर में तैनात फौजी पिता के नाम से अलॉट था। इस दौरान इतना जान पाया कि वह भी झुझुनूं के किसी गांव का रहने वाला है, कॉमर्स कॉलेज में पढ़ता है और मिलिट्री ज्वॉइन करने की ख्वाहिश रखता है, इसके लिए वह फिजिकल एक्सरसाइज से ज्यादा इंग्लिश से जूझ रहा है। दो बार सीएसडी की एग्जाम क्लियर कर इंटरव्यू दे चुका है और तीसरी बार भी आश्वस्त था। मैं अपने संकोची स्वभाव से बाहर निकल उससे याराना कायम करता, उससे पहले ही हमने अलग कमरा किराए पर ले लिया। उसके बाद यदा-कदा राजस्थान विश्वविद्यालय में वह नजर आया। खासतौर पर लाइब्रेरी में। जब भी बात हुई, इंग्लिश से शुरू होकर इंग्लिश पर ही खत्म हुई। वह तो इस निष्कर्ष पर भी पहुंच चुका था कि शेखावाटी के आदमी को बाहर निकलने पर दो चीजें सबसे ज्यादा परेशान करती हैं, एक तो लहजा, दुसरी इंग्लिश!
रात के 12 बज रहे थे और मेरे जहन में एक ही नाम तैर रहा था-राजेश कपूरिया! छोड़ो यार, नाम तो कितनों के ही एक जैसे हो सकते हैं-मन ने समझाया! लेकिन झुझुनूं दिल धडक़ा रहा था। उसकी तिरंगे में लिपटी तस्वीर को लैपटॉप में डाउनलोड कर कई एंगल से देखा, लेकिन उलझन बरकरार थी। फिर वह तो शांत लेटा था, दीन-दुनिया से बेखबर, जैसे बरसों बाद ढंग की नींद आई हो, न क्लांत, न श्रांत! मन ने किया, इसे ही जगाकर पूछ लूं कि क्या तुम वही राजेश हो, इतने दिन कहां गायब थे दोस्त? क्या इसलिए कि एक दिन अचानक आधी को इस रूप में सामने आकर उलझन में डाल दोगे? गूगल पर सर्च किया, तो भी कोई अन्य तस्वीर नहीं मिली। (जरूरी तो नहीं, गूगल हमारी हर शंका का समाधान करे ही।)
मन में तरह-तरह के खयाल उभर रहे थे। न्यूज में फौजी पिता का उल्लेख भी था। दिमाग ऐसी कई साम्यताओं के आधार पर नतीजे पर पहुंच रहा था कि यह वही राजेश है। लेकिन मन प्रतिकार कर रहा था, तेल रीते दीए की आखिरी लौ की तरह। बेचैनी का आलम यह था कि न आंखों में नींद थी, न तसल्ली! उद्विग्नता इतनी कि बस, बिना जाने यह रात न बीतेगी, न सुबह होगी! लेकिन आधी रात को किसे जगाकर पूछूं? तब के कोई दोस्त भी तो सम्पर्क में नहीं। रात इस उधेड़बुन में बीत गई। रातें बीत जाती हैं, वे सिर्फ आपके हिस्से की कहानी छोड़ जाती हैं। सुबह उठते ही झुझुनूं में दर्जनों परिचितों को फोन करने के पश्चात एक ऐसे मित्र के नम्बर मिले, जो विश्वविद्यालय में एकाधिक बार राजेश के साथ नजर आया था। फोन मिलते ही 'कुण-शुण' के बाद जब मैंने अपना परिचय देते हुए धडक़ते दिल से कहा कि मैंने कल कोई बुरी खबर पढ़ी है, तो उसके जवाब ने मुझे बिना पैराशूट ही आकाश से धक्का दे दिया- वो ई है सागी ही...राजेश शहीद हो गया!
मेरे पास तुम्हारी ज्यादा स्मृतियां नहीं हैं राजेश; एक बार छूटे, तो फिर कभी मिले भी नहीं। जिंदगी की जद्दोजहद में इतने आगे निकल आए कि कभी पीछे मुडक़र हमने 'छूटे' को टटोलने की कोशिश भी नहीं की। आज जब तुम्हारी खबर भी आई, तो इस रूप में! अब भी विश्वास नहीं हो रहा। कोई खबर को झुठला दे। मिलिट्री ज्वॉइन करने का जुनून, इंग्लिश में बेहद कमजोर होने के बावजूद उस पर फतह और सीआरपीएफ में असिस्टेंट कमांडेंट के रूप में सेवाएं देते हुए शहादत को प्राप्त हो जाना! कुल इतनी सी कहानी लगती है, लेकिन तुम बहुत कुछ कर गए हो। तुम मर कर भी 'जी' गए हो! मरे हुए तो वे हैं, जिनके पास इन अंतहीन लड़ाइयों के हल नहीं, करुण गाथाओं के उपसंहार नहीं।
सरकारों के पास पैकेज हैं, मेरे पास श्रद्धा के दो फूल हैं। मित्र, इन्हें स्वीकार करना!
तुम्हारे हिस्से का तुम कर चुके, हमारे हिस्से यही है!
पुनश्च: शेखावाटी में परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी सैनिक होने की गौरवशाली परम्परा है। संयोग से पिता बच गए थे, दुर्भाग्य से बेटे नहीं बच सके या पौते!
(तस्वीर साभार- PilaniNews Pilani)
उस सूची में एक नाम राजेश कपूरिया भी था। कल रात को यह खबर फेसबुक पर पढ़ी, तो सन्न रह गया। नाम सुनकर झटका सा लगा-राजेश कपूरिया! मैं उस राजेश को जानता हूं, जिससे एमए की पढ़ाई के लिए जयपुर पदार्पण पर प्रथम बार मिला था।
दिमाग में 16 साल पहले का वह दृश्य कौंध गया, जब मैं एक बैग और बिस्तर लेकर जयपुर-लुहारू पैसेंजर ट्रेन से उतरकर किसी का इंतजार कर रहा था। वहां पहले से ही जयपुर आकर अध्ययन कर रहा एक मित्र मुझे लेने आने वाला था। वादे के मुताबिक वह तय समय पर जंक्शन पर नहीं मिला, तो मेरी जान सूख रही थी। किससे पूछूं, किधर जाऊं? बार-बार जेब में पड़े मुड़े-तुड़े एड्रेस को पढक़र किसी से पता पूछने की कोशिश कर रहा था कि तभी किसी ने पीछे से धौल जमाई। मैंने हड़बड़ाकर पीछे देखा, तो मित्र को देख तसल्ली हुई। उसने साथ आए नौजवान से परिचय कराया- यह है राजेश कपूरिया! हम अस्थाई तौर पर दसेक दिन राजेश के आवास पर रुके, जो सम्भवत: उसके कश्मीर में तैनात फौजी पिता के नाम से अलॉट था। इस दौरान इतना जान पाया कि वह भी झुझुनूं के किसी गांव का रहने वाला है, कॉमर्स कॉलेज में पढ़ता है और मिलिट्री ज्वॉइन करने की ख्वाहिश रखता है, इसके लिए वह फिजिकल एक्सरसाइज से ज्यादा इंग्लिश से जूझ रहा है। दो बार सीएसडी की एग्जाम क्लियर कर इंटरव्यू दे चुका है और तीसरी बार भी आश्वस्त था। मैं अपने संकोची स्वभाव से बाहर निकल उससे याराना कायम करता, उससे पहले ही हमने अलग कमरा किराए पर ले लिया। उसके बाद यदा-कदा राजस्थान विश्वविद्यालय में वह नजर आया। खासतौर पर लाइब्रेरी में। जब भी बात हुई, इंग्लिश से शुरू होकर इंग्लिश पर ही खत्म हुई। वह तो इस निष्कर्ष पर भी पहुंच चुका था कि शेखावाटी के आदमी को बाहर निकलने पर दो चीजें सबसे ज्यादा परेशान करती हैं, एक तो लहजा, दुसरी इंग्लिश!
रात के 12 बज रहे थे और मेरे जहन में एक ही नाम तैर रहा था-राजेश कपूरिया! छोड़ो यार, नाम तो कितनों के ही एक जैसे हो सकते हैं-मन ने समझाया! लेकिन झुझुनूं दिल धडक़ा रहा था। उसकी तिरंगे में लिपटी तस्वीर को लैपटॉप में डाउनलोड कर कई एंगल से देखा, लेकिन उलझन बरकरार थी। फिर वह तो शांत लेटा था, दीन-दुनिया से बेखबर, जैसे बरसों बाद ढंग की नींद आई हो, न क्लांत, न श्रांत! मन ने किया, इसे ही जगाकर पूछ लूं कि क्या तुम वही राजेश हो, इतने दिन कहां गायब थे दोस्त? क्या इसलिए कि एक दिन अचानक आधी को इस रूप में सामने आकर उलझन में डाल दोगे? गूगल पर सर्च किया, तो भी कोई अन्य तस्वीर नहीं मिली। (जरूरी तो नहीं, गूगल हमारी हर शंका का समाधान करे ही।)
मन में तरह-तरह के खयाल उभर रहे थे। न्यूज में फौजी पिता का उल्लेख भी था। दिमाग ऐसी कई साम्यताओं के आधार पर नतीजे पर पहुंच रहा था कि यह वही राजेश है। लेकिन मन प्रतिकार कर रहा था, तेल रीते दीए की आखिरी लौ की तरह। बेचैनी का आलम यह था कि न आंखों में नींद थी, न तसल्ली! उद्विग्नता इतनी कि बस, बिना जाने यह रात न बीतेगी, न सुबह होगी! लेकिन आधी रात को किसे जगाकर पूछूं? तब के कोई दोस्त भी तो सम्पर्क में नहीं। रात इस उधेड़बुन में बीत गई। रातें बीत जाती हैं, वे सिर्फ आपके हिस्से की कहानी छोड़ जाती हैं। सुबह उठते ही झुझुनूं में दर्जनों परिचितों को फोन करने के पश्चात एक ऐसे मित्र के नम्बर मिले, जो विश्वविद्यालय में एकाधिक बार राजेश के साथ नजर आया था। फोन मिलते ही 'कुण-शुण' के बाद जब मैंने अपना परिचय देते हुए धडक़ते दिल से कहा कि मैंने कल कोई बुरी खबर पढ़ी है, तो उसके जवाब ने मुझे बिना पैराशूट ही आकाश से धक्का दे दिया- वो ई है सागी ही...राजेश शहीद हो गया!
मेरे पास तुम्हारी ज्यादा स्मृतियां नहीं हैं राजेश; एक बार छूटे, तो फिर कभी मिले भी नहीं। जिंदगी की जद्दोजहद में इतने आगे निकल आए कि कभी पीछे मुडक़र हमने 'छूटे' को टटोलने की कोशिश भी नहीं की। आज जब तुम्हारी खबर भी आई, तो इस रूप में! अब भी विश्वास नहीं हो रहा। कोई खबर को झुठला दे। मिलिट्री ज्वॉइन करने का जुनून, इंग्लिश में बेहद कमजोर होने के बावजूद उस पर फतह और सीआरपीएफ में असिस्टेंट कमांडेंट के रूप में सेवाएं देते हुए शहादत को प्राप्त हो जाना! कुल इतनी सी कहानी लगती है, लेकिन तुम बहुत कुछ कर गए हो। तुम मर कर भी 'जी' गए हो! मरे हुए तो वे हैं, जिनके पास इन अंतहीन लड़ाइयों के हल नहीं, करुण गाथाओं के उपसंहार नहीं।
सरकारों के पास पैकेज हैं, मेरे पास श्रद्धा के दो फूल हैं। मित्र, इन्हें स्वीकार करना!
तुम्हारे हिस्से का तुम कर चुके, हमारे हिस्से यही है!
पुनश्च: शेखावाटी में परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी सैनिक होने की गौरवशाली परम्परा है। संयोग से पिता बच गए थे, दुर्भाग्य से बेटे नहीं बच सके या पौते!
(तस्वीर साभार- PilaniNews Pilani)
1 comment:
तुमने अंतर को कुरेद दिया मित्र।
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