इस देश में मानसून का आना खुशियों का प्रतीक माना जाता है। इस दफा ये खुशियां ज्यादा देर तक कायम न रह सकें, शायद। आसमान से टप-टप पानी गिरेगा, लेकिन ज्यादा शोर भाषणों का होगा। रिमझिम बारिश के साथ सुनियोजित ढंग से तैयार किए गए स्वर झरेंगे। मेंढकों की जगह अजीब किस्म की टर्राहट सुनाई देगी। और लगभग शुरू भी हो चुकी है। या फिर फाइनल रिहर्सल जारी है। एक जोरदार स्क्रिप्ट लिखी जा रही है- फाइनल टच इस कामना के साथ कि एक-एक डायलॉग पर जनमानस दे ताली। यानी चुनावी प्रहसन के पट खुलने में अब देर नहीं है। कुल मिलाकर यह धैर्य धारण करने का वक्त है। रग-रग में शक्ति बटोरने पर्व है। यह हर्षाने का नहीं, मुर्झाने का वक्त है।
इसके बाद दर्शकों के हाथ में यानी वोटर्स के पास कोई चारा नहीं रह जाएगा। सिवाय इसके कि वह लोकतन्त्र के हवाले से एक और बेवकूफी कर डाले और जाति, धर्म, क्षेत्र के नाम पर बरगलाया जाकर सहर्ष खुदकुशी कर ले। सुसाइड नोट के नाम पर ईवीएम पर एक खास जगह अंगुली धर दे। अगले चुनाव तक उसके हाथ में यह बचा रहेगा कि रोज सुबह हड़बड़ाकर उठे, हाथ मले, जबड़ा कसे और मुट्ठियां भींचे। इस एक्सरसाइज के साथ वह नित्य फ्रेश हो सकता है।
लेकिन टर्राने वालों को कहां फिक्र है इस सबकी। उनकी आंखों में छलिया जैसी चाहत दिखने लगी है। उनकी आंखों में महंगाई की रफ्तार के बावजूद कहीं भी शर्मसार होने के चिन्ह नहीं दिखते। शर्मसार हों भी कैसें? गरीबों के नाम पर गरीब रथ चलाकर कोई कैसे शर्मिंदा हो सकता है। शर्म वे करें, जो उनकी सदाशयता पर अंगुली उठाते हैं, और डूब मरें। उनका आग्रह यह है कि किसानों की कर्जमाफी को चुनावी घोषणा पत्र समझा जाए और महंगाई को भूल के कूड़ेदान में डाल दें। सुबह-सुबह बढ़ती मुद्रास्फीति की खबर पर चाय का स्वाद कसैला न करे, बल्कि यह देखें कि सरकार में शामिल दल साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ किस हद तक एकजुटता से डटे हुए हैं। अब वे करार पर रार इस बिना पर ठान सकते हैं कि उनको नया साथी मिलने का गणित कथित देशहित के फॉर्मूले पर भारी है। यह चुनाव की वेला में, सत्ता के गलियारों में फिर से फूल खिलाने की उम्मीद को लेकर ज्यादा अपीलिंग मैटर है।
एक दल इसलिए खुद की पीठ ठोक-ठोक मजबूती अनुभव कर रहा है कि उसके तरकश में एक साल से प्रधानमंत्री नामक तीर बेकार पड़ा है और बेध सकने लायक कुर्सी खाली नहीं कर रहा कोई। जो उस पर धंस, देश को पांच साल स्वास्थ्य की कामना करते रहने का अवसर दे सकता है। हो सकता है बाकी कुर्सियों पर भी फिट हो सकने लायक जीवों के नाम भी तय हों। इनके घोषणा पत्र में भी परेशान हाल आदमी के लिए कोई नया मंत्र नहीं है। इनके पास प्रत्याशी तय हैं और बस, इसे ही घोषणा पत्र का प्रारूप समझ एक अदद दाद दे दें।
कुल मिलाकर सरकार मृत्यु शैय्या पर है और आम आदमी कीलों की शैय्या पर लेटा अनुभव कर रहा है। अब तो उसके पास मर्सिया गाने की ताकत भी शेष नहीं। देश में उदासी का आलम है, राजनीतिक दलों के आंगन को छोड़कर जहां, प्रत्याशी तय कर लेने की बेशर्म हंसी तैर रही है।
June 30, 2008
June 28, 2008
ट्रेन टु विलेज-२
(मेरी गांव यात्रा)
परसों गांव जाने के अपने अनुभव शेयर कर रहा था। कुछ ब्लॉगर साथियों ने टिप्पणियां भेजीं। लगा, सफलता की कहानी कहीं भी गढ़ ली जाए भले, स्मृतियों से गांव कभी छूट नहीं सकता। शहरों में आकर रच-बस गए लोगों की शिराओं में आज भी गांव खून बनकर दौड़ते हैं। हो सकता है हमें इस बात की खबर ही न हो कि हमारी यादों में वही गांव आबाद है, जिसे कभी अलविदा कह आए थे। हमारे साथ-साथ पलते-बढ़ते हैं। इतना जरूर है कि उन स्मृतियों पर शहरी चकाचौंध की गर्त छा गई है। व्यस्तता का बहाना है। समय नहीं मिल पाने के बहुतेरे किस्से-कहानी जुबानी हैं। गांव उन लोगों की आज भी राह तकते हैं, जो सफल पुरुष तो बने, लेकिन लौटकर नहीं गए। जबकि वे वादा करके आए थे। कसमें खाईं थीं। पढ़ाई के लिए या कमाने-धमाने के लिए गांव छोड़ते वक्त, बड़े-बुजुर्गों से, माता-पिता से, युवा साथियों से, खेत-खलिहानों से, गलियों से, सौंधी मिट्टी से, ढोर-ढंगर से एक अलिखित वादा किया था। कितनी ही नेमतों की गठरी बांध विदाई ली थी। कहा था-कुछकर बनकर लौटेंगे। अपनों के बीच, चौपाल पर बैठकर, बड़े-बुजुर्गों के हुक्के की गुड़गुड़ाहट के बीच सफलता की स्वाद भरी कहानी सुनाएंगे। ...लेकिन अफसोस। ऐसा हो न सका। आज हालत यह है कि हमने ही गांवों पर पिछड़ेपन का टैग चिपका दिया है और अब अपने बच्चों को गांव ले जाने से इसलिए कतराते हैं कि कहीं वे गांव के बच्चों के संग घुल-मिल न जाएं। या उनकी परीक्षाएं डिस्टर्ब हो सकती हैं। कुछ गंदी आदतें न सीख लें। मिट्टी में न सन जाएं?
लेकिन क्या मिट्टी पराई हो सकती है? मैं पन्द्रह रोज पहले गांव पहुंचा, तो मुझे उसी मिट्टी से किया वादा याद आ गया। इस बार मुझमें गांव को लेकर जरूरत से ज्यादा अकुलाहट थी, एक बेचैनी थी। टूटकर बिखर जाने की जिद सी आकार ले रही थी। इसके कारण तो खैर, शहर में जन्मी कुंठाओं से उपजे थे। कैमरा साथ ले गया था, एक-एक क्षण को अविस्मरणीय बनाने को। मैं बरसों बाद जीना चाहता था। भरपूर जीने की चाहत दिल में बसाए ही इस यात्रा की शुरुआत की थी। अपनी मिट्टी में पहुंचते ही मैं बचपन में लौट चुका था। मेरा वर्तमान कहीं नहीं था। बस, मैं और मेरा गांव था। मैंने वो सारी गलियां नापी। सारे संगी-साथियों से मिला। खेतों की डगर चला। पगडंडियों पर घूमा। पेड़-पौधे देखे। कुछ पेड़ और घने, छायादार बन चुके थे। पौधों में भी रवानी थी, अपनी जवानी पर इतरा रहे थे। घर में दसेक अनार के पौधे लगे हैं। इतने छोटे पौधे और अनार से लदे-फदे। देखकर सुखद अनुभूति हुई। अमरूद भी सैकड़ों की संख्या में लगे थे। बोझ के मारे टहनियां धरती को छू रही थी। अहा, इतनी विनम्रता, सदाशयता यदि इन्सान में आ जाए तो क्या कुछ हो सकता है, यह अकल्पनीय है।
मैंने पेड़-पौधों के संग खूब फोटो खिंचवाई। वे भी खूब मन से लिपटे। झूम-झूमकर स्वागत-सत्कार कर रहे थे। स्कूली पढ़ाई के दिनों में अपनी भैंस का दूध मैं ही निकाला करता था। सो, इस बार भी बाल्टी लेकर बैठा दूध निकालने। लेकिन भैंस ने अजीब नजरों से देखा और फिर दूर जा खड़ी हुई। उसे मैं अपरिचित लगा। यह चाह पूरी नहीं कर पाया। दस साल में पहली बार मुझे इस तरह की हरकतें करते देख मम्मी-पिताजी खूब हंसते रहे। उस हंसी से मैं जितना आल्हादित हुआ, बयां करना मुश्किल है।
गांव की रातें शीतल होती हैं। छत पर सोने का आनन्द निराला ही है। रात को जिन्दगी से भरी मंद-मंद बयार बहती है। तनाव से अकड़ी सारी नसें खुल जाती हैं। शहर में दो पल लॉन में बैठ जाओ, तो मच्छर धावा बोल देते हैं। शहर में शाम सुहानी नहीं आती, मच्छर भगाने की दुश्चिंताएं लेकर आती है। और वहां निर्मल सी हवा तैर रही थी। मैं उसे फेफड़ों में इस हद तक भर लेने को आतुर था कि पता नहीं फिर ऐसा मौका मिले या नहीं। वहां एक भी मच्छर नहीं था। ताजगी भरा वातावरण था। शहर में सात घण्टे सोकर भी सुबह जल्दी उठने का मन नहीं करता। वहां देर से सोकर भी प्रातःकाल जल्दी आंख खुल जातीं। कभी थकान महसूस नहीं हुई। कभी लगा ही नहीं कि किसी पार्क में जाकर टहलने की जरूरत है। या तनाव मुक्त करने के लिए किसी हास्य क्लब में जाकर क्षण भर के लिए हा-हा-हा करने की आवश्यकता है। शहर में हमने जिन्दगी से हंसी को निकाल दिया है। वहां तो हंसी स्वयंमेव चेहरों पर तैरती है। इस नैसर्गिक आनन्द को में कभी भुला नहीं सकता।
दोस्तों, मैं यह सब इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैंने कोई नया काम कर डाला है या गांव कोई दुर्लभ चीज है। मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि जहां हमारी आत्मा रचती-बसती है, उस जगह के प्रति हम दिल से आभारी बनें। और यदि दिल लगाया जाए तो कोई गोवा, कोई देहरादून, कोई शिमला, कोई काठमांडू या मलेशिया, मॉरिशस वह आनन्द नहीं दे सकते, जो गांव दे सकते हैं। आज घूमने का अर्थ किसी पिकनिक स्पॉट या विदेश भ्रमण हो गया है। ऐसे में हमें कहने की जरूरत है- आओ गांव चलें। हो सके तो प्लीज, गांव को जिन्दगी से मत निकालिए।
परसों गांव जाने के अपने अनुभव शेयर कर रहा था। कुछ ब्लॉगर साथियों ने टिप्पणियां भेजीं। लगा, सफलता की कहानी कहीं भी गढ़ ली जाए भले, स्मृतियों से गांव कभी छूट नहीं सकता। शहरों में आकर रच-बस गए लोगों की शिराओं में आज भी गांव खून बनकर दौड़ते हैं। हो सकता है हमें इस बात की खबर ही न हो कि हमारी यादों में वही गांव आबाद है, जिसे कभी अलविदा कह आए थे। हमारे साथ-साथ पलते-बढ़ते हैं। इतना जरूर है कि उन स्मृतियों पर शहरी चकाचौंध की गर्त छा गई है। व्यस्तता का बहाना है। समय नहीं मिल पाने के बहुतेरे किस्से-कहानी जुबानी हैं। गांव उन लोगों की आज भी राह तकते हैं, जो सफल पुरुष तो बने, लेकिन लौटकर नहीं गए। जबकि वे वादा करके आए थे। कसमें खाईं थीं। पढ़ाई के लिए या कमाने-धमाने के लिए गांव छोड़ते वक्त, बड़े-बुजुर्गों से, माता-पिता से, युवा साथियों से, खेत-खलिहानों से, गलियों से, सौंधी मिट्टी से, ढोर-ढंगर से एक अलिखित वादा किया था। कितनी ही नेमतों की गठरी बांध विदाई ली थी। कहा था-कुछकर बनकर लौटेंगे। अपनों के बीच, चौपाल पर बैठकर, बड़े-बुजुर्गों के हुक्के की गुड़गुड़ाहट के बीच सफलता की स्वाद भरी कहानी सुनाएंगे। ...लेकिन अफसोस। ऐसा हो न सका। आज हालत यह है कि हमने ही गांवों पर पिछड़ेपन का टैग चिपका दिया है और अब अपने बच्चों को गांव ले जाने से इसलिए कतराते हैं कि कहीं वे गांव के बच्चों के संग घुल-मिल न जाएं। या उनकी परीक्षाएं डिस्टर्ब हो सकती हैं। कुछ गंदी आदतें न सीख लें। मिट्टी में न सन जाएं?
लेकिन क्या मिट्टी पराई हो सकती है? मैं पन्द्रह रोज पहले गांव पहुंचा, तो मुझे उसी मिट्टी से किया वादा याद आ गया। इस बार मुझमें गांव को लेकर जरूरत से ज्यादा अकुलाहट थी, एक बेचैनी थी। टूटकर बिखर जाने की जिद सी आकार ले रही थी। इसके कारण तो खैर, शहर में जन्मी कुंठाओं से उपजे थे। कैमरा साथ ले गया था, एक-एक क्षण को अविस्मरणीय बनाने को। मैं बरसों बाद जीना चाहता था। भरपूर जीने की चाहत दिल में बसाए ही इस यात्रा की शुरुआत की थी। अपनी मिट्टी में पहुंचते ही मैं बचपन में लौट चुका था। मेरा वर्तमान कहीं नहीं था। बस, मैं और मेरा गांव था। मैंने वो सारी गलियां नापी। सारे संगी-साथियों से मिला। खेतों की डगर चला। पगडंडियों पर घूमा। पेड़-पौधे देखे। कुछ पेड़ और घने, छायादार बन चुके थे। पौधों में भी रवानी थी, अपनी जवानी पर इतरा रहे थे। घर में दसेक अनार के पौधे लगे हैं। इतने छोटे पौधे और अनार से लदे-फदे। देखकर सुखद अनुभूति हुई। अमरूद भी सैकड़ों की संख्या में लगे थे। बोझ के मारे टहनियां धरती को छू रही थी। अहा, इतनी विनम्रता, सदाशयता यदि इन्सान में आ जाए तो क्या कुछ हो सकता है, यह अकल्पनीय है।
मैंने पेड़-पौधों के संग खूब फोटो खिंचवाई। वे भी खूब मन से लिपटे। झूम-झूमकर स्वागत-सत्कार कर रहे थे। स्कूली पढ़ाई के दिनों में अपनी भैंस का दूध मैं ही निकाला करता था। सो, इस बार भी बाल्टी लेकर बैठा दूध निकालने। लेकिन भैंस ने अजीब नजरों से देखा और फिर दूर जा खड़ी हुई। उसे मैं अपरिचित लगा। यह चाह पूरी नहीं कर पाया। दस साल में पहली बार मुझे इस तरह की हरकतें करते देख मम्मी-पिताजी खूब हंसते रहे। उस हंसी से मैं जितना आल्हादित हुआ, बयां करना मुश्किल है।
गांव की रातें शीतल होती हैं। छत पर सोने का आनन्द निराला ही है। रात को जिन्दगी से भरी मंद-मंद बयार बहती है। तनाव से अकड़ी सारी नसें खुल जाती हैं। शहर में दो पल लॉन में बैठ जाओ, तो मच्छर धावा बोल देते हैं। शहर में शाम सुहानी नहीं आती, मच्छर भगाने की दुश्चिंताएं लेकर आती है। और वहां निर्मल सी हवा तैर रही थी। मैं उसे फेफड़ों में इस हद तक भर लेने को आतुर था कि पता नहीं फिर ऐसा मौका मिले या नहीं। वहां एक भी मच्छर नहीं था। ताजगी भरा वातावरण था। शहर में सात घण्टे सोकर भी सुबह जल्दी उठने का मन नहीं करता। वहां देर से सोकर भी प्रातःकाल जल्दी आंख खुल जातीं। कभी थकान महसूस नहीं हुई। कभी लगा ही नहीं कि किसी पार्क में जाकर टहलने की जरूरत है। या तनाव मुक्त करने के लिए किसी हास्य क्लब में जाकर क्षण भर के लिए हा-हा-हा करने की आवश्यकता है। शहर में हमने जिन्दगी से हंसी को निकाल दिया है। वहां तो हंसी स्वयंमेव चेहरों पर तैरती है। इस नैसर्गिक आनन्द को में कभी भुला नहीं सकता।
दोस्तों, मैं यह सब इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैंने कोई नया काम कर डाला है या गांव कोई दुर्लभ चीज है। मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि जहां हमारी आत्मा रचती-बसती है, उस जगह के प्रति हम दिल से आभारी बनें। और यदि दिल लगाया जाए तो कोई गोवा, कोई देहरादून, कोई शिमला, कोई काठमांडू या मलेशिया, मॉरिशस वह आनन्द नहीं दे सकते, जो गांव दे सकते हैं। आज घूमने का अर्थ किसी पिकनिक स्पॉट या विदेश भ्रमण हो गया है। ऐसे में हमें कहने की जरूरत है- आओ गांव चलें। हो सके तो प्लीज, गांव को जिन्दगी से मत निकालिए।
June 26, 2008
ट्रेन टु गांव
(मेरी गांव यात्रा)
शहर में मन ऊब चला, तो गांव चला गया। सोचा, चलो फ्रेश हो लेंगे। (कभी-कभी गांवों की यही उपयोगिता महसूस होती है। क्योंकि गांवों में भी अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। लेकिन गांव फिर भी गांव हैं।) खैर, दस दिन गांव रह कर लौट आया हूं। सात दिन हो गए शहर आए। अभी तक गांव की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाया हूं। मन वहीं किसी खेत में छूट गया है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है। वर्ना होता यह था कि शहर से ऊबकर गांव जाता और फिर जल्द ही वहां से ऊब शहर का रुख कर लेता। लेकिन इस बार वैसा नहीं था। पहले से ही तय था कि इस बार गांव को भरपूर जीना है। उन गलियों की यादें ताजा करनी हैं, जहां हम बचपन में खेले-कूदे। उन खेतों की, मैदानों की, गली-कूचों की तस्वीर को एक बार पुनः ताजा करना है। उन किशोरों-युवाओं से खूब घुलना-मिलना है, जो तब कमीज की बांह से नाक पौंछते थे। मतलब यह कि पूरी तरह बचपन में लौट जाऊंगा। भूल जाऊंगा कि मैं वर्तमान में क्या हूं, कहां हूं, क्या कर रहा हूं। इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं-सपनों की गठरी को उतार परे धर दूंगा। बोझमुक्त हो इतना हल्का, इतना हल्का हो जाऊंगा कि मौजूदा मैं से एकदम बाहर निकल जाऊंगा। मैंने शुरूआत लोकल ट्रेन से की। बस से चार घण्टे में त्वरित पहुंचने की बजाय ट्रेन में छह घण्टे का सफर ज्यादा मजेदार लगा। इधर धीमे-धीमे ट्रेन चली। मैंने खुशवंत सिहं की ट्रेन टु पाकिस्तान निकाली। सफर में पढ़ने का इरादा इतना ज्यादा हावी था कि शरद जोशी की दिन प्रतिदिन और कमलेश्वर की कितने पाकिस्तान भी साथ थी। और रास्ते में १०० पेज पढ़ भी डाले। (बचे हुए पेज शहर में आने के बाद आज तक शुरू नहीं हो पाए हैं)। साथ ही इतना चौकन्ना भी रहा कि पैसेंजर ट्रेन में सफर का कोई आनंदित करने वाला क्षण चूक न जाए। ट्रेन के साथ दौड़ते पेड़-पौधे, शहर-गांव सबको भरपूर मन, सजग निगाहों से देखता रहा। बचपन में देखी-पहचानी चीजों को देखता तो मन खुशी से उछलने लगता। बस, यह मलाल रहा कि अकेला होने की वजह से यह खुशी समूचे रास्ते अव्यक्त सी रही। पर मैं इस खुशी को अन्तस में इतना भर लेने को उत्कंठित था कि शहर में मिले सारे तनाव, परेशानियां कुछ समय के लिए सही, गायब हो जाएं। ट्रेन में फेरिवाले से खरीदकर नमकीन खाई। पलसाना की स्टेशन पर आइस्क्रीम का लुत्फ उठाया। चौमू की स्टेशन पर सूखे बेर खाए। सीकर में पेठे, तो झुझुनूं स्टेशन पर उतरकर बाहर आते ही दो पेड़े खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर सका। उस स्वाद के प्रति इस आग्रह को देखकर महानगर से ईर्ष्या सी हो उठी, जहां अपने ही भीतर को मारने पर तुले हैं। स्वाद भीतर ही है, बस मौजूदा जिन्दगी की रफ्तार, काम, जबरियां इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं ने उस नैसर्गिक स्वाद को कसैला बना दिया है। अन्तःकरण का स्वतः स्फूर्त अनुभूतियों का सोता सूख सा गया है। हम महसूस करने की शक्ति खो बैठे हैं।
अब प्राथमिकताओं में आगरे के पेठे का स्वाद या चौमू का झड़बेर नहीं आता। न ट्रेन की सख्त बेंच पर बैठे-बैठे खाई जाने वाली आइस्क्रीम है। अब फ्लेवर्ड आइस्क्रीम का आग्रह है, क्योंकि जहां हम बैठे हैं वहां और लोग भी ऑर्डर कर रहे हैं। पड़ौसी के बच्चों को इतने फ्लेवर याद हैं कि सुनकर हम घबरा उठते हैं। शहर में पन्द्रह किलोमीटर पावभाजी खाने इसलिए चले जाते हैं कि अमुक पावभाजी वाला मक्खन ज्यादा लगाता है या पड़ौसी भी वहां जाते हैं। जरा कल्पना कीजिए, क्या रोटियों में मां के हाथ से डले उस मक्खन के स्वाद का दुनिया की कोई भी पावभाजी या पित्जा-बर्गर मुकाबला कर पाएंगे। खैर। समूचे रास्ते, छह घण्टे आनन्द से भरता रहा। काश, यह सफर रोज यूं जारी रह सके। लग रहा था जैसे बचपन की फिल्म रिवर्स चल रही है।
शहर में मन ऊब चला, तो गांव चला गया। सोचा, चलो फ्रेश हो लेंगे। (कभी-कभी गांवों की यही उपयोगिता महसूस होती है। क्योंकि गांवों में भी अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। लेकिन गांव फिर भी गांव हैं।) खैर, दस दिन गांव रह कर लौट आया हूं। सात दिन हो गए शहर आए। अभी तक गांव की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाया हूं। मन वहीं किसी खेत में छूट गया है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है। वर्ना होता यह था कि शहर से ऊबकर गांव जाता और फिर जल्द ही वहां से ऊब शहर का रुख कर लेता। लेकिन इस बार वैसा नहीं था। पहले से ही तय था कि इस बार गांव को भरपूर जीना है। उन गलियों की यादें ताजा करनी हैं, जहां हम बचपन में खेले-कूदे। उन खेतों की, मैदानों की, गली-कूचों की तस्वीर को एक बार पुनः ताजा करना है। उन किशोरों-युवाओं से खूब घुलना-मिलना है, जो तब कमीज की बांह से नाक पौंछते थे। मतलब यह कि पूरी तरह बचपन में लौट जाऊंगा। भूल जाऊंगा कि मैं वर्तमान में क्या हूं, कहां हूं, क्या कर रहा हूं। इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं-सपनों की गठरी को उतार परे धर दूंगा। बोझमुक्त हो इतना हल्का, इतना हल्का हो जाऊंगा कि मौजूदा मैं से एकदम बाहर निकल जाऊंगा। मैंने शुरूआत लोकल ट्रेन से की। बस से चार घण्टे में त्वरित पहुंचने की बजाय ट्रेन में छह घण्टे का सफर ज्यादा मजेदार लगा। इधर धीमे-धीमे ट्रेन चली। मैंने खुशवंत सिहं की ट्रेन टु पाकिस्तान निकाली। सफर में पढ़ने का इरादा इतना ज्यादा हावी था कि शरद जोशी की दिन प्रतिदिन और कमलेश्वर की कितने पाकिस्तान भी साथ थी। और रास्ते में १०० पेज पढ़ भी डाले। (बचे हुए पेज शहर में आने के बाद आज तक शुरू नहीं हो पाए हैं)। साथ ही इतना चौकन्ना भी रहा कि पैसेंजर ट्रेन में सफर का कोई आनंदित करने वाला क्षण चूक न जाए। ट्रेन के साथ दौड़ते पेड़-पौधे, शहर-गांव सबको भरपूर मन, सजग निगाहों से देखता रहा। बचपन में देखी-पहचानी चीजों को देखता तो मन खुशी से उछलने लगता। बस, यह मलाल रहा कि अकेला होने की वजह से यह खुशी समूचे रास्ते अव्यक्त सी रही। पर मैं इस खुशी को अन्तस में इतना भर लेने को उत्कंठित था कि शहर में मिले सारे तनाव, परेशानियां कुछ समय के लिए सही, गायब हो जाएं। ट्रेन में फेरिवाले से खरीदकर नमकीन खाई। पलसाना की स्टेशन पर आइस्क्रीम का लुत्फ उठाया। चौमू की स्टेशन पर सूखे बेर खाए। सीकर में पेठे, तो झुझुनूं स्टेशन पर उतरकर बाहर आते ही दो पेड़े खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर सका। उस स्वाद के प्रति इस आग्रह को देखकर महानगर से ईर्ष्या सी हो उठी, जहां अपने ही भीतर को मारने पर तुले हैं। स्वाद भीतर ही है, बस मौजूदा जिन्दगी की रफ्तार, काम, जबरियां इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं ने उस नैसर्गिक स्वाद को कसैला बना दिया है। अन्तःकरण का स्वतः स्फूर्त अनुभूतियों का सोता सूख सा गया है। हम महसूस करने की शक्ति खो बैठे हैं।
अब प्राथमिकताओं में आगरे के पेठे का स्वाद या चौमू का झड़बेर नहीं आता। न ट्रेन की सख्त बेंच पर बैठे-बैठे खाई जाने वाली आइस्क्रीम है। अब फ्लेवर्ड आइस्क्रीम का आग्रह है, क्योंकि जहां हम बैठे हैं वहां और लोग भी ऑर्डर कर रहे हैं। पड़ौसी के बच्चों को इतने फ्लेवर याद हैं कि सुनकर हम घबरा उठते हैं। शहर में पन्द्रह किलोमीटर पावभाजी खाने इसलिए चले जाते हैं कि अमुक पावभाजी वाला मक्खन ज्यादा लगाता है या पड़ौसी भी वहां जाते हैं। जरा कल्पना कीजिए, क्या रोटियों में मां के हाथ से डले उस मक्खन के स्वाद का दुनिया की कोई भी पावभाजी या पित्जा-बर्गर मुकाबला कर पाएंगे। खैर। समूचे रास्ते, छह घण्टे आनन्द से भरता रहा। काश, यह सफर रोज यूं जारी रह सके। लग रहा था जैसे बचपन की फिल्म रिवर्स चल रही है।
June 02, 2008
कल रात आपने क्या देखा?
मैं रात्रि में अस्पताल में भर्ती एक रिश्तेदार के पास था। लेकिन मैच का ताजा स्कोर जानने की प्रबल उत्कंठा का शिकार था। मेरा बीमार रिश्तेदार ब्रेन हैमरेज के बावजूद एक लम्बी चैन की नींद में था, लेकिन मैं? मेरी दिमागी नसों में दौड़ते लहू को महसूस कर सकता था। दो नीरस और इकतरफा सेमीफाइनल के बाद रोमांच से भरे फाइनल की उम्मीद कम थी। उम्मीद थी तो सिर्फ इसलिए कि शेन वार्न अपनी फिरकी के इस्तेमाल के साथ-साथ दिमागी गुगली से भी विपक्षी टीम को मात देने की कोशिश करेंगे। वहीं, महेन्द्रसिंह धोनी भी मैदान पर रणनीति और जोश के समिश्रण से राजस्थान रॉयल्स को आसानी से ताज नहीं पहनने देंगे। हुआ भी वही। बार-बार फोन कर एक मित्र से बराबर जानकारी ले रहा था। आखिरी ओवर्स में तो मोबाइल चालू रखा और उससे बॉल दर बॉल हाल सुनता रहा। अन्तिम ओवर में मैंने जो बेचैनी महसूस की, कल रात आम क्रिकेट प्रेमी भी उससे बच नहीं पाया होगा। मैंने महसूस किया, मेरी धड़कनें तेज हो रही हैं। दिमाग में उथल-पुथल मची है। मैं इसे नजरअंदाज करने की भरपूर चेष्टा कर रहा था। अस्पताल की उस सख्त बेंच पर करवटें बदलते देख कोई भी मेरी बेचैनी की हालत को साफ-साफ पढ़ सकता था। ऐसा हुआ भी। पास के एक-दो लोगों ने मेरे चेहरे के उतार-चढ़ावों को नोट किया और उत्सुकता से देखा। मैं क्रिकेट को जुनूनी अंदाज में नहीं लेता। इसलिए मैं खुद मेरी हालत पर चौंक रहा था। लेकिन पैंतालीस दिन के आईपीएल तमाशे के बाद फाइनल मैच तक आते-आते जो स्थित बन रही थी, क्या वह ट्वंटी-२० क्रिकेट की बेतहाशा लोकप्रियता का नमूना नहीं था? तमाम आशंकाओं के बावजूद कल रात हर बॉल के साथ यह नौटंकी हिट हो रही थी। शुरू में इस क्रिकेट में भावनाओं को खारिज कर देने वाले लोग स्वयं भावनाओं पर काबू नहीं रख पाए होंगे। शोहेल तनवीर को पिटता देखने के आकांक्षी रहे लोग, वे याचक की मुद्रा में उससे दो रनों की कामना कर रहे थे। यह क्रिकेट में नया ऐरा की धमाकेदार दस्तक है। क्या आपने सुनी? किसी चीज के परिणामों तक उस पर संशय रहना लाजिमी है। आईपीएल को लेकर भी कुछ ऐसा ही था। कुछ अनिश्चय के शिकार इसके आयोजक भी रहे होंगे, इसलिए चीयर लीडर्स को नचाने से लेकर बॉलीवुड कलाकारों तक का तड़का लगाया गया। शुभंकर को रोचक तरीके से पेश किया गया। बांस पर चढ़े बीस फुट आदमी को खड़ा कर इस क्रिकेट को भी ऐसे खड़ा करने के सौ-सौ जतन थे। शुरुआत में लोगों ने इसे क्लासिक क्रिकेट के खात्मे के रूप में देखा। लेकिन इसकी लोकप्रियता के ज्वार में सारी आशंकाएं बह गई। अब कुल लब्बोलुआब यह है कि यह एक तीन घंटे की मशाला पिक्चर की तरह सामने आईहै, फिर भी पूरी तरह पारिवारिक। पूरे परिवार के एक साथ बैठकर देखने लायक। पूरी रुचि लेकर इसे देखा जा सकता है। पांच दिन के उबाऊ और एक दिन बर्बाद करने वाली क्रिकेट से परे इसका अलग ही सुख है। शाम को ऑफिस से लौटकर भी बच्चों के संग स्टेडियम जाया जा सकता है। भेलपुरी-पावभाजी उदरस्थ करें और स्टेडियम में घुस जाएं। तीन-साढ़े तीन घंटे में खेल खत्म, पैसे हजम। आ, अब लौट चलें।
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