(मेरी गांव यात्रा)
शहर में मन ऊब चला, तो गांव चला गया। सोचा, चलो फ्रेश हो लेंगे। (कभी-कभी गांवों की यही उपयोगिता महसूस होती है। क्योंकि गांवों में भी अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। लेकिन गांव फिर भी गांव हैं।) खैर, दस दिन गांव रह कर लौट आया हूं। सात दिन हो गए शहर आए। अभी तक गांव की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाया हूं। मन वहीं किसी खेत में छूट गया है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है। वर्ना होता यह था कि शहर से ऊबकर गांव जाता और फिर जल्द ही वहां से ऊब शहर का रुख कर लेता। लेकिन इस बार वैसा नहीं था। पहले से ही तय था कि इस बार गांव को भरपूर जीना है। उन गलियों की यादें ताजा करनी हैं, जहां हम बचपन में खेले-कूदे। उन खेतों की, मैदानों की, गली-कूचों की तस्वीर को एक बार पुनः ताजा करना है। उन किशोरों-युवाओं से खूब घुलना-मिलना है, जो तब कमीज की बांह से नाक पौंछते थे। मतलब यह कि पूरी तरह बचपन में लौट जाऊंगा। भूल जाऊंगा कि मैं वर्तमान में क्या हूं, कहां हूं, क्या कर रहा हूं। इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं-सपनों की गठरी को उतार परे धर दूंगा। बोझमुक्त हो इतना हल्का, इतना हल्का हो जाऊंगा कि मौजूदा मैं से एकदम बाहर निकल जाऊंगा। मैंने शुरूआत लोकल ट्रेन से की। बस से चार घण्टे में त्वरित पहुंचने की बजाय ट्रेन में छह घण्टे का सफर ज्यादा मजेदार लगा। इधर धीमे-धीमे ट्रेन चली। मैंने खुशवंत सिहं की ट्रेन टु पाकिस्तान निकाली। सफर में पढ़ने का इरादा इतना ज्यादा हावी था कि शरद जोशी की दिन प्रतिदिन और कमलेश्वर की कितने पाकिस्तान भी साथ थी। और रास्ते में १०० पेज पढ़ भी डाले। (बचे हुए पेज शहर में आने के बाद आज तक शुरू नहीं हो पाए हैं)। साथ ही इतना चौकन्ना भी रहा कि पैसेंजर ट्रेन में सफर का कोई आनंदित करने वाला क्षण चूक न जाए। ट्रेन के साथ दौड़ते पेड़-पौधे, शहर-गांव सबको भरपूर मन, सजग निगाहों से देखता रहा। बचपन में देखी-पहचानी चीजों को देखता तो मन खुशी से उछलने लगता। बस, यह मलाल रहा कि अकेला होने की वजह से यह खुशी समूचे रास्ते अव्यक्त सी रही। पर मैं इस खुशी को अन्तस में इतना भर लेने को उत्कंठित था कि शहर में मिले सारे तनाव, परेशानियां कुछ समय के लिए सही, गायब हो जाएं। ट्रेन में फेरिवाले से खरीदकर नमकीन खाई। पलसाना की स्टेशन पर आइस्क्रीम का लुत्फ उठाया। चौमू की स्टेशन पर सूखे बेर खाए। सीकर में पेठे, तो झुझुनूं स्टेशन पर उतरकर बाहर आते ही दो पेड़े खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर सका। उस स्वाद के प्रति इस आग्रह को देखकर महानगर से ईर्ष्या सी हो उठी, जहां अपने ही भीतर को मारने पर तुले हैं। स्वाद भीतर ही है, बस मौजूदा जिन्दगी की रफ्तार, काम, जबरियां इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं ने उस नैसर्गिक स्वाद को कसैला बना दिया है। अन्तःकरण का स्वतः स्फूर्त अनुभूतियों का सोता सूख सा गया है। हम महसूस करने की शक्ति खो बैठे हैं।
अब प्राथमिकताओं में आगरे के पेठे का स्वाद या चौमू का झड़बेर नहीं आता। न ट्रेन की सख्त बेंच पर बैठे-बैठे खाई जाने वाली आइस्क्रीम है। अब फ्लेवर्ड आइस्क्रीम का आग्रह है, क्योंकि जहां हम बैठे हैं वहां और लोग भी ऑर्डर कर रहे हैं। पड़ौसी के बच्चों को इतने फ्लेवर याद हैं कि सुनकर हम घबरा उठते हैं। शहर में पन्द्रह किलोमीटर पावभाजी खाने इसलिए चले जाते हैं कि अमुक पावभाजी वाला मक्खन ज्यादा लगाता है या पड़ौसी भी वहां जाते हैं। जरा कल्पना कीजिए, क्या रोटियों में मां के हाथ से डले उस मक्खन के स्वाद का दुनिया की कोई भी पावभाजी या पित्जा-बर्गर मुकाबला कर पाएंगे। खैर। समूचे रास्ते, छह घण्टे आनन्द से भरता रहा। काश, यह सफर रोज यूं जारी रह सके। लग रहा था जैसे बचपन की फिल्म रिवर्स चल रही है।
5 comments:
rochkata bani hui hai..safar jari rakhe..
चलिए भाग्यावान हैं जो अपने गाँव हो आए। अब गाँव के बारे में भी बताइए।
घुघूती बासूती
बढ़िया है गांव और घूमिये और हमें भी घूमाईये..रोटियों में मां के हाथ से डले उस मक्खन के स्वाद का दुनिया की कोई भी पावभाजी या पित्जा-बर्गर मुकाबला कर पाएंगे। --यह तो सवाल ही नहीं उठता है. रोटियों में मां के हाथ से डले उस मक्खन के स्वाद -कैसे कहीं और आ सकता है.
gaoun ki ser bhi krado
aaj aapkee blog galee se gujaraa...achchhaaa lagaa..keep on...
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