June 28, 2008

ट्रेन टु विलेज-२

(मेरी गांव यात्रा)
परसों गांव जाने के अपने अनुभव शेयर कर रहा था। कुछ ब्लॉगर साथियों ने टिप्पणियां भेजीं। लगा, सफलता की कहानी कहीं भी गढ़ ली जाए भले, स्मृतियों से गांव कभी छूट नहीं सकता। शहरों में आकर रच-बस गए लोगों की शिराओं में आज भी गांव खून बनकर दौड़ते हैं। हो सकता है हमें इस बात की खबर ही न हो कि हमारी यादों में वही गांव आबाद है, जिसे कभी अलविदा कह आए थे। हमारे साथ-साथ पलते-बढ़ते हैं। इतना जरूर है कि उन स्मृतियों पर शहरी चकाचौंध की गर्त छा गई है। व्यस्तता का बहाना है। समय नहीं मिल पाने के बहुतेरे किस्से-कहानी जुबानी हैं। गांव उन लोगों की आज भी राह तकते हैं, जो सफल पुरुष तो बने, लेकिन लौटकर नहीं गए। जबकि वे वादा करके आए थे। कसमें खाईं थीं। पढ़ाई के लिए या कमाने-धमाने के लिए गांव छोड़ते वक्त, बड़े-बुजुर्गों से, माता-पिता से, युवा साथियों से, खेत-खलिहानों से, गलियों से, सौंधी मिट्टी से, ढोर-ढंगर से एक अलिखित वादा किया था। कितनी ही नेमतों की गठरी बांध विदाई ली थी। कहा था-कुछकर बनकर लौटेंगे। अपनों के बीच, चौपाल पर बैठकर, बड़े-बुजुर्गों के हुक्के की गुड़गुड़ाहट के बीच सफलता की स्वाद भरी कहानी सुनाएंगे। ...लेकिन अफसोस। ऐसा हो न सका। आज हालत यह है कि हमने ही गांवों पर पिछड़ेपन का टैग चिपका दिया है और अब अपने बच्चों को गांव ले जाने से इसलिए कतराते हैं कि कहीं वे गांव के बच्चों के संग घुल-मिल न जाएं। या उनकी परीक्षाएं डिस्टर्ब हो सकती हैं। कुछ गंदी आदतें न सीख लें। मिट्टी में न सन जाएं?
लेकिन क्या मिट्टी पराई हो सकती है? मैं पन्द्रह रोज पहले गांव पहुंचा, तो मुझे उसी मिट्टी से किया वादा याद आ गया। इस बार मुझमें गांव को लेकर जरूरत से ज्यादा अकुलाहट थी, एक बेचैनी थी। टूटकर बिखर जाने की जिद सी आकार ले रही थी। इसके कारण तो खैर, शहर में जन्मी कुंठाओं से उपजे थे। कैमरा साथ ले गया था, एक-एक क्षण को अविस्मरणीय बनाने को। मैं बरसों बाद जीना चाहता था। भरपूर जीने की चाहत दिल में बसाए ही इस यात्रा की शुरुआत की थी। अपनी मिट्टी में पहुंचते ही मैं बचपन में लौट चुका था। मेरा वर्तमान कहीं नहीं था। बस, मैं और मेरा गांव था। मैंने वो सारी गलियां नापी। सारे संगी-साथियों से मिला। खेतों की डगर चला। पगडंडियों पर घूमा। पेड़-पौधे देखे। कुछ पेड़ और घने, छायादार बन चुके थे। पौधों में भी रवानी थी, अपनी जवानी पर इतरा रहे थे। घर में दसेक अनार के पौधे लगे हैं। इतने छोटे पौधे और अनार से लदे-फदे। देखकर सुखद अनुभूति हुई। अमरूद भी सैकड़ों की संख्या में लगे थे। बोझ के मारे टहनियां धरती को छू रही थी। अहा, इतनी विनम्रता, सदाशयता यदि इन्सान में आ जाए तो क्या कुछ हो सकता है, यह अकल्पनीय है।
मैंने पेड़-पौधों के संग खूब फोटो खिंचवाई। वे भी खूब मन से लिपटे। झूम-झूमकर स्वागत-सत्कार कर रहे थे। स्कूली पढ़ाई के दिनों में अपनी भैंस का दूध मैं ही निकाला करता था। सो, इस बार भी बाल्टी लेकर बैठा दूध निकालने। लेकिन भैंस ने अजीब नजरों से देखा और फिर दूर जा खड़ी हुई। उसे मैं अपरिचित लगा। यह चाह पूरी नहीं कर पाया। दस साल में पहली बार मुझे इस तरह की हरकतें करते देख मम्मी-पिताजी खूब हंसते रहे। उस हंसी से मैं जितना आल्हादित हुआ, बयां करना मुश्किल है।
गांव की रातें शीतल होती हैं। छत पर सोने का आनन्द निराला ही है। रात को जिन्दगी से भरी मंद-मंद बयार बहती है। तनाव से अकड़ी सारी नसें खुल जाती हैं। शहर में दो पल लॉन में बैठ जाओ, तो मच्छर धावा बोल देते हैं। शहर में शाम सुहानी नहीं आती, मच्छर भगाने की दुश्चिंताएं लेकर आती है। और वहां निर्मल सी हवा तैर रही थी। मैं उसे फेफड़ों में इस हद तक भर लेने को आतुर था कि पता नहीं फिर ऐसा मौका मिले या नहीं। वहां एक भी मच्छर नहीं था। ताजगी भरा वातावरण था। शहर में सात घण्टे सोकर भी सुबह जल्दी उठने का मन नहीं करता। वहां देर से सोकर भी प्रातःकाल जल्दी आंख खुल जातीं। कभी थकान महसूस नहीं हुई। कभी लगा ही नहीं कि किसी पार्क में जाकर टहलने की जरूरत है। या तनाव मुक्त करने के लिए किसी हास्य क्लब में जाकर क्षण भर के लिए हा-हा-हा करने की आवश्यकता है। शहर में हमने जिन्दगी से हंसी को निकाल दिया है। वहां तो हंसी स्वयंमेव चेहरों पर तैरती है। इस नैसर्गिक आनन्द को में कभी भुला नहीं सकता।
दोस्तों, मैं यह सब इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैंने कोई नया काम कर डाला है या गांव कोई दुर्लभ चीज है। मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि जहां हमारी आत्मा रचती-बसती है, उस जगह के प्रति हम दिल से आभारी बनें। और यदि दिल लगाया जाए तो कोई गोवा, कोई देहरादून, कोई शिमला, कोई काठमांडू या मलेशिया, मॉरिशस वह आनन्द नहीं दे सकते, जो गांव दे सकते हैं। आज घूमने का अर्थ किसी पिकनिक स्पॉट या विदेश भ्रमण हो गया है। ऐसे में हमें कहने की जरूरत है- आओ गांव चलें। हो सके तो प्लीज, गांव को जिन्दगी से मत निकालिए।

7 comments:

Anonymous said...

hamko pyare gaoun hai
tumko pyare gaoun hai
sab ko pyare gaoun hai

डॉ .अनुराग said...

achha hai aapke gaanv me machhar nahi hai ,vaise ab gaanv pahle se nahi hai ,vahn bhi t,v aor pankhe aa gaye hai.

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

aapke gaanv yatra padhkar maza aaya, macharon se bacha hai aapka gaon, badhiya hai

Udan Tashtari said...

सही कह रहे हैं, गांव को तो भुलाया ही नहीं जा सकता.

Unknown said...

क्या खूब लिखा है1 हम भी कितनी ही बार शहर से गाँव को घूम आए पर लगता ही नही की ऐसे भ्रमण पर भी कुछ लिखा जा सकता है, सुरजीत जी अगर क्रिकेट से इतर कुछ खेल भी खेले हो तो उन ग्रामीण खेलो पर भी अपनी लेखनी से कुछ लिख देते तो चार चाँद लग जाते
टीकम चंद जैन

Unknown said...

क्या खूब लिखा है1 हम भी कितनी ही बार शहर से गाँव को घूम आए पर लगता ही नही की ऐसे भ्रमण पर भी कुछ लिखा जा सकता है, सुरजीत जी अगर क्रिकेट से इतर कुछ खेल भी खेले हो तो उन ग्रामीण खेलो पर भी अपनी लेखनी से कुछ लिख देते तो चार चाँद लग जाते
टीकम चंद जैन

Unknown said...

क्या खूब लिखा है1 हम भी कितनी ही बार शहर से गाँव को घूम आए पर लगता ही नही की ऐसे भ्रमण पर भी कुछ लिखा जा सकता है, सुरजीत जी अगर क्रिकेट से इतर कुछ खेल भी खेले हो तो उन ग्रामीण खेलो पर भी अपनी लेखनी से कुछ लिख देते तो चार चाँद लग जाते
टीकम चंद जैन