इस देश में मानसून का आना खुशियों का प्रतीक माना जाता है। इस दफा ये खुशियां ज्यादा देर तक कायम न रह सकें, शायद। आसमान से टप-टप पानी गिरेगा, लेकिन ज्यादा शोर भाषणों का होगा। रिमझिम बारिश के साथ सुनियोजित ढंग से तैयार किए गए स्वर झरेंगे। मेंढकों की जगह अजीब किस्म की टर्राहट सुनाई देगी। और लगभग शुरू भी हो चुकी है। या फिर फाइनल रिहर्सल जारी है। एक जोरदार स्क्रिप्ट लिखी जा रही है- फाइनल टच इस कामना के साथ कि एक-एक डायलॉग पर जनमानस दे ताली। यानी चुनावी प्रहसन के पट खुलने में अब देर नहीं है। कुल मिलाकर यह धैर्य धारण करने का वक्त है। रग-रग में शक्ति बटोरने पर्व है। यह हर्षाने का नहीं, मुर्झाने का वक्त है।
इसके बाद दर्शकों के हाथ में यानी वोटर्स के पास कोई चारा नहीं रह जाएगा। सिवाय इसके कि वह लोकतन्त्र के हवाले से एक और बेवकूफी कर डाले और जाति, धर्म, क्षेत्र के नाम पर बरगलाया जाकर सहर्ष खुदकुशी कर ले। सुसाइड नोट के नाम पर ईवीएम पर एक खास जगह अंगुली धर दे। अगले चुनाव तक उसके हाथ में यह बचा रहेगा कि रोज सुबह हड़बड़ाकर उठे, हाथ मले, जबड़ा कसे और मुट्ठियां भींचे। इस एक्सरसाइज के साथ वह नित्य फ्रेश हो सकता है।
लेकिन टर्राने वालों को कहां फिक्र है इस सबकी। उनकी आंखों में छलिया जैसी चाहत दिखने लगी है। उनकी आंखों में महंगाई की रफ्तार के बावजूद कहीं भी शर्मसार होने के चिन्ह नहीं दिखते। शर्मसार हों भी कैसें? गरीबों के नाम पर गरीब रथ चलाकर कोई कैसे शर्मिंदा हो सकता है। शर्म वे करें, जो उनकी सदाशयता पर अंगुली उठाते हैं, और डूब मरें। उनका आग्रह यह है कि किसानों की कर्जमाफी को चुनावी घोषणा पत्र समझा जाए और महंगाई को भूल के कूड़ेदान में डाल दें। सुबह-सुबह बढ़ती मुद्रास्फीति की खबर पर चाय का स्वाद कसैला न करे, बल्कि यह देखें कि सरकार में शामिल दल साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ किस हद तक एकजुटता से डटे हुए हैं। अब वे करार पर रार इस बिना पर ठान सकते हैं कि उनको नया साथी मिलने का गणित कथित देशहित के फॉर्मूले पर भारी है। यह चुनाव की वेला में, सत्ता के गलियारों में फिर से फूल खिलाने की उम्मीद को लेकर ज्यादा अपीलिंग मैटर है।
एक दल इसलिए खुद की पीठ ठोक-ठोक मजबूती अनुभव कर रहा है कि उसके तरकश में एक साल से प्रधानमंत्री नामक तीर बेकार पड़ा है और बेध सकने लायक कुर्सी खाली नहीं कर रहा कोई। जो उस पर धंस, देश को पांच साल स्वास्थ्य की कामना करते रहने का अवसर दे सकता है। हो सकता है बाकी कुर्सियों पर भी फिट हो सकने लायक जीवों के नाम भी तय हों। इनके घोषणा पत्र में भी परेशान हाल आदमी के लिए कोई नया मंत्र नहीं है। इनके पास प्रत्याशी तय हैं और बस, इसे ही घोषणा पत्र का प्रारूप समझ एक अदद दाद दे दें।
कुल मिलाकर सरकार मृत्यु शैय्या पर है और आम आदमी कीलों की शैय्या पर लेटा अनुभव कर रहा है। अब तो उसके पास मर्सिया गाने की ताकत भी शेष नहीं। देश में उदासी का आलम है, राजनीतिक दलों के आंगन को छोड़कर जहां, प्रत्याशी तय कर लेने की बेशर्म हंसी तैर रही है।
3 comments:
बहुत बढ़िया।
हम वायदों से पेट भर लेंगे
वे कुर्सी कैद कर लेंगे
हम थोड़े से काम चलाएँगे
वे जैट पर जा बैठ जाएँगे
हम खा लेंगे थोड़ा कम खाना
वे खेत ही पूरा खा जाएँगे।
घुघूती बासूती
बिल्कुल सही कहा आपने...
सरकार मृत्यु शैय्या पर है और आम आदमी कीलों की शैय्या पर लेटा अनुभव कर रहा है।
सही कह रहे हैं. अभी चुनाव में करोड़ों बहा दिये जायेंगे और हालात बद से बदतर होते जायेंगे.
Post a Comment