कौन है यह मल्लिका साराभाई?
पता नहीं।
तूने नाम सुना है पहले।
नहीं तो...तुमने?
मैंने भी नहीं सुना।
फिर?
फिर क्या?
(सवाल यह था कि फिर क्यों छापा जा रहा है।)
खैर, सहवाग ने कितने बना लिए?
तिहरा शतक ठोक दिया।
पहले भी तो ठोक चुका है।
हां, पाकिस्तान के खिलाफ।
देखना कल की हैडिंग होगी-सहवाग ने किया अफ्रीका के स्कोर को फीका।
यह भी हो सकती है कि मुल्तान के सुल्तान का जलवा।
(यह थे दो युवा पत्रकारों के बीच वार्तालाप के अंश, जिनमें एक पत्रकार अच्छी-खासी रिपोर्टिंग करते हैं, और दूसरे एक महत्वपूर्ण पेज का दायित्व संभालते हैं।)
मशहूर भरतनाट्यम डांसर मल्लिका साराभाई शहर में थीं, और उनका इंटरव्यू जा रहा था। उनका आश्चर्य इस बात को लेकर था कि हमने आज से पहले मल्लिका साराभाई का नाम कभी नहीं सुना, फिर ऐसा क्या है कि इसका इंटरव्यू इतने महत्व के साथ दिया जा रहा है।
March 29, 2008
March 18, 2008
जंक्शन का सीन देख कष्ट दे गया स्मृतियों में आया गांव
यह वाकई ऐसा ही सीन था, जिसे देख हर कोई ठिठका। रुका। देखा। और मंद-मंद मुस्काते हुए आगे बढ़ गया। वे सात-आठ युवा थे। रंग-गुलाल से सने। अपनी वेशभूषा और अंदाज से निस्संदेह ग्रामीण। आस-पास के माहौल से पूरी तरह बेखर। अपने में मग्न। होली का उल्लास बांटते। ढप, मंजीरे और बांसुरी के साथ होली के गीतों से हर किसी को मंत्रमुग्ध कर रहे थे।
दरअसल आज सुबह मैं पिताजी को छोड़ने जयपुर जंक्शन पर गया था। वहां इन मस्ताने युवाओं की टोली को ढप के साथ नाचते-गाते देखने का यह निराला अनुभव था। महानगरीय प्रसव पीड़ा से छटपटाते शहरों में में ऐसे दृश्यों की कल्पना ही बेमानी है। शुरू-शुरू में मेरी तरह हर कोई उन्हें स्टेशन पर देख चौंक रहा था। लेकिन इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। यहां ऐसे दृश्यों से सामना होने पर गांव से आकर शहरों में स्थापित हुए लोग कनखियों से देख इसलिए निकल लेते हैं, कि कहीं उनके अन्दर के देहाती को कोई पहचान ना ले। ( हमारी अधिकांश शक्ति अपने अन्दर के देहाती को मारने में जाया होती है।) खैर, वे नाचने-गाने में इतने मशगूल थे कि उन्हें ऐसी किसी चीजों से मतलब होना भी नहीं था। वे जयपुर कमाने-धमाने आए ग्रामीण युवा थे और होली पर गांव लौट रहे थे। गांव की होली उन्हें बुला रही थी। जाते समय उन्होंने दोस्तों के साथ अपनत्व भरी होली खेली। नेह के रंग-गुलाल मले। और विदाई की वेला में यहीं से ढप, मंजीरे, बांसुरी का इन्तजाम कर लिया। ट्रेन के इन्तजार में वे फागुनी रसिया प्लेटफॉर्म पर ही रंग जमाने लगे। वहां सैकड़ों लोग और भी थे, जो गंतव्य के लिए अपनी-अपनी ट्रेनों के इन्तजार में चहल-कदमी कर रहे थे।
यह सीन देख गांव की यादें ताजा होना लाजिमी था। मेरी स्मृतियों में गांव का फागुन आ बसा। वे भी क्या दिन थे, जब एक माह पहले ही होली का डांडा रोपा जाता। गांव की गलियों से लेकर घर-घर से होली के गीतों की अनुगूंज सुनाई पड़ती। पेड़-पौधे नया बाना धारण कर लक-दक हो उठते। खेतों से उठती सरसों की गंध से सारा माहौल प्रमुदित हो उठता। चारों तरफ से फाग झरने लगता। अन्तर्मन आल्हादित हो जाता। हर शख्स अलबेला मस्ताना सा नजर आता। बच्चे लोग जहां गांव की गलियों से लेकर खेतों तक चांदनी रात में लुका-छिपी का खेल खेलते, वहीं लड़कियां दस-बीस के समूह में मौहल्ले-मौहल्ले में गीतों भरी सांझ संजोती। इनसे बचना नामुमकिन था। रात को गांव में दो-तीन जगह होली का दंगल होता था। उनमें होली के गीतों भरा कॉम्पिटिशन होता। आधी रात बाद तक चलता रहता यह दौर। बीच-बीच में धरे जाते स्वांग बांधे रखते थे। हम बच्चे दिन में क्लास में ही तय कर लेते थे कि आज कैसे छुपकर घर से निकलना है, क्योंकि वे परीक्षाई दिन होते थे। घर वाले पढ़ने पर जोर देते, और हम रात को स्वांग देखने की तिकड़में खोजते रहते। मैं और मेरा दोस्त हमारे घर की छत पर बल्ब लटका पढ़ते थे और घर वालों के सो जाने के बाद छत से कूदकर फरार होते थे। बीस-पच्चीस दिनों की उस उत्सवधर्मिता से कटे रहना वाकई असंभव था। कई लोग अलगोजा इतना शानदार बजाते थे, कि आज शहर में आकर उनकी उस कला का अहसास होता है। ज्यादातर ग्वाले, किसान ही ढप, अलगोजा, झांझ-मंजीरे बजाने में निष्णात थे। उन्होंने इन्हें सीखने के लिए कहीं, किसी डिप्लोमा पाठ्यक्रम में एडमिशन नहीं लिया। वहीं गलियों, खेतों, पशुओं के पीछे भागते-भागते सुर फूंकते-फूंकते सीख गए। शुरू-शुरू में अनगढ़ से, बेसुरे से, लेकिन निरन्तर अभ्यास से इतने प्रवीण होते गए कि वह कर्णप्रिय आवाज आज भी कानों में गूंजती है। सच, वैसी मिठास राजधानी में कई बड़े-बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी नहीं हुई।
लेकिन पिछले दस-पन्द्रह साल में गावों की यह कला भी गर्दिश में है। दिल में हूक सी उठती है। अब होली पर गांव जाते हैं- वैसे नजारों की कल्पना में खोए, लेकिन वह सब नहीं देख निराशा होती है। गांव के लोग एक-दूसरे से कटे हैं। शहरों जैसे सैटबैक छोड़े जा रहे हैं दिलों के बीच। इतनी जूतमपैजार सदनों में विरोधी नेताओं के बीच भी नहीं होती, जितनी दो दलों के समर्थक पड़ोसियों में हो जाती है। साल भर एक-दूसरे से इसलिए खिंचे रहते हैं कि फलां अमुक पार्टी का समर्थक है। लट्ठम-लट्ठा आम बात है। बिना मारपीट, या घोर तनाव के वोटिंग नहीं होती। जलन, ईर्ष्या घोर चरम पर हैं। केस-मुकदमों की संख्या बढ़ रही है। भाई-भाई खून के प्यासे हैं। जनप्रतिनिधियों ने इस कमजोर नस को पकड़ा है। विकास के वादों की बजाय वे केस-मुकदमों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं।
ऐसे में बताइए कहां वह गांव, कहां वह होली, और कहां वह निरापद, निराला आनन्द? जब-जब स्मृतियों गांव जुटता है, कष्ट ही देता है।
दरअसल आज सुबह मैं पिताजी को छोड़ने जयपुर जंक्शन पर गया था। वहां इन मस्ताने युवाओं की टोली को ढप के साथ नाचते-गाते देखने का यह निराला अनुभव था। महानगरीय प्रसव पीड़ा से छटपटाते शहरों में में ऐसे दृश्यों की कल्पना ही बेमानी है। शुरू-शुरू में मेरी तरह हर कोई उन्हें स्टेशन पर देख चौंक रहा था। लेकिन इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। यहां ऐसे दृश्यों से सामना होने पर गांव से आकर शहरों में स्थापित हुए लोग कनखियों से देख इसलिए निकल लेते हैं, कि कहीं उनके अन्दर के देहाती को कोई पहचान ना ले। ( हमारी अधिकांश शक्ति अपने अन्दर के देहाती को मारने में जाया होती है।) खैर, वे नाचने-गाने में इतने मशगूल थे कि उन्हें ऐसी किसी चीजों से मतलब होना भी नहीं था। वे जयपुर कमाने-धमाने आए ग्रामीण युवा थे और होली पर गांव लौट रहे थे। गांव की होली उन्हें बुला रही थी। जाते समय उन्होंने दोस्तों के साथ अपनत्व भरी होली खेली। नेह के रंग-गुलाल मले। और विदाई की वेला में यहीं से ढप, मंजीरे, बांसुरी का इन्तजाम कर लिया। ट्रेन के इन्तजार में वे फागुनी रसिया प्लेटफॉर्म पर ही रंग जमाने लगे। वहां सैकड़ों लोग और भी थे, जो गंतव्य के लिए अपनी-अपनी ट्रेनों के इन्तजार में चहल-कदमी कर रहे थे।
यह सीन देख गांव की यादें ताजा होना लाजिमी था। मेरी स्मृतियों में गांव का फागुन आ बसा। वे भी क्या दिन थे, जब एक माह पहले ही होली का डांडा रोपा जाता। गांव की गलियों से लेकर घर-घर से होली के गीतों की अनुगूंज सुनाई पड़ती। पेड़-पौधे नया बाना धारण कर लक-दक हो उठते। खेतों से उठती सरसों की गंध से सारा माहौल प्रमुदित हो उठता। चारों तरफ से फाग झरने लगता। अन्तर्मन आल्हादित हो जाता। हर शख्स अलबेला मस्ताना सा नजर आता। बच्चे लोग जहां गांव की गलियों से लेकर खेतों तक चांदनी रात में लुका-छिपी का खेल खेलते, वहीं लड़कियां दस-बीस के समूह में मौहल्ले-मौहल्ले में गीतों भरी सांझ संजोती। इनसे बचना नामुमकिन था। रात को गांव में दो-तीन जगह होली का दंगल होता था। उनमें होली के गीतों भरा कॉम्पिटिशन होता। आधी रात बाद तक चलता रहता यह दौर। बीच-बीच में धरे जाते स्वांग बांधे रखते थे। हम बच्चे दिन में क्लास में ही तय कर लेते थे कि आज कैसे छुपकर घर से निकलना है, क्योंकि वे परीक्षाई दिन होते थे। घर वाले पढ़ने पर जोर देते, और हम रात को स्वांग देखने की तिकड़में खोजते रहते। मैं और मेरा दोस्त हमारे घर की छत पर बल्ब लटका पढ़ते थे और घर वालों के सो जाने के बाद छत से कूदकर फरार होते थे। बीस-पच्चीस दिनों की उस उत्सवधर्मिता से कटे रहना वाकई असंभव था। कई लोग अलगोजा इतना शानदार बजाते थे, कि आज शहर में आकर उनकी उस कला का अहसास होता है। ज्यादातर ग्वाले, किसान ही ढप, अलगोजा, झांझ-मंजीरे बजाने में निष्णात थे। उन्होंने इन्हें सीखने के लिए कहीं, किसी डिप्लोमा पाठ्यक्रम में एडमिशन नहीं लिया। वहीं गलियों, खेतों, पशुओं के पीछे भागते-भागते सुर फूंकते-फूंकते सीख गए। शुरू-शुरू में अनगढ़ से, बेसुरे से, लेकिन निरन्तर अभ्यास से इतने प्रवीण होते गए कि वह कर्णप्रिय आवाज आज भी कानों में गूंजती है। सच, वैसी मिठास राजधानी में कई बड़े-बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी नहीं हुई।
लेकिन पिछले दस-पन्द्रह साल में गावों की यह कला भी गर्दिश में है। दिल में हूक सी उठती है। अब होली पर गांव जाते हैं- वैसे नजारों की कल्पना में खोए, लेकिन वह सब नहीं देख निराशा होती है। गांव के लोग एक-दूसरे से कटे हैं। शहरों जैसे सैटबैक छोड़े जा रहे हैं दिलों के बीच। इतनी जूतमपैजार सदनों में विरोधी नेताओं के बीच भी नहीं होती, जितनी दो दलों के समर्थक पड़ोसियों में हो जाती है। साल भर एक-दूसरे से इसलिए खिंचे रहते हैं कि फलां अमुक पार्टी का समर्थक है। लट्ठम-लट्ठा आम बात है। बिना मारपीट, या घोर तनाव के वोटिंग नहीं होती। जलन, ईर्ष्या घोर चरम पर हैं। केस-मुकदमों की संख्या बढ़ रही है। भाई-भाई खून के प्यासे हैं। जनप्रतिनिधियों ने इस कमजोर नस को पकड़ा है। विकास के वादों की बजाय वे केस-मुकदमों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं।
ऐसे में बताइए कहां वह गांव, कहां वह होली, और कहां वह निरापद, निराला आनन्द? जब-जब स्मृतियों गांव जुटता है, कष्ट ही देता है।
March 13, 2008
एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को
डरे, सहमे, लज्जित से हॉकी खिलाड़ी दबे पांव सरजमीं पर लौट आए। कुछ कैमरामैन उनके चेहरों को फोकस करने एयरपोर्ट पहुंचे। अपने हिसाब से कामयाब भी रहे। इससे पहले ही खिलाड़ियों के गुनहगार मुद्रा में मीडिया में फोटो छप चुके थे। हॉकी का काला दिन। हॉकी में हाहाकार। हॉकी को श्रद्धांजलि। देश शर्मसार। जितने और जिस चतुराई से हैडिंग कौशल का परिचय दिया जा सकता था, दिया गया। अखबारों ने एक तरह से जज की कुर्सी पर पांव पसार साबित ही कर दिया था कि अब हॉकी खत्म ही समझो। लिखने का ही कर्म और श्रम करने वाले बुद्धिजीवियों ने भी पारिश्रमिक के बदले गालियां देने में कसर नहीं रखी। कुछ ने गिल से लेकर हॉकी फैडरेशन के पदाधिकारियों को अपनी लेखनी का आहार बनाया। हर शख्स, जो खुद को और किसी लायक समझे या नहीं, एक अदद टिप्पणी के काबिल समझता ही है, कोसने की ठीक-ठाक रस्मअदायगी कर डाली। हारे को हरिनाम, जीते सो पहलवान। हार के बाद सोचिए भला, सिवाय इन बातों के बचता ही क्या है?
तो खिलाड़ी लौट के देश आ गए। उनको आना ही था। जाते कहां? ओलम्पिक की फ्लाइट वे पकड़ नहीं पाए थे। कहा गया, देश अस्सी साल में पहली बार ओलम्पिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाया। इसके लिए कई चश्मों, नजरियों और वैचारिक दिमागों ने जोर लगाया। अपने हिसाब से कई कारण गिनाए गए, हल भी सुझाए गए। अब इनसे पूछा जाए, ये विश्लेषण पहले कहां थे? क्या हम पागलपन भरी उम्मीद से थे कि हॉकी का ओलम्पिक जीत ही लाएंगे? कब तक ध्यानचंद के ध्यान में हॉकी के खयाली ओलम्पिक जीतते रहेंगे? यह सुखद सलौना सपना कब टूटेगा? हॉकी का ग्राउण्ड क्या है? जहां फैडरेशन ही हॉकी के मैदानों की हरी-भरी घास चरने की जिद्द पर अड़ी हो, वहां क्या तो खिलाड़ियों की पौध तैयार करेंगे और क्या ओलम्पिक जीतेंगे? हम हॉकी की हुंकार क्यों भरते हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और यह कंगूरा हम हर हाल में माथे पर चिपकाए रखना चाहते हैं। हम अपनी औलाद को तो क्रिकेट में ठेल रहे हैं, बाकियों से उम्मीद करते हैं वे ही हॉकी में कुछ करें। हर बच्चे में एक भावी सचिन की खोज जारी है। बच्चों को महंगे क्रिकेट क्लबों में भेज रहे हैं। क्रिकेट का भविष्य संवारने की जिद्द के चलते महंगे विदेशी कोच आयात कर रहे हैं। सनकपन की हद तक क्रिकेटरों को मण्डी में खड़ा कर बोलियां लगा रहे हैं। देश के हर ग्राउण्ड को हम क्रिकेट ग्राउण्ड में बदल डालने को कृत संकल्पित हैं। किसी भी हालत में, क्रिकेट मैच की टिकट हथिया खुद को धन्य समझ और हॉकी की दुर्दशा पर हाय-हाय करने वाले लोग हैं हम। चौके-छक्कों पर तालियां बजा, मौका लगते ही हॉकी को गरियाने वाले लोग हैं हम। कसम खाइए, कितने लोग हॉकी खिलाड़ियों के नाम जानते हैं?
अभी तक हॉकी की हार पर काफी अनर्गल प्रलाप हो चुका। सिर धुने जा चुके। अब कुछ सार्थक सोचिए, आखिर सोचने वालों का देश है हमारा। उधर देखिए, मैदानों में लटें घुस गई हैं। इल्लियों का जमावड़ा है। कुतर-कुतर हॉकी खाने के मजे हैं। स्टिक को दीमकें खोखला कर रही हैं। खिलाड़ियों का डीए भी कुतरने से गुरेज नहीं।
इन हालातों में भी फैडरेशन का अध्यक्ष कुर्सी से चिपका है। देश मैदान छोड़ आया, और ये कुर्सी तक नहीं छोड़ना चाहते। एक बेशर्म जिद्द सी है। ऐसे हालात में क्या आपको अब भी लगता कि
एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को।
तो खिलाड़ी लौट के देश आ गए। उनको आना ही था। जाते कहां? ओलम्पिक की फ्लाइट वे पकड़ नहीं पाए थे। कहा गया, देश अस्सी साल में पहली बार ओलम्पिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाया। इसके लिए कई चश्मों, नजरियों और वैचारिक दिमागों ने जोर लगाया। अपने हिसाब से कई कारण गिनाए गए, हल भी सुझाए गए। अब इनसे पूछा जाए, ये विश्लेषण पहले कहां थे? क्या हम पागलपन भरी उम्मीद से थे कि हॉकी का ओलम्पिक जीत ही लाएंगे? कब तक ध्यानचंद के ध्यान में हॉकी के खयाली ओलम्पिक जीतते रहेंगे? यह सुखद सलौना सपना कब टूटेगा? हॉकी का ग्राउण्ड क्या है? जहां फैडरेशन ही हॉकी के मैदानों की हरी-भरी घास चरने की जिद्द पर अड़ी हो, वहां क्या तो खिलाड़ियों की पौध तैयार करेंगे और क्या ओलम्पिक जीतेंगे? हम हॉकी की हुंकार क्यों भरते हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और यह कंगूरा हम हर हाल में माथे पर चिपकाए रखना चाहते हैं। हम अपनी औलाद को तो क्रिकेट में ठेल रहे हैं, बाकियों से उम्मीद करते हैं वे ही हॉकी में कुछ करें। हर बच्चे में एक भावी सचिन की खोज जारी है। बच्चों को महंगे क्रिकेट क्लबों में भेज रहे हैं। क्रिकेट का भविष्य संवारने की जिद्द के चलते महंगे विदेशी कोच आयात कर रहे हैं। सनकपन की हद तक क्रिकेटरों को मण्डी में खड़ा कर बोलियां लगा रहे हैं। देश के हर ग्राउण्ड को हम क्रिकेट ग्राउण्ड में बदल डालने को कृत संकल्पित हैं। किसी भी हालत में, क्रिकेट मैच की टिकट हथिया खुद को धन्य समझ और हॉकी की दुर्दशा पर हाय-हाय करने वाले लोग हैं हम। चौके-छक्कों पर तालियां बजा, मौका लगते ही हॉकी को गरियाने वाले लोग हैं हम। कसम खाइए, कितने लोग हॉकी खिलाड़ियों के नाम जानते हैं?
अभी तक हॉकी की हार पर काफी अनर्गल प्रलाप हो चुका। सिर धुने जा चुके। अब कुछ सार्थक सोचिए, आखिर सोचने वालों का देश है हमारा। उधर देखिए, मैदानों में लटें घुस गई हैं। इल्लियों का जमावड़ा है। कुतर-कुतर हॉकी खाने के मजे हैं। स्टिक को दीमकें खोखला कर रही हैं। खिलाड़ियों का डीए भी कुतरने से गुरेज नहीं।
इन हालातों में भी फैडरेशन का अध्यक्ष कुर्सी से चिपका है। देश मैदान छोड़ आया, और ये कुर्सी तक नहीं छोड़ना चाहते। एक बेशर्म जिद्द सी है। ऐसे हालात में क्या आपको अब भी लगता कि
एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को।
March 05, 2008
सॉफ्टवेयर महोदय, यह भी भविष्यवाणी करते जाओ
नैराश्य के माहौल में इस खबर में सारी समस्याओं का हल ढूंढा जा सकता है। खबर यह है कि एक ऐसा सॉफ्टवेयर बन गया है, जो आतंकी घटनाओं की भविष्यवाणी करेगा। अहा, क्या सीन होने वाला है? इधर गोपनीय स्थल पर गुफ्तगू के बाद कमाण्डर का निर्देश ले आतंकी बदन पर विस्फोटक बांध निकलेंगे, उधर सॉफ्टवेयर घोषणा कर देगा कि अलां-फलां स्थान पर आतंकी वारदात होगी। आतंकियों को ऐसा दबोचा जाएगा कि उनको बटन दबाने का मौका ही न मिले। वैसे हमारे पास खुफिया तंत्र नामक सॉफ्टवेयर पहले से मौजूद है, जो अधिकांश वारदातों के बाद चेताने का काम करता आया है। हर वारदात के बाद एक बयान यह आता है कि खुफिया तंत्र ने पहले ही चेता दिया था। इसको यहीं छोड़ें। नई उम्मीदों के बारे में सोचें। हमारे यहां कुछ धांसू-फांसू सॉफ्टवेयरों की जरूरत है। जिनके बनने से हमारे सिस्टम की नब्ज पकड़ सके। खासकर पॉलिटिक्स में कुछ राहत सी मिल जाए। एक सॉफ्टवेयर ऐसा बन जाए, जो नेताओं पर केन्द्रित हो। नेताओं के मूड को पकड़े। उनके मिजाज को भांप भविष्यवाणी करे कि अब फलां नेता क्या बयान देने वाला है और उनमें कितनी सचाई होगी, कितना झूठ होगा? कौन नेता कल पार्टी में बगावत कर विरोधियों से हाथ मिला लेगा? कौनसी पार्टी समर्थन वापस ले सरकार गिराने के मंसूबे पाल रही है? यह भी पता चले कि आज विपक्ष सदन में किन मुद्दों पर वॉकआउट करेगा? यदि ऐसा हो जाए, तो सदनों में संभावित जूतमपैजार-माइकपैजार, कुर्सीपैजार, धक्क-मुक्कमपैजार आदि से बचा जा सकता है। ऐसे सॉफ्टवेयर बहुत सी समस्याएं हल करने में देश की मदद कर सकते हैं। कल्पना कीजिए, आसन्न सारी समस्याओं की घोषणा होने लग जाए, तो कैसा रहे? सॉफ्टवेयर बता सकता है कि अगले कुछ घंटे महिलओं पर कितने भारी गुजरने वाले हैं? कितने बलात्कार होने वाले हैं? कितनी हत्याएं होंगी? सड़क दुर्घटनाओं में कितने लोग मारे जाएंगे? नेताओं द्वारा कितने और किस पैमाने पर झूठ बोले जाएंगे? भ्रष्टाचार का सेंसेक्स कितना चढ़ेगा। कुल कितना धन भ्रष्टाचार के पेटे जाएगा? कौन कितना कमीशन खाएगा? बाबू आज फिर दफ्तर में नहीं बैठेगा? छह महीने से अटकी फाइल अगले छह महीने चलने की उम्मीद नहीं। फिर आदमी क्यों दफ्तर के चक्कर लगाए? दो पड़ोसी आज किस बात पर लड़ बैठेंगे? इससे उनको खासी तैयारी का वक्त मिल जाएगा। सेंसेक्स कितना गोता खाने के मूड में है, ताकि उसे वक्त से पहले ही थामा जा सके। क्लास में आज फिर लेक्चरर दर्शन नहीं देंगे। क्लास खाली जाएगी, यह पता चले तो स्टूडेंट्स क्लास में क्या लेने जाएं? सच, ऐसे सॉफ्टवेयर तो बहुत काम के साबित हो सकते हैं। छोटे-छोटे संकटों से लेकर बीस सूत्री, पंचवर्षीय समस्याओं तक का खाका पल में सामने आ जाएगा। यह भी पता लगे कि वारदात होगी और पुलिस आदतानुसार कितनी लेट पहुंचेगी या हो सकता है धौंस में आ जाए तो नहीं भी पहुंचे? कितने फरियादियों को थानों से बिना रपट के टरका दिया जाएगा? किन-किन पर बेवजह पुलिस के डंडे-फंडे, धोल-धप्पे पड़ने वाले हैं? ऐसा होने लगे, तो अपराधियों की भी खैर नहीं। वे प्लानिंग करें और इधर सॉफ्टवेयर महोदय सारा कच्चा-चिट्ठा खोल दें? यहां, अपराधी होशियार निकले तो, वे बीच में ही प्लानिंग चेंज कर सकते हैं। जैसे किसी का अपहरण करने जाएं और अपहरण छोड़ किसी को टपका आएं। सब कुछ संभव है। फिर तो सॉफ्टवेयर बहुद्देश्यीय साबित हो सकता है। सरकारें भी सारी समस्याओं का हल सॉफ्टवेयर में खोज सकती हैं। वे यह बहाना कर ज्यादा निकम्मी भी हो सकती हैं कि फलां खतरे के बारे में सॉफ्टवेयर ने बताया ही नहीं था। या केन्द्र राज्य को धमका कर कहे कि वारदात से पहले सॉफ्टवेयर ने राज्य को चेता दिया था।
March 01, 2008
लड़कियां तो साइकिल फिर भी नहीं चलाएंगी?
सोचा तो यह गया था कि लड़कियों को साइकिल मिलें। वे साइकिल चलाते हुए स्कूल आएं। आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी स्कूल से ही चढ़ें। अहा, क्या नजारा है, गांव की पगडंडियों पर दो चोटियों वाली लड़कियां साइकिल चलाते हुए स्कूल की ओर बढ़ रही हैं। आपस में बतियातीं, हंसी-मजाक करती, पैडल दर पैडल आत्मविश्वास बटोर रही हैं। गांव की आत्मा खुद को धन्य समझ रही है कि बेटियां उसके आगोश में सलीके से पल-पढ़-बढ़ रही हैं। गांव की रपटीली, पगडंडियों पर जवां होतीं बेटियां सीने में कुछ करने का जोश जगा रही हैं।
लेकिन अफसोस, सीन इससे कुछ उल्टा है। सीन कुछ यूं बन रहा है कि लड़कियां पगडंडियों के किनारे हैं और उन्हीं के भाई या अन्य लड़के उन साइकिलों पर मस्ती करते या राह में लड़कियां छेड़ते मुंह चिढा़ रहे हैं। दरअसल साइकिलें इश्यू हुई लड़कियों के नाम और अब उन पर सवार हैं उनके भाई, पिता या अन्य पड़ौसी, रिश्तेदार।
साइकिलों का यह किस्सा राजस्थान का है। सरकार ने पिछले बजट में यह घोषणा की थी कि स्कूली छात्राओं को ३०० रुपए में साइकिल दी जाएंगी। उसकी परिणति अब अगले बजट के बाद हो रही है। तब तक कुछ लड़कियां साइकिलों पर बैठने की हसरत लिए अगली कक्षाओं में पहुंच गईं, तो कुछ स्कूल छोड़ गईं या फिर कुछ बाली उम्र में ही उनकी मर्जी के बगैर पिया संग भेज दी गईं।
दिखने में यह बात काफी हल्की भी लग सकती है और मजाक में भी उड़ सकती है। लेकिन ऐसा मैंने कुछ गांवों में देखा है। जिन लड़कियों के नाम पर साइकिलें ली गईं, उनका अधिकार बस दस्तखत भर करना था। अब वे घर के पुरुषों की थाती हैं। वे उन पर घूम सकते हैं। बाजार जा सकते हैं। खेत से चारा ला सकते हैं। और नहीं तो उनके भाइयों के लिए आवागागर्दी का जरिया तो बन ही सकती हैं। लड़कियां पहले की तरह पैदल आती हैं। बस से आती हैं या फिर अन्य उपलब्ध साधनों से। संभव है उन्हें हिदायतें भी मिलीं होंगी कि खबरदार, साइकिलों के हाथ जो लगाया। पुरुष मानसिकता के बोझ से दबे घरों में यह कोई आश्चर्य नहीं है।
इसके विपरीत हो यह भी सकता है कि घर के पुरुष लड़कियों को सपोर्ट करें। उन्हें खुद साइकिल सिखाएं और चलाने के लिए प्रेरित करें। उनमें आत्मविश्वास जागृत करने का यह पहला पायदान हो सकता है। इसके विपरीत उनके मन में यह पैबस्त किया जाएगा कि साइकिल वगैरह चलाना लड़कियों का काम नहीं है। वे दिल में यही डर मिश्रित हिदायत लिए कॉलेज चली जाएंगी या फिर ससुराल। स्कूल वालों को भी शायद ही जिम्मेदारी का अहसास हो कि वे ही कुछ पहल करें।
...गांव की आत्मा निस्संदेह ही कष्ट पा रही होगी।
लेकिन अफसोस, सीन इससे कुछ उल्टा है। सीन कुछ यूं बन रहा है कि लड़कियां पगडंडियों के किनारे हैं और उन्हीं के भाई या अन्य लड़के उन साइकिलों पर मस्ती करते या राह में लड़कियां छेड़ते मुंह चिढा़ रहे हैं। दरअसल साइकिलें इश्यू हुई लड़कियों के नाम और अब उन पर सवार हैं उनके भाई, पिता या अन्य पड़ौसी, रिश्तेदार।
साइकिलों का यह किस्सा राजस्थान का है। सरकार ने पिछले बजट में यह घोषणा की थी कि स्कूली छात्राओं को ३०० रुपए में साइकिल दी जाएंगी। उसकी परिणति अब अगले बजट के बाद हो रही है। तब तक कुछ लड़कियां साइकिलों पर बैठने की हसरत लिए अगली कक्षाओं में पहुंच गईं, तो कुछ स्कूल छोड़ गईं या फिर कुछ बाली उम्र में ही उनकी मर्जी के बगैर पिया संग भेज दी गईं।
दिखने में यह बात काफी हल्की भी लग सकती है और मजाक में भी उड़ सकती है। लेकिन ऐसा मैंने कुछ गांवों में देखा है। जिन लड़कियों के नाम पर साइकिलें ली गईं, उनका अधिकार बस दस्तखत भर करना था। अब वे घर के पुरुषों की थाती हैं। वे उन पर घूम सकते हैं। बाजार जा सकते हैं। खेत से चारा ला सकते हैं। और नहीं तो उनके भाइयों के लिए आवागागर्दी का जरिया तो बन ही सकती हैं। लड़कियां पहले की तरह पैदल आती हैं। बस से आती हैं या फिर अन्य उपलब्ध साधनों से। संभव है उन्हें हिदायतें भी मिलीं होंगी कि खबरदार, साइकिलों के हाथ जो लगाया। पुरुष मानसिकता के बोझ से दबे घरों में यह कोई आश्चर्य नहीं है।
इसके विपरीत हो यह भी सकता है कि घर के पुरुष लड़कियों को सपोर्ट करें। उन्हें खुद साइकिल सिखाएं और चलाने के लिए प्रेरित करें। उनमें आत्मविश्वास जागृत करने का यह पहला पायदान हो सकता है। इसके विपरीत उनके मन में यह पैबस्त किया जाएगा कि साइकिल वगैरह चलाना लड़कियों का काम नहीं है। वे दिल में यही डर मिश्रित हिदायत लिए कॉलेज चली जाएंगी या फिर ससुराल। स्कूल वालों को भी शायद ही जिम्मेदारी का अहसास हो कि वे ही कुछ पहल करें।
...गांव की आत्मा निस्संदेह ही कष्ट पा रही होगी।
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