March 18, 2008

जंक्शन का सीन देख कष्ट दे गया स्मृतियों में आया गांव

यह वाकई ऐसा ही सीन था, जिसे देख हर कोई ठिठका। रुका। देखा। और मंद-मंद मुस्काते हुए आगे बढ़ गया। वे सात-आठ युवा थे। रंग-गुलाल से सने। अपनी वेशभूषा और अंदाज से निस्संदेह ग्रामीण। आस-पास के माहौल से पूरी तरह बेखर। अपने में मग्न। होली का उल्लास बांटते। ढप, मंजीरे और बांसुरी के साथ होली के गीतों से हर किसी को मंत्रमुग्ध कर रहे थे।
दरअसल आज सुबह मैं पिताजी को छोड़ने जयपुर जंक्शन पर गया था। वहां इन मस्ताने युवाओं की टोली को ढप के साथ नाचते-गाते देखने का यह निराला अनुभव था। महानगरीय प्रसव पीड़ा से छटपटाते शहरों में में ऐसे दृश्यों की कल्पना ही बेमानी है। शुरू-शुरू में मेरी तरह हर कोई उन्हें स्टेशन पर देख चौंक रहा था। लेकिन इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। यहां ऐसे दृश्यों से सामना होने पर गांव से आकर शहरों में स्थापित हुए लोग कनखियों से देख इसलिए निकल लेते हैं, कि कहीं उनके अन्दर के देहाती को कोई पहचान ना ले। ( हमारी अधिकांश शक्ति अपने अन्दर के देहाती को मारने में जाया होती है।) खैर, वे नाचने-गाने में इतने मशगूल थे कि उन्हें ऐसी किसी चीजों से मतलब होना भी नहीं था। वे जयपुर कमाने-धमाने आए ग्रामीण युवा थे और होली पर गांव लौट रहे थे। गांव की होली उन्हें बुला रही थी। जाते समय उन्होंने दोस्तों के साथ अपनत्व भरी होली खेली। नेह के रंग-गुलाल मले। और विदाई की वेला में यहीं से ढप, मंजीरे, बांसुरी का इन्तजाम कर लिया। ट्रेन के इन्तजार में वे फागुनी रसिया प्लेटफॉर्म पर ही रंग जमाने लगे। वहां सैकड़ों लोग और भी थे, जो गंतव्य के लिए अपनी-अपनी ट्रेनों के इन्तजार में चहल-कदमी कर रहे थे।
यह सीन देख गांव की यादें ताजा होना लाजिमी था। मेरी स्मृतियों में गांव का फागुन आ बसा। वे भी क्या दिन थे, जब एक माह पहले ही होली का डांडा रोपा जाता। गांव की गलियों से लेकर घर-घर से होली के गीतों की अनुगूंज सुनाई पड़ती। पेड़-पौधे नया बाना धारण कर लक-दक हो उठते। खेतों से उठती सरसों की गंध से सारा माहौल प्रमुदित हो उठता। चारों तरफ से फाग झरने लगता। अन्तर्मन आल्हादित हो जाता। हर शख्स अलबेला मस्ताना सा नजर आता। बच्चे लोग जहां गांव की गलियों से लेकर खेतों तक चांदनी रात में लुका-छिपी का खेल खेलते, वहीं लड़कियां दस-बीस के समूह में मौहल्ले-मौहल्ले में गीतों भरी सांझ संजोती। इनसे बचना नामुमकिन था। रात को गांव में दो-तीन जगह होली का दंगल होता था। उनमें होली के गीतों भरा कॉम्पिटिशन होता। आधी रात बाद तक चलता रहता यह दौर। बीच-बीच में धरे जाते स्वांग बांधे रखते थे। हम बच्चे दिन में क्लास में ही तय कर लेते थे कि आज कैसे छुपकर घर से निकलना है, क्योंकि वे परीक्षाई दिन होते थे। घर वाले पढ़ने पर जोर देते, और हम रात को स्वांग देखने की तिकड़में खोजते रहते। मैं और मेरा दोस्त हमारे घर की छत पर बल्ब लटका पढ़ते थे और घर वालों के सो जाने के बाद छत से कूदकर फरार होते थे। बीस-पच्चीस दिनों की उस उत्सवधर्मिता से कटे रहना वाकई असंभव था। कई लोग अलगोजा इतना शानदार बजाते थे, कि आज शहर में आकर उनकी उस कला का अहसास होता है। ज्यादातर ग्वाले, किसान ही ढप, अलगोजा, झांझ-मंजीरे बजाने में निष्णात थे। उन्होंने इन्हें सीखने के लिए कहीं, किसी डिप्लोमा पाठ्यक्रम में एडमिशन नहीं लिया। वहीं गलियों, खेतों, पशुओं के पीछे भागते-भागते सुर फूंकते-फूंकते सीख गए। शुरू-शुरू में अनगढ़ से, बेसुरे से, लेकिन निरन्तर अभ्यास से इतने प्रवीण होते गए कि वह कर्णप्रिय आवाज आज भी कानों में गूंजती है। सच, वैसी मिठास राजधानी में कई बड़े-बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी नहीं हुई।
लेकिन पिछले दस-पन्द्रह साल में गावों की यह कला भी गर्दिश में है। दिल में हूक सी उठती है। अब होली पर गांव जाते हैं- वैसे नजारों की कल्पना में खोए, लेकिन वह सब नहीं देख निराशा होती है। गांव के लोग एक-दूसरे से कटे हैं। शहरों जैसे सैटबैक छोड़े जा रहे हैं दिलों के बीच। इतनी जूतमपैजार सदनों में विरोधी नेताओं के बीच भी नहीं होती, जितनी दो दलों के समर्थक पड़ोसियों में हो जाती है। साल भर एक-दूसरे से इसलिए खिंचे रहते हैं कि फलां अमुक पार्टी का समर्थक है। लट्ठम-लट्ठा आम बात है। बिना मारपीट, या घोर तनाव के वोटिंग नहीं होती। जलन, ईर्ष्या घोर चरम पर हैं। केस-मुकदमों की संख्या बढ़ रही है। भाई-भाई खून के प्यासे हैं। जनप्रतिनिधियों ने इस कमजोर नस को पकड़ा है। विकास के वादों की बजाय वे केस-मुकदमों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं।
ऐसे में बताइए कहां वह गांव, कहां वह होली, और कहां वह निरापद, निराला आनन्द? जब-जब स्मृतियों गांव जुटता है, कष्ट ही देता है।

2 comments:

Anonymous said...

kaphi aacha likha h

Anonymous said...

agle lekh ka intzar kr rha hoon