March 01, 2008

लड़कियां तो साइकिल फिर भी नहीं चलाएंगी?

सोचा तो यह गया था कि लड़कियों को साइकिल मिलें। वे साइकिल चलाते हुए स्कूल आएं। आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी स्कूल से ही चढ़ें। अहा, क्या नजारा है, गांव की पगडंडियों पर दो चोटियों वाली लड़कियां साइकिल चलाते हुए स्कूल की ओर बढ़ रही हैं। आपस में बतियातीं, हंसी-मजाक करती, पैडल दर पैडल आत्मविश्वास बटोर रही हैं। गांव की आत्मा खुद को धन्य समझ रही है कि बेटियां उसके आगोश में सलीके से पल-पढ़-बढ़ रही हैं। गांव की रपटीली, पगडंडियों पर जवां होतीं बेटियां सीने में कुछ करने का जोश जगा रही हैं।
लेकिन अफसोस, सीन इससे कुछ उल्टा है। सीन कुछ यूं बन रहा है कि लड़कियां पगडंडियों के किनारे हैं और उन्हीं के भाई या अन्य लड़के उन साइकिलों पर मस्ती करते या राह में लड़कियां छेड़ते मुंह चिढा़ रहे हैं। दरअसल साइकिलें इश्यू हुई लड़कियों के नाम और अब उन पर सवार हैं उनके भाई, पिता या अन्य पड़ौसी, रिश्तेदार।
साइकिलों का यह किस्सा राजस्थान का है। सरकार ने पिछले बजट में यह घोषणा की थी कि स्कूली छात्राओं को ३०० रुपए में साइकिल दी जाएंगी। उसकी परिणति अब अगले बजट के बाद हो रही है। तब तक कुछ लड़कियां साइकिलों पर बैठने की हसरत लिए अगली कक्षाओं में पहुंच गईं, तो कुछ स्कूल छोड़ गईं या फिर कुछ बाली उम्र में ही उनकी मर्जी के बगैर पिया संग भेज दी गईं।
दिखने में यह बात काफी हल्की भी लग सकती है और मजाक में भी उड़ सकती है। लेकिन ऐसा मैंने कुछ गांवों में देखा है। जिन लड़कियों के नाम पर साइकिलें ली गईं, उनका अधिकार बस दस्तखत भर करना था। अब वे घर के पुरुषों की थाती हैं। वे उन पर घूम सकते हैं। बाजार जा सकते हैं। खेत से चारा ला सकते हैं। और नहीं तो उनके भाइयों के लिए आवागागर्दी का जरिया तो बन ही सकती हैं। लड़कियां पहले की तरह पैदल आती हैं। बस से आती हैं या फिर अन्य उपलब्ध साधनों से। संभव है उन्हें हिदायतें भी मिलीं होंगी कि खबरदार, साइकिलों के हाथ जो लगाया। पुरुष मानसिकता के बोझ से दबे घरों में यह कोई आश्चर्य नहीं है।
इसके विपरीत हो यह भी सकता है कि घर के पुरुष लड़कियों को सपोर्ट करें। उन्हें खुद साइकिल सिखाएं और चलाने के लिए प्रेरित करें। उनमें आत्मविश्वास जागृत करने का यह पहला पायदान हो सकता है। इसके विपरीत उनके मन में यह पैबस्त किया जाएगा कि साइकिल वगैरह चलाना लड़कियों का काम नहीं है। वे दिल में यही डर मिश्रित हिदायत लिए कॉलेज चली जाएंगी या फिर ससुराल। स्कूल वालों को भी शायद ही जिम्मेदारी का अहसास हो कि वे ही कुछ पहल करें।
...गांव की आत्मा निस्संदेह ही कष्ट पा रही होगी।

3 comments:

सागर नाहर said...

:(

ghughutibasuti said...

मुझे नहीं लगता गाँव की आत्मा रो रही होगी । उसे युगों से आदत है ऐसी ही बातों की ।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

very good