March 13, 2008

एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को

डरे, सहमे, लज्जित से हॉकी खिलाड़ी दबे पांव सरजमीं पर लौट आए। कुछ कैमरामैन उनके चेहरों को फोकस करने एयरपोर्ट पहुंचे। अपने हिसाब से कामयाब भी रहे। इससे पहले ही खिलाड़ियों के गुनहगार मुद्रा में मीडिया में फोटो छप चुके थे। हॉकी का काला दिन। हॉकी में हाहाकार। हॉकी को श्रद्धांजलि। देश शर्मसार। जितने और जिस चतुराई से हैडिंग कौशल का परिचय दिया जा सकता था, दिया गया। अखबारों ने एक तरह से जज की कुर्सी पर पांव पसार साबित ही कर दिया था कि अब हॉकी खत्म ही समझो। लिखने का ही कर्म और श्रम करने वाले बुद्धिजीवियों ने भी पारिश्रमिक के बदले गालियां देने में कसर नहीं रखी। कुछ ने गिल से लेकर हॉकी फैडरेशन के पदाधिकारियों को अपनी लेखनी का आहार बनाया। हर शख्स, जो खुद को और किसी लायक समझे या नहीं, एक अदद टिप्पणी के काबिल समझता ही है, कोसने की ठीक-ठाक रस्मअदायगी कर डाली। हारे को हरिनाम, जीते सो पहलवान। हार के बाद सोचिए भला, सिवाय इन बातों के बचता ही क्या है?
तो खिलाड़ी लौट के देश आ गए। उनको आना ही था। जाते कहां? ओलम्पिक की फ्लाइट वे पकड़ नहीं पाए थे। कहा गया, देश अस्सी साल में पहली बार ओलम्पिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाया। इसके लिए कई चश्मों, नजरियों और वैचारिक दिमागों ने जोर लगाया। अपने हिसाब से कई कारण गिनाए गए, हल भी सुझाए गए। अब इनसे पूछा जाए, ये विश्लेषण पहले कहां थे? क्या हम पागलपन भरी उम्मीद से थे कि हॉकी का ओलम्पिक जीत ही लाएंगे? कब तक ध्यानचंद के ध्यान में हॉकी के खयाली ओलम्पिक जीतते रहेंगे? यह सुखद सलौना सपना कब टूटेगा? हॉकी का ग्राउण्ड क्या है? जहां फैडरेशन ही हॉकी के मैदानों की हरी-भरी घास चरने की जिद्द पर अड़ी हो, वहां क्या तो खिलाड़ियों की पौध तैयार करेंगे और क्या ओलम्पिक जीतेंगे? हम हॉकी की हुंकार क्यों भरते हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और यह कंगूरा हम हर हाल में माथे पर चिपकाए रखना चाहते हैं। हम अपनी औलाद को तो क्रिकेट में ठेल रहे हैं, बाकियों से उम्मीद करते हैं वे ही हॉकी में कुछ करें। हर बच्चे में एक भावी सचिन की खोज जारी है। बच्चों को महंगे क्रिकेट क्लबों में भेज रहे हैं। क्रिकेट का भविष्य संवारने की जिद्द के चलते महंगे विदेशी कोच आयात कर रहे हैं। सनकपन की हद तक क्रिकेटरों को मण्डी में खड़ा कर बोलियां लगा रहे हैं। देश के हर ग्राउण्ड को हम क्रिकेट ग्राउण्ड में बदल डालने को कृत संकल्पित हैं। किसी भी हालत में, क्रिकेट मैच की टिकट हथिया खुद को धन्य समझ और हॉकी की दुर्दशा पर हाय-हाय करने वाले लोग हैं हम। चौके-छक्कों पर तालियां बजा, मौका लगते ही हॉकी को गरियाने वाले लोग हैं हम। कसम खाइए, कितने लोग हॉकी खिलाड़ियों के नाम जानते हैं?
अभी तक हॉकी की हार पर काफी अनर्गल प्रलाप हो चुका। सिर धुने जा चुके। अब कुछ सार्थक सोचिए, आखिर सोचने वालों का देश है हमारा। उधर देखिए, मैदानों में लटें घुस गई हैं। इल्लियों का जमावड़ा है। कुतर-कुतर हॉकी खाने के मजे हैं। स्टिक को दीमकें खोखला कर रही हैं। खिलाड़ियों का डीए भी कुतरने से गुरेज नहीं।
इन हालातों में भी फैडरेशन का अध्यक्ष कुर्सी से चिपका है। देश मैदान छोड़ आया, और ये कुर्सी तक नहीं छोड़ना चाहते। एक बेशर्म जिद्द सी है। ऐसे हालात में क्या आपको अब भी लगता कि
एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को।

3 comments:

सागर नाहर said...

सुरजीतजी
सच कहते हैं आप कि एक ही गिल काफी है ... पर क्या वाकई मुझे यह कहने का अधिकार है? क्यों कि जैसा आपने कहा सचमुच मैं देश के हॉकी खिलाड़ियों के नाम नहीं जानता और हाँ सारे क्रिकेट के खिलाड़ियों के भी नहीं।
परन्तु ग्लैमर और मीडिया के क्रिकेट प्रेम के चलते कुछेक नाम तो जानने लगा हूँ।

समय चक्र said...

सही कह रहे है कि एक ही गिल है हाकी मे गुल खिलने के लिए. एक टी.वी. चैनल मे देखा है उन्होंने अपना पड़ छोड़ने से भी इनकार कर दिया है लगता है सरदार जी अभी और हाकी मे और गुल खिलाना चाहते है

manoj said...

kya aap jante hai ki hockey kya cheez hai janab. pehle puri jankari lekar aye fir apni tuti bajaye. warna ateet hi nahi vartman bhi aap par hasega.