July 01, 2008

जाणता राजा (राजा सब जानता है)

कल रात जयपुर के सूरज मैदान में जाणता राजा देखा। जाणता राजा अर्थात राजा सब जानता है। यह छत्रपति महाराज शिवाजी पर बाबा साहिब पुरन्दरी लिखित भव्य नाटक है। इसमें शिवाजी की हिन्दवी स्वराज की कल्पना को खुले आकाश तले, विशाल, वास्तविक से लगने वाले मंच पर साकार किया गया। मंच किसी किले जैसा आभास देता था। संभवतः यह हिन्दुस्तान की पहली ऐसी महानाट्य प्रस्तुति होगी, जिसमें हाथी, घोड़े और ऊंटों का प्रयोग किया गया। यह नाटक देश प्रेम से ओत-प्रोत, तात्कालिक हिन्दुस्तान पर विदेशी आक्रान्ताओं की ज्यादती और स्वराज के लिए उनसे अकेले दम लोहा लेते छत्रपति महाराज शिवाजी की तड़प को अभिव्यक्त करने में कामयाब रहा।
तड़प तो वहां बैठे हजारों दर्शकों में भी कम नहीं थी। पूरा मैदान खचाखच भरा था। उससे ज्यादा दिलों में आग। कोई विरला ही दर्शक होगा, जिसके रोम कूपों से जोश की ज्वाला न निकली हो। रह-रह कर शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के नारे भी लगे। खासकर, अफजल खान को शिवाजी द्वारा मारे जाने के दृश्य पर कई दर्शक मुट्ठियां कसे नजर आए। दरअसल आज के अफजल गुरु के स्मरण ने उनको बेचैन कर दिया और उन्होंने एक दूसरे को इस आशय का मैसेज भी भेजा कि उस अफजल खान को तो शिवाजी ने सबक सिखाया, लेकिन आज के इस अफजल गुरु की मौत की सजा पर आखिर कब तामील होगी। आज का स्याणा राजा कब फरमान सुनाएगा?
नाटक के दौरान एक ही सवाल मन में उमड़ रहा था। क्या आज का राजा सब कुछ जाणता है? या फिर सत्ता के इर्द-गिर्द की ऊंची दीवारों के पार वह कुछ नहीं जाणता। क्या यह काणा राजा है, जिसके आगे सब कुछ घटित होता है फिर भी इसे कुछ दिखाई नहीं देता। देखकर भी आंखें मुंदी होने का अभिनय करता है। यह अभिनय के उच्च शिखर पर है। देखकर मुंह फेर लेने का अभिलाषी है यह राजा। उस राजा का संकल्प था कि धरती उसकी पत्नी है, प्रजा उसकी संतान। और प्रजा को संतान की तरह ही पालित-पोषित किया। मगर आज का राजा सिवाय इसके क्या संकल्प ले सकता है कि यह कुर्सी उसकी रखैल है और प्रजा उसकी वोट बैंक। जिसे जब चाहे अपनी इच्छानुसार कभी भी मसल, कुचल सकता है। इसके दिल में सिर्फ सत्ता की वासना की हिलोरें मारती हैं। ये उद्दाम लहरें, सत्ता के गलियारों में टकराती रहती हैं।
उधर, प्रजा सिर फोड़ती है। सिर धुनती है। कोसती है। गालियां बकती है। इससे ज्यादा उसके हिस्से में कुछ है नहीं। लेकिन यह राजा कब जाणेगा?

5 comments:

ghughutibasuti said...

और फिर प्रजा काणे राजा को कुरसी से उतार अंधे राजा का राज्याभिषेक करती है।
घुघूती बासूती

कुश said...

सुना तो बहुत है इस नाटक के बारे में.. आज शाम को ही देख कर आएँगे..

Udan Tashtari said...

बहुत पुराना नाटक है. बोर्ड हमेशा देखे, नाटक कभी न देख पाये. आपने एक बार फिर याद दिलाया. अब शायद कभी मौका लगा तो जरुर देखने की इच्छा रहेगी. आभार इस जानकारी के लिए.

संजय बेंगाणी said...

अहमादाबाद में भी इसके कई शो कई बार आयोजित हुए है. सभी सफल रहे. टिकट का मूल्य बहुत अधिक होते हुए भी. लोगो के मन में शिवाजी के प्रति बहुत सम्मान जो है. इतिहास की किताबो में भले ही उन्हे पहाड़ी चुहा और मुगलों को महान कहा जाता हो :)

अनुनाद सिंह said...

आपने इस नाटक को देखने की तीव्र इच्छा जगा दी!