February 28, 2008
आया मौसम बजटियाने का...
ये उथल-पुथल भरे दिन हैं। कुछ उथले हैं, कुछ पुथले हैं। सर्दी की विदाई, गर्मी की आहट, बसंत की कविताई। काव्यमना लेखक कहते हैं, आए दिन अभिसार के, प्रियतम से मिलने के दिन हैं ये। लेकिन प्रियतमाओं के मन में ऐसा कोई उल्लास नहीं है। मिलन की ऐसी कोई उत्कंठा भी नहीं है। वे इस समय टकटकी बांध के देश के वित्तमंत्री की ओर निहार रही हैं। उन्हें यह शख्स छलिया लगता है। निगाहें कहीं पे, निशाना कहीं पे। क्या पता, कब नजरें टेढ़ी करे और क्या चाल चल दे। इसलिए मिलन की सारी जल्दबाजियां फिलहाल स्थगित हैं। बजट को लेकर अफवाहों से भरे दिन हैं। आम पब्लिक के कशमकश भरे दिन हैं। बासंती नहीं, गर्दिश के दिन हैं। क्या महंगा होगा? क्या सस्ता होगा? कौनसे नए कर करों की अन्तहीन फेहरिश्त की शोभा बढ़ाएंगे? क्या कोई छूट भी मिलने वाली है? वित्तमंत्री नामक शख्स के हाथों इस बार कौनसे शर छूटेंगे कि उम्मीदों के बिजूके धड़म-धड़म नीचे आ गिरेंगे?। ऐसे ढेर सारे सवालों की मण्डी में बेचैनी का आलम है। आम आदमी की भ्रमित आत्मा बेचैनी से चहल-कदमी कर रही है। अपने आप से ही बार-बार सवाल-अभी क्या खरीद लें? क्यों न खरीद लें? इस समय यह भारतीय मानसिकता काफी पसोपेश में है। उसकी नजरों में महंगाई का ग्लोब घूम रहा है। रगों में जैसे रक्त की जगह पेट्रोल-डीजल दौड़ने लगा है। तन-मन में रसोई गैस का आफरा उठ रहा है। एकाएक गैस्ट्रिक ट्रबल बढ़ने लगी है, जो धीरे-धीरे पूरे देश के पेटों में घुस खलबली मचा रही है। महंगाई जायके में खराशें घोल रही है। इन दिनों सारी आत्माओं में खलबली मच जाती है। आम आदमी अपनी आदत अनुसार दुबलाने लगता है, वहीं व्यापारी स्टॉक के बारे में सोचने लगते हैं। क्या रखना है, क्या जमाना है? सब तय है, क्योंकि इनके पिछवाड़े से निकला रास्ता सीधे सत्ता के गलियारों तक पहुंचता है। इसलिए बजट पूर्व की भनक तैरती हुई आती है और गंध सूंघ व्यापारी जमा-धमा का जुगाड़ा कर लेते हैं।खयालों में अचानक वित्तमंत्री उभरने लगे हैं। वही पारम्परिक वित्तमंत्री। मुस्काता हुआ। एक-एक मुस्कान में ढेरों रहस्य रेखाएं। हाथों में ब्रीफकेस। जिनमें बंद देश का भाग्य। ब्रीफकेस संसद की टेबल पर खुलेगा और इससे निकला जिन्न समूचे देश में हजारों-लाखों शरीरों में विभक्त होकर बिखर जाएगा। जनमानस साल भर कांव-कांव करता, अपने तन-मन का ग्रास बनते देखने को अभिशप्त है।
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1 comment:
aacha likha h
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