इसमें एक्शन है। ड्रामा है। सितारे हैं। राजनीति है। बिल्लो रानी का डांस है।...और क्रिकेट भी है। आईपीएल का तमाशा है ही ऐसा। आदमी क्रिकेट से बोर नहीं हो सकता। बोर होगा, तो बिल्लो रानी को देखने लगेगा। बिल्लो रानी ढंग से नहीं ठुमकी तो वीवीआईपी दीर्घा की ओर गर्दन उचकाकर सितारों को देख लेगा। देशी में दम ना हो तो फॉरेर्नर चीयर गर्ल भी तो हैं। डांस समझ में नहीं आए तो चिकनी टांगे ही काफी हैं मन लगाने को। यहां सब कुछ देखने की चीज है। और तबीयत से देखा जा सकता है। फुल्ली एंटरटेन है।
आईपीएल नाम का यह तमाशा कई प्रकार के मसालों से बनी खिचड़ी है। नूडल्स है। पित्जा है। बर्गर है। सब कुछ है। कुल मिलाकर सुस्वादु सा मामला बन गया है। यह बड़ी बात है कि आज सब कुछ महंगे के बावजूद सुस्वादु चीज भी परोसी जा रही है। कम से कम ४४ दिन तक दिल लगी का सा खेल चलता रहेगा। देश को, देश के कृषि मंत्री के प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने मंत्री पद की जिम्मेदारी के बीच, प्रधानमंत्री बनने के ख्वाबों के बगीचे में दिन-रात टहलते हुए, किसानों की कर्जा माफी का यश लूटने के पुरजोर प्रयासों और सोनिया प्रधानमंत्री पद से दूर रहें इस किस्म की राजनीति के बीच भी क्रिकेट के लिए इत्ता कुछ कर डाला। और करते रहेंगे।
यहां कुछ बुनियादी सवाल खड़े हो गए हैं। यह क्रिकेट है या तीन घंटे की बॉलीवुड फिल्म है। वैसे यह समझने में माथापच्ची करने की कोई जरूरत नहीं। जिनको क्रिकेट समझ में नहीं आती, वे फिल्म के तौर पर देख सकते हैं। और जिनको फिल्म से परहेज है, वे क्रिकेट समझ तीन घंटे मजे से बिता सकते हैं। जिनको दोनों से एलर्जी हो, वे अक्सर कला प्रेमी लोग होते हैं। उनके लिए मजा यह है कि वे चियर गर्ल के डांस में कला के तत्व खोजने की मशक्कत कर सकते हैं। ...और जो तीनों तरफ से रूखे से आदमी हैं, वे तीन घंटे भीड़ का हिस्सा बन इस जिग्यासा में गुजार सकते हैं कि आखिर यहां हो क्या रहा है? हर बंदे के लिए मामला काफी रोचक है। पता भी नहीं लगे और सब कुछ पता भी लग जाए।
दूसरा कठिन सवाल यह उभर रहा है कि जिसका उत्तर खोजा जाना जरूरी है। शाहरुख, प्रीति जिंटा वगैरह भविष्य में भी टिकट बेचते रहेंगे या एक्टिंग वगैरह में भी लौटेंगे। और मान लीजिए टिकट ही बेचते रहे, सारे मैचों में मौजूद रहे तो फिर फिल्मों क्या होगा। यदि क्रिकेट में मन रम गया तो, शाहरुख कोलकाता से ओपनिंग कर सकते हैं। शाहरुख ओपनिंग में उतरे और मोहाली से मैच हुआ तो प्रीति जिंटा गेंदबाजी में हाथ जरूर आजमाएंगी। फिर तो प्रीति गेंद फेंकेंगी और शाहरुख दिल की तरह गेंद को उछाल कैच आउट हो सकते हैं। मामला तब और भी पेचीदा हो सकता है, जब अभिनेता और अभिनेत्री इतनी बार आमने-सामने हुए कि दोनों प्रतिस्पर्धा भूल दिल लगा बैठें और पिच पर ही एक-दूसरे की बाहों में समा जाएं। कुछ भी संभव है।
यदि सितारों ने क्रिकेट सीखा, तो युवराज, धोनी, गांगुली वगैरह इनके संग रह-रह एक्टिंग जरूर सीख जाएंगे। (वैसे अब भी क्रिकटे से ज्यादा एड वगैरह में एक्टिंग करते हैं)। इस तरह इस क्रिकेट में कई खतरे हैं, तो मजे भी हैं। हो सकता है पंवार साब आगे चल प्रधानमंत्री बन जाएं, तो क्रिकेट के लिए काफी कुछ कर सकते हैं। क्रिकेट सीखने पर सब्सिडी दे सकते हैं। जिन देशों की यात्रा निकलेंगे, वहां क्रिकेटर्स को भी साथ ले जाएंगे। मैचों के जरिए मैत्री को प्रगाढ़ करेंगे। मुशरर्फ को क्रिकेट के मैदान में चुनौती दे सकते हैं। आने वाले कुछ दिनों तक देश वासियों को ऐसे-वैसे ही खयाल आते रहेंगे। लगेगा, यह देश पंवार साब और उनका बोर्ड ही चला रहा है।
April 19, 2008
April 16, 2008
महंगाई के साथ बयानबाजी के कुछ प्रयोग
लोकसभा में महंगाई पर बयानबाजी जारी है। बयान ही बयान। कुछ धांसू। कुछ फांसू। कुछ इमोशंस से भरे फिल्मी डायलॉगनुमा। सुनकर आंखों में आ जाएं आंसू। तो कुछ शर्मसार कर देने वाले भी। लेकिन नेता सुबह से गला फाड़ रहे हैं। सरकार न शर्मसार हो रही, न इमोशनल होने का उसका कोई मूड है। न टस, न मस। सरकार की ढीठता देख शायद महंगाई खुद ही इमोशनल हो ले, या शर्मसार हो ले। इत्ती शर्मसार हो जाए कि स्वयं ही गिर जाए। क्योंकि कुछ भी हो, महंगाई नेताओं से ज्यादा ढीठ नहीं हो सकती।
महंगाई पर सारी बकवासबाजी के बाद देश के कृषि मंत्री कम क्रिकेट मंत्री भी बयानों की श्रृंखला में अपना योगदान देंगे। यह योगदान अहम होगा, क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था, महंगाई और भविष्य की कुछ तस्वीर होगी। उनके बयान की कुछ भनक लगी है, जिसका लब्बोलुआब यह है-
...तो साथियो, आप सभी जानते हैं कि महंगाई के बाउंसर लगातार जारी हैं। आज सुबह से आप-हम भी खूब झिक-झिक कर चुके हैं। यह सच है कि महंगाई की इस विकट क्रिकेटबाजी से आम आदमी इत्ती बार बोल्ड हो चुका है कि अब क्रीज तक जाने की उसकी हिम्मत नहीं बची। वह झोलेनुमा बैट उठा बाजार रूपी क्रिकेट के मैदान की ओर जाने से डरता है, क्योंकि उसे वहां से फिर बोल्ड होकर लौटना है। वह हमेशा गिरे हुए विकेट की तरह रहता है। लेकिन घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हार-जीत लगी ही रहती है। आज हारे, कल जीते। यूं भी महंगाई आजकल ऑस्टरेलिया सी टीम हो गई है। चाहे जब पीट देती है। चाहे जिसको पीट देती है। लेकिन ध्यान रखें, उसे हमने हराया है, इसे भी पछाड़ देंगे।
जल्द ही आईपीएल शुरू कर रहे हैं। देश की क्रिकेट अर्थव्यवस्था में यह मील का पत्थर साबित होगी। हमने दाल से भी सस्ते टिकट रखे हैं। इसलिए, बाजार जाने की बजाय आदमी, क्रिकेट मैदान का रुख करे तो उसे ज्यादा सुकून मिलेगा। मजदूरी से लौटकर आदमी शाम के भोजन की चिन्ता न करे। सीधा स्टेडियम पहुंच जाए। इस तमाशे का आधी रात तक आनन्द उठाए। भूख की क्या चिन्ता। उपवास प्रिय देश है हमारा।
...तो महंगाई का कुछ यूं भी मुकाबला किया जा सकता है।
महंगाई पर सारी बकवासबाजी के बाद देश के कृषि मंत्री कम क्रिकेट मंत्री भी बयानों की श्रृंखला में अपना योगदान देंगे। यह योगदान अहम होगा, क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था, महंगाई और भविष्य की कुछ तस्वीर होगी। उनके बयान की कुछ भनक लगी है, जिसका लब्बोलुआब यह है-
...तो साथियो, आप सभी जानते हैं कि महंगाई के बाउंसर लगातार जारी हैं। आज सुबह से आप-हम भी खूब झिक-झिक कर चुके हैं। यह सच है कि महंगाई की इस विकट क्रिकेटबाजी से आम आदमी इत्ती बार बोल्ड हो चुका है कि अब क्रीज तक जाने की उसकी हिम्मत नहीं बची। वह झोलेनुमा बैट उठा बाजार रूपी क्रिकेट के मैदान की ओर जाने से डरता है, क्योंकि उसे वहां से फिर बोल्ड होकर लौटना है। वह हमेशा गिरे हुए विकेट की तरह रहता है। लेकिन घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हार-जीत लगी ही रहती है। आज हारे, कल जीते। यूं भी महंगाई आजकल ऑस्टरेलिया सी टीम हो गई है। चाहे जब पीट देती है। चाहे जिसको पीट देती है। लेकिन ध्यान रखें, उसे हमने हराया है, इसे भी पछाड़ देंगे।
जल्द ही आईपीएल शुरू कर रहे हैं। देश की क्रिकेट अर्थव्यवस्था में यह मील का पत्थर साबित होगी। हमने दाल से भी सस्ते टिकट रखे हैं। इसलिए, बाजार जाने की बजाय आदमी, क्रिकेट मैदान का रुख करे तो उसे ज्यादा सुकून मिलेगा। मजदूरी से लौटकर आदमी शाम के भोजन की चिन्ता न करे। सीधा स्टेडियम पहुंच जाए। इस तमाशे का आधी रात तक आनन्द उठाए। भूख की क्या चिन्ता। उपवास प्रिय देश है हमारा।
...तो महंगाई का कुछ यूं भी मुकाबला किया जा सकता है।
April 14, 2008
...गर मनमोहनजी सब्जी बेचने निकलें?
आजकल कई उलटबांसियां सी हो रही हैं। कई बांस उलटे बरेली को हैं। कहां शाहरुख खान करोड़ों कमाने के चक्कर में क्रिकेट के चक्कर में फंस बैठे। उनके आईपीएल के टिकट नहीं बिक रहे। कोलकाता टीम के टिकट बेचते-बेचते पता लग गया है कि टिकट बेचना कोई डॉयलोग बोलने जैसा नहीं है। शुरू से खूब मशक्कत कर रहे हैं। पिक्चर-विक्चर छोड़ पिछले दिनों से लोगो, डे्स, हेलमेट वगैरह के अनावरण में भी खूब व्यस्त रहे। अब टिकट भी पूरे अभिनय के साथ बेचने निकले। हें, हें, हें, आ...पने अपनी फिल्में तो खूब देखी होंगी, अब देखिए अपना क्रिकेट का सुपर-डुपर हिट जलवा। इसमें क्रिकेट भी होगा, एक्टिंग भी होगी। क्रिकेट नहीं भी हुआ, तो गांगुली तो जरूर होगा। आपको जो पसंद आए, देखें। पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें। अरे भाई साब, क्या करते हैं। बोहनी का टाइम है। टिकट खरीद लो। यह आपसे शाहरुख कह रहा है। अरे, उधर कहां से निकल लिए। इधर आओ ना, इतनी सस्ती, फिर भी इतनी बेरुखी। मुंह मोड़े चले जा रहे हैं। अरे ये क्या करते हो, कोई तो आओ। भइया मैं तो यूं बर्बाद हो जाऊंगा। (...और इस तरह शाहरुख के टिकट आशानुसार नहीं बिके। सुपर स्टार निराश हो गया।)
वैसे इस टिकटमारी में कई धांसू सीन बन रहे हैं। उधर, प्रीति जिंटा खुद मोहाली में दुकान पर शानदार काउंटर जमा कर बैठी हैं। आइए, आइए, मैं खुद यानी हीरोइन प्रीति जिंटा टिकट बेचने निकली हूं। यह कोई आलू, तरकारी नहीं है, जो यूं मुंह मोड़कर निकल जाओ। शुद्ध, खांटी क्रिकेट का टिकट है। ले जाइए, सब्जी से भी सस्ती। दाल-चावल, चीनी से भी सस्ती। राम कसम इतने किफायती दामों में पिक्चर का टिकट भी नहीं मिलेगा। यहां आपको क्रिकेट का टिकट मिल रहा है। आइए, पसंद कीजिए और ले जाइए। ५०, १००, १५०, २०० जो भी मन को भाए, ले जाएं। खुद भी लें औरों को भी दिलाएं। एक बार लेंगे, बार-बार आएंगे। नहीं लेंगे, पछताएंगे। इसमें सब कुछ होगा। क्रिकेट भी होगी, छक्के भी होंगे। क्रिकेट न भी हुई तो बिल्लो रानी का शानदार डांस जरूर होगा। महंगाई से निराश हैं, तो मैदान में आकर मन बहलाएं। आपकी कसम, यह झूठ नहीं है। इस तरह प्रीति जिंटा दोपहर तक बैठीं। पर टिकट क्या हुई, सब्जी हो गई। नहीं बिकी। खुद के बैठने के लिहाज से टिकट नहीं निकले। दर्शक न जाने क्या भाव से हो गए हैं, जो पहुंच से एकदम बाहर। या शेयर सूचकांक से हो ऊपर चढ़ गए हैं। हीरोइन को कित्ती चिरौरी करनी पड़ रही है कि भइया नीचे उतरो, ठिकाने पर लौटो। अभी विजय माल्या, मुकेश अम्बानी वगैरह भी शुभ मुहूर्त देख शटर उठाने वाले हैं। अम्बानी को तो सब्जी वगैरह बेचते-बेचते अच्छा-खासा सा अनुभव हो गया। थोक के साथ खुदरा में भी बेच लेंगे। और भी कई घराने खुदरा पर उतर आए हैं।
इससे एक बात तो साफ हुई। इन लोगों को भी पता लगा गया कि टिकट वगैरह बेचना कितना कठिन काम है। वैसे भी महंगाई के जमाने में पब्लिक टिकट कैसे खरीदे। आटे-दाल के भाव से पगलाया आम आदमी टिकट की कैसे सोचे। वह सब्जी मण्डी की ओर निकलने का साहस जुटाए कि मैच देखने के मंसूबे पाले। भाव सुनकर गश खा जाने वाला आदमी टिकट खरीदने के लिए होश कहां से लाए। उसके लिए काफी विकट सी चीज हो गई है टिकट। यह तो शरद पंवार टाइप नेताओं के बस की ही बात है, जो महंगाई के जमाने में कृषि मंत्रालय भी संभाल रहे हैं और क्रिकेट, विश्व क्रिकेट भी।
यदि एक बार मनमोहन सिंह भी सब्जी की दुकान खोल लें, तो पता चल जाए कि सरकार चलाने और सब्जी बेचने में कितना फर्क है। सरकार भले ही, तमाम लेफ्ट, राइट, फ्रन्टबाजी के बावजूद चल जाए, सब्जी बेचना कोई सरकारों का खेल नहीं।
वैसे इस टिकटमारी में कई धांसू सीन बन रहे हैं। उधर, प्रीति जिंटा खुद मोहाली में दुकान पर शानदार काउंटर जमा कर बैठी हैं। आइए, आइए, मैं खुद यानी हीरोइन प्रीति जिंटा टिकट बेचने निकली हूं। यह कोई आलू, तरकारी नहीं है, जो यूं मुंह मोड़कर निकल जाओ। शुद्ध, खांटी क्रिकेट का टिकट है। ले जाइए, सब्जी से भी सस्ती। दाल-चावल, चीनी से भी सस्ती। राम कसम इतने किफायती दामों में पिक्चर का टिकट भी नहीं मिलेगा। यहां आपको क्रिकेट का टिकट मिल रहा है। आइए, पसंद कीजिए और ले जाइए। ५०, १००, १५०, २०० जो भी मन को भाए, ले जाएं। खुद भी लें औरों को भी दिलाएं। एक बार लेंगे, बार-बार आएंगे। नहीं लेंगे, पछताएंगे। इसमें सब कुछ होगा। क्रिकेट भी होगी, छक्के भी होंगे। क्रिकेट न भी हुई तो बिल्लो रानी का शानदार डांस जरूर होगा। महंगाई से निराश हैं, तो मैदान में आकर मन बहलाएं। आपकी कसम, यह झूठ नहीं है। इस तरह प्रीति जिंटा दोपहर तक बैठीं। पर टिकट क्या हुई, सब्जी हो गई। नहीं बिकी। खुद के बैठने के लिहाज से टिकट नहीं निकले। दर्शक न जाने क्या भाव से हो गए हैं, जो पहुंच से एकदम बाहर। या शेयर सूचकांक से हो ऊपर चढ़ गए हैं। हीरोइन को कित्ती चिरौरी करनी पड़ रही है कि भइया नीचे उतरो, ठिकाने पर लौटो। अभी विजय माल्या, मुकेश अम्बानी वगैरह भी शुभ मुहूर्त देख शटर उठाने वाले हैं। अम्बानी को तो सब्जी वगैरह बेचते-बेचते अच्छा-खासा सा अनुभव हो गया। थोक के साथ खुदरा में भी बेच लेंगे। और भी कई घराने खुदरा पर उतर आए हैं।
इससे एक बात तो साफ हुई। इन लोगों को भी पता लगा गया कि टिकट वगैरह बेचना कितना कठिन काम है। वैसे भी महंगाई के जमाने में पब्लिक टिकट कैसे खरीदे। आटे-दाल के भाव से पगलाया आम आदमी टिकट की कैसे सोचे। वह सब्जी मण्डी की ओर निकलने का साहस जुटाए कि मैच देखने के मंसूबे पाले। भाव सुनकर गश खा जाने वाला आदमी टिकट खरीदने के लिए होश कहां से लाए। उसके लिए काफी विकट सी चीज हो गई है टिकट। यह तो शरद पंवार टाइप नेताओं के बस की ही बात है, जो महंगाई के जमाने में कृषि मंत्रालय भी संभाल रहे हैं और क्रिकेट, विश्व क्रिकेट भी।
यदि एक बार मनमोहन सिंह भी सब्जी की दुकान खोल लें, तो पता चल जाए कि सरकार चलाने और सब्जी बेचने में कितना फर्क है। सरकार भले ही, तमाम लेफ्ट, राइट, फ्रन्टबाजी के बावजूद चल जाए, सब्जी बेचना कोई सरकारों का खेल नहीं।
April 11, 2008
नजरें जो घड़ियाल हो गई हैं...
सरकार चुनावों का गणित बिठाने में व्यस्त है। महंगाई बेशुमार बढोतरी पर है, पर सरकार को न जगाइए। वह अभी चुनाव जीतने का दिवास्वपन देख रही है। क्योंकि उसने किसानों का कर्जा माफ कर दिया है। बजट लोक लुभावन बना दिया है। तीन साल पब्लिक की रगड़ाई कर चौथे सार का बजट का गोलमाल कर दिया। लो हो गई जीत की हकदार। अब उसकी कवायद इस बात पर है कि चुनाव की तारीख कब मुकर्रर की जाए। पर विपक्ष को भी कुछ मत बोलिए। उसकी हालत भी कोई ठीक नहीं है। कुछ अन्दरूनी कलह, ऊपर से मुद्दों का अकाल। अन्दर निपटने में जितनी ऊर्जा नष्ट होती है, उसके बाद सरकार से लड़ने की उनकी हिम्मत नहीं बचती। हां, उन्होंने एक कार्य में कांग्रेस से बाजी मार ली है। उन्होंने अपना प्रधानमंत्री चुन लिया है। उसके लिए यह उपलब्धि महंगाई पर हाय-हाय करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। सो, उसने वह हासिल कर लिया है, जो अभी कांग्रेस नहीं कर पाई है। कांग्रेस के पास प्रधानमंत्री नहीं है भावी। भाजपा के पास चुनाव से पहले ही प्रधानमंत्री हो गया है। सो , महंगाई उनके लिए भी कोई मुद्दा नहीं रहा। यूं महंगाई पर सोचें, यह वक्त किसके पास है। देश के कृषि मंत्री को क्रिकेट से फुर्सत नहीं। बोर्ड के झगड़े। इंटरनेशनल क्रिकेट में धाक कायम करने की उत्कट चाह। डालमिया को ठिकाने लगाने की राजनीति। आईपीएल की धमा-चौकड़ी। क्रिकेट को लेकर तमाम तरह की माथापच्ची। वेंगसरकर के कॉलम पर नजर। युवा टीम थोपने की कसरत। राजनीति से ज्यादा दांव-पेच। अब इनसे कहां इतनी फुर्सत मिलती है कि महंगाई पर सोच पाएं। कुछ किसानों की सोच पाएं। बाकी बचा समय प्रधानमंत्री बनने की लालसा और सपनों में निकल जाता है। आखिर एक मंत्री, जो क्रिकेट में भी फंसा हो, कहां तक करे। कहां तक सोचे।
वाम मोर्चा की हालत इनसे खस्ता। सरकार में रहकर कैसा बैर। लेकिन राजधर्म से ज्यादा बैर धर्म निभाने की मशक्कत में जुटे हैं। बैर करके भी सरकार में बने रहने की कला। अन्दर सहमत, बाहर असहमत। बाहर सहमत, तो अन्दर असहमत। या जैसा होना है, वह दिखाना नहीं। जो दिख रहा है वैसा होना नहीं। अजीब कलाकारी है। यह क्या कम जादुई काम है। फिर सरकार पर बराबर नजर रखना कि परमाणु डील कहां तक पहुंची। दिन में चार बार परमाणु डील का जिक्र। डील का नाम ले-ले सरकार को गरियाना। इनकी हालत आम आदमी से गई गुजरी। सरकार गिराने की धमकी और बनाए रखने की मजबूरी। कैसा अन्तर्विरोध पाले पड़ा है, जो न चुनाव करवाने देता है और ना सहमत होने की मंजूरी देता है।
तीसरे मोर्चा को पता नहीं महंगाई किस चिड़िया का नाम है। उनकी चिन्ता है, उनका जनाधार नहीं बढ़ रहा। उनकी कवायद खुद को तीसरा मोर्चा बनाए रखना है। रह-रहकर ऐसी कोशिशें करना और उनको अमलीजामा पहनाने की कुचेष्टा करना। हारे हुए लोग इकट्ठा होकर सरकार बना लेने का सपना देखें, इसी का नाम तीसरा मोर्चा है। अब महंगाई कहां नजर रखें। नजरें पता नहीं कैसी घड़ियाल टाइप हैं, जो उधर उठती ही नहीं। न गिरती मुद्रा स्फीति की तरफ उठती हैं और ना चढ़ती महंगाई पर चौंकती हैं।
वाम मोर्चा की हालत इनसे खस्ता। सरकार में रहकर कैसा बैर। लेकिन राजधर्म से ज्यादा बैर धर्म निभाने की मशक्कत में जुटे हैं। बैर करके भी सरकार में बने रहने की कला। अन्दर सहमत, बाहर असहमत। बाहर सहमत, तो अन्दर असहमत। या जैसा होना है, वह दिखाना नहीं। जो दिख रहा है वैसा होना नहीं। अजीब कलाकारी है। यह क्या कम जादुई काम है। फिर सरकार पर बराबर नजर रखना कि परमाणु डील कहां तक पहुंची। दिन में चार बार परमाणु डील का जिक्र। डील का नाम ले-ले सरकार को गरियाना। इनकी हालत आम आदमी से गई गुजरी। सरकार गिराने की धमकी और बनाए रखने की मजबूरी। कैसा अन्तर्विरोध पाले पड़ा है, जो न चुनाव करवाने देता है और ना सहमत होने की मंजूरी देता है।
तीसरे मोर्चा को पता नहीं महंगाई किस चिड़िया का नाम है। उनकी चिन्ता है, उनका जनाधार नहीं बढ़ रहा। उनकी कवायद खुद को तीसरा मोर्चा बनाए रखना है। रह-रहकर ऐसी कोशिशें करना और उनको अमलीजामा पहनाने की कुचेष्टा करना। हारे हुए लोग इकट्ठा होकर सरकार बना लेने का सपना देखें, इसी का नाम तीसरा मोर्चा है। अब महंगाई कहां नजर रखें। नजरें पता नहीं कैसी घड़ियाल टाइप हैं, जो उधर उठती ही नहीं। न गिरती मुद्रा स्फीति की तरफ उठती हैं और ना चढ़ती महंगाई पर चौंकती हैं।
April 03, 2008
गायब होने का उम्दा भारतीय कौशल
लो, जी आदमी गायब हो सकेगा। साइंस ने ऐसी तरकीब खोज कर ली है। अमरीका आदि देशों ने यह खोज की है। वैसे इसमें नई खोज क्या हुई। इंडिया में यह तरकीब बहुत पहले से चालू है। साइंस की मदद से गायब आदमी कुछ देर बाद तो दिखाई दे जाएगा। यहां आजादी के तत्काल बाद गायब हुए लोग आज तक नहीं मिल रहे। आओ चलें, हम सब उन्हें ढूंढें।
नेताजी को गायब होने की विधा विरासत में मिली। बाप ने बेटे को संभलाई। बेटे ने बेटे को या चाचा, भतीजा, भाई वगैरह जितने भी खूनी रिश्ते हैं, उन्होंने सबने गायब होने की कला सीख ली। और सब आज तक पूरी कुशलता और धूर्तता से गायब हैं। सांसद-विधायक चुनाव जीते और पूरे पांच साल के लिए गायब। चुनाव की आहट हुई। तब इनका बयान आया। तिथि घोषित हुई। तो रोनी-धोनी सूरत लेकर लाव-लश्कर के साथ खुद प्रकटे। चुनाव का कुंभ सम्पन्न। जीते तो गायब। हारे तो भी गायब। गायब हर हाल में होना है। सदन में पहुंचे, तो वहां दर्शन नहीं। दर्शन तो, प्रर्दशन नहीं। क्षेत्र की समस्याएं उठाने का वक्त आया, तो गायब मिले। मुद्दे उठने के इंतजार में दम तोड़ बैठे। ये उठकर गए, तो लौटे नहीं।
गायब और भी बहुत से हैं। साठ वर्षों से उन्हें लोग खोज ही रहे हैं। चप्पलें घिसी जा रही हैं। जूते इसलिए चमकाए जा रहे हैं, ताकि चमक उतारी जा सके है। लोगों के लिए सड़कों की चलने से ज्यादा इस काम में अधिक उपयोगिता है। सड़कों पर बिछी डामर जनता के जूते-चप्पलों की चमक फीकी करने के बखूबी काम आ रही है। जिसे ढूंढने का उपक्रम करो, वही गायब। सरकारी दफ्तर जाओ तो बाबू गायब। एक नहीं, कई-कई दिन गायब। गायब होने का उम्दा प्रर्दशन। जादुई प्रर्दशन। जनता हैरान, परेशान, चमत्कृत। सिर धुनती हुई, खुजाती हुई। कुर्सी को कोसती हुई। अफसर से शिकायत करने पहुंचो तो वो खुद गायब। सिर्फ कुर्सी मौजूद है। उससे ऊपर जाओ तो वो भी गायब। हर ऊपर वाला गायब। अब करो शिकायत।
गायब होने की लम्बी फेहरिश्त। सब कुछ होकर भी गायब है। नल है, पानी गायब। बिजली के तार हैं। बिजली की बातें है। बिजली उत्पादन के चर्चे हैं। पर बिजली गायब। गांवों में बच्चे पढ़ने बैठते हैं, बिजली गायब। सदन है, संसद है, नेता गायब। नेता हाजिर, तो मुद्दे गायब। मुद्दे भी हों, नेता भी हों, तो बहिस्कार कर तुरंत गायब। अजीब मर्ज है। हैं भी, नहीं भी। यानी होकर भी नहीं हैं। सच क्या है, झूठ क्या है? समझ से परे है।
यह नदारद होने का इंडियन कौशल है। अब अमरीका की साइंस खोज क्या कर लेगी। हमारी गायब कला से क्या मुकाबला।
नेताजी को गायब होने की विधा विरासत में मिली। बाप ने बेटे को संभलाई। बेटे ने बेटे को या चाचा, भतीजा, भाई वगैरह जितने भी खूनी रिश्ते हैं, उन्होंने सबने गायब होने की कला सीख ली। और सब आज तक पूरी कुशलता और धूर्तता से गायब हैं। सांसद-विधायक चुनाव जीते और पूरे पांच साल के लिए गायब। चुनाव की आहट हुई। तब इनका बयान आया। तिथि घोषित हुई। तो रोनी-धोनी सूरत लेकर लाव-लश्कर के साथ खुद प्रकटे। चुनाव का कुंभ सम्पन्न। जीते तो गायब। हारे तो भी गायब। गायब हर हाल में होना है। सदन में पहुंचे, तो वहां दर्शन नहीं। दर्शन तो, प्रर्दशन नहीं। क्षेत्र की समस्याएं उठाने का वक्त आया, तो गायब मिले। मुद्दे उठने के इंतजार में दम तोड़ बैठे। ये उठकर गए, तो लौटे नहीं।
गायब और भी बहुत से हैं। साठ वर्षों से उन्हें लोग खोज ही रहे हैं। चप्पलें घिसी जा रही हैं। जूते इसलिए चमकाए जा रहे हैं, ताकि चमक उतारी जा सके है। लोगों के लिए सड़कों की चलने से ज्यादा इस काम में अधिक उपयोगिता है। सड़कों पर बिछी डामर जनता के जूते-चप्पलों की चमक फीकी करने के बखूबी काम आ रही है। जिसे ढूंढने का उपक्रम करो, वही गायब। सरकारी दफ्तर जाओ तो बाबू गायब। एक नहीं, कई-कई दिन गायब। गायब होने का उम्दा प्रर्दशन। जादुई प्रर्दशन। जनता हैरान, परेशान, चमत्कृत। सिर धुनती हुई, खुजाती हुई। कुर्सी को कोसती हुई। अफसर से शिकायत करने पहुंचो तो वो खुद गायब। सिर्फ कुर्सी मौजूद है। उससे ऊपर जाओ तो वो भी गायब। हर ऊपर वाला गायब। अब करो शिकायत।
गायब होने की लम्बी फेहरिश्त। सब कुछ होकर भी गायब है। नल है, पानी गायब। बिजली के तार हैं। बिजली की बातें है। बिजली उत्पादन के चर्चे हैं। पर बिजली गायब। गांवों में बच्चे पढ़ने बैठते हैं, बिजली गायब। सदन है, संसद है, नेता गायब। नेता हाजिर, तो मुद्दे गायब। मुद्दे भी हों, नेता भी हों, तो बहिस्कार कर तुरंत गायब। अजीब मर्ज है। हैं भी, नहीं भी। यानी होकर भी नहीं हैं। सच क्या है, झूठ क्या है? समझ से परे है।
यह नदारद होने का इंडियन कौशल है। अब अमरीका की साइंस खोज क्या कर लेगी। हमारी गायब कला से क्या मुकाबला।
April 02, 2008
महंगाईबाजी बनाम कमेटीबाजी
एक अप्रेल को खबर आई कि सरकार महंगाई पर लगाम कसेगी। यह संशय भरी खबर थी। यह वैसी ही घोषणा थी, जैसी अक्सर सरकारों की हुआ करती हैं। लोगों ने इसलिए भी भरोसा कम किया कि कहीं वे अप्रेल फूल न बन जाएं। लेकिन २ अप्रेल को एक और खबर आई है कि सरकार महंगाई रोकने के लिए एक कमेटी का गठन करेगी। यानी तात्पर्य यह कि महंगाई कमेटी रोकेगी। यह नई बात हुई। अब तक कमेटियां फाइल को लाल फीते से बांध रिपोर्ट देती आई हैं, यह महंगाई रोकने के लिए विचार करेगी।
यह बात तो ठीक, लेकिन महंगाई फिर भी नहीं रुकी तो उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा। सरकार या कमेटी? शायद कमेटी। नहीं, सरकार। या दोनों। कुछ भी हो सकता है। दोनों जिम्मेदारी लेने से इनकार भी कर सकती हैं। केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहरा सकती है। बदले में राज्य सरकारें इतना सा करेंगी कि वे केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा देंगी। लो, हो गई जवाबदेही तय। खैर।
मेरे खयाल से कमेटी न महंगाई रोकेगी, न जतन करेगी और न कोई ऐसा-वैसा काम करेगी, जिससे महंगाई महंगाई को शर्मिन्दा होना पड़े यानी रुकना पड़े। वह बस, सुझाव देगी। उससे महंगाई रुके तो उसकी मर्जी वरना उनका काम पूरा। यानी एक अच्छी सी रिपोर्ट देगी। जैसा कि कमेटियां दिया करती हैं। और रिपोर्ट से पहले अच्छा-खासा समय लेगी। कमेटियों का काम समय लेना होता है। उनके गठन से एक नारा सा ध्वनित होता है- तुम मुझे समय दो, मैं तुम्हे रिपोर्ट दूंगी। सचमुच सरकार नहीं बदले तो अर्से बाद एक रिपोर्ट आ जाती है। जब तक महंगाई और बढ़ लेती है। वह किसी रिपोर्ट का इन्तजार नहीं करती। फिर उसे रोकने के लिए एक और कमेटी के गठन की गुंजाइश निकल आती है। नई सरकार हुई, तो इस बात के लिए ही एक और कमेटी बना सकती है कि पिछली कमेटी ने क्या किया? (जिन्हें मंत्रीमण्डल में स्थान नहीं मिलता, उन्हें कमेटी में मिल जाता है)। वह न महंगाई पर विचार करती है, न रिपोर्ट पर। उसका काम बस इतना रह जाता है कि पिछली कमेटी की रिपोर्ट कितनी सही थी। इस तरह अच्छी-खासी कमेटीबाजी हो लेती है- बिलकुल महंगाईबाजी की तरह।
इस कमेटी से भी ऐसी ही उम्मीद के सिवा कुछ नहीं रखें। रखें तो अपने रिस्क पर।
यह बात तो ठीक, लेकिन महंगाई फिर भी नहीं रुकी तो उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा। सरकार या कमेटी? शायद कमेटी। नहीं, सरकार। या दोनों। कुछ भी हो सकता है। दोनों जिम्मेदारी लेने से इनकार भी कर सकती हैं। केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहरा सकती है। बदले में राज्य सरकारें इतना सा करेंगी कि वे केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा देंगी। लो, हो गई जवाबदेही तय। खैर।
मेरे खयाल से कमेटी न महंगाई रोकेगी, न जतन करेगी और न कोई ऐसा-वैसा काम करेगी, जिससे महंगाई महंगाई को शर्मिन्दा होना पड़े यानी रुकना पड़े। वह बस, सुझाव देगी। उससे महंगाई रुके तो उसकी मर्जी वरना उनका काम पूरा। यानी एक अच्छी सी रिपोर्ट देगी। जैसा कि कमेटियां दिया करती हैं। और रिपोर्ट से पहले अच्छा-खासा समय लेगी। कमेटियों का काम समय लेना होता है। उनके गठन से एक नारा सा ध्वनित होता है- तुम मुझे समय दो, मैं तुम्हे रिपोर्ट दूंगी। सचमुच सरकार नहीं बदले तो अर्से बाद एक रिपोर्ट आ जाती है। जब तक महंगाई और बढ़ लेती है। वह किसी रिपोर्ट का इन्तजार नहीं करती। फिर उसे रोकने के लिए एक और कमेटी के गठन की गुंजाइश निकल आती है। नई सरकार हुई, तो इस बात के लिए ही एक और कमेटी बना सकती है कि पिछली कमेटी ने क्या किया? (जिन्हें मंत्रीमण्डल में स्थान नहीं मिलता, उन्हें कमेटी में मिल जाता है)। वह न महंगाई पर विचार करती है, न रिपोर्ट पर। उसका काम बस इतना रह जाता है कि पिछली कमेटी की रिपोर्ट कितनी सही थी। इस तरह अच्छी-खासी कमेटीबाजी हो लेती है- बिलकुल महंगाईबाजी की तरह।
इस कमेटी से भी ऐसी ही उम्मीद के सिवा कुछ नहीं रखें। रखें तो अपने रिस्क पर।
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