एक अप्रेल को खबर आई कि सरकार महंगाई पर लगाम कसेगी। यह संशय भरी खबर थी। यह वैसी ही घोषणा थी, जैसी अक्सर सरकारों की हुआ करती हैं। लोगों ने इसलिए भी भरोसा कम किया कि कहीं वे अप्रेल फूल न बन जाएं। लेकिन २ अप्रेल को एक और खबर आई है कि सरकार महंगाई रोकने के लिए एक कमेटी का गठन करेगी। यानी तात्पर्य यह कि महंगाई कमेटी रोकेगी। यह नई बात हुई। अब तक कमेटियां फाइल को लाल फीते से बांध रिपोर्ट देती आई हैं, यह महंगाई रोकने के लिए विचार करेगी।
यह बात तो ठीक, लेकिन महंगाई फिर भी नहीं रुकी तो उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा। सरकार या कमेटी? शायद कमेटी। नहीं, सरकार। या दोनों। कुछ भी हो सकता है। दोनों जिम्मेदारी लेने से इनकार भी कर सकती हैं। केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहरा सकती है। बदले में राज्य सरकारें इतना सा करेंगी कि वे केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा देंगी। लो, हो गई जवाबदेही तय। खैर।
मेरे खयाल से कमेटी न महंगाई रोकेगी, न जतन करेगी और न कोई ऐसा-वैसा काम करेगी, जिससे महंगाई महंगाई को शर्मिन्दा होना पड़े यानी रुकना पड़े। वह बस, सुझाव देगी। उससे महंगाई रुके तो उसकी मर्जी वरना उनका काम पूरा। यानी एक अच्छी सी रिपोर्ट देगी। जैसा कि कमेटियां दिया करती हैं। और रिपोर्ट से पहले अच्छा-खासा समय लेगी। कमेटियों का काम समय लेना होता है। उनके गठन से एक नारा सा ध्वनित होता है- तुम मुझे समय दो, मैं तुम्हे रिपोर्ट दूंगी। सचमुच सरकार नहीं बदले तो अर्से बाद एक रिपोर्ट आ जाती है। जब तक महंगाई और बढ़ लेती है। वह किसी रिपोर्ट का इन्तजार नहीं करती। फिर उसे रोकने के लिए एक और कमेटी के गठन की गुंजाइश निकल आती है। नई सरकार हुई, तो इस बात के लिए ही एक और कमेटी बना सकती है कि पिछली कमेटी ने क्या किया? (जिन्हें मंत्रीमण्डल में स्थान नहीं मिलता, उन्हें कमेटी में मिल जाता है)। वह न महंगाई पर विचार करती है, न रिपोर्ट पर। उसका काम बस इतना रह जाता है कि पिछली कमेटी की रिपोर्ट कितनी सही थी। इस तरह अच्छी-खासी कमेटीबाजी हो लेती है- बिलकुल महंगाईबाजी की तरह।
इस कमेटी से भी ऐसी ही उम्मीद के सिवा कुछ नहीं रखें। रखें तो अपने रिस्क पर।
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