April 11, 2008

नजरें जो घड़ियाल हो गई हैं...

सरकार चुनावों का गणित बिठाने में व्यस्त है। महंगाई बेशुमार बढोतरी पर है, पर सरकार को न जगाइए। वह अभी चुनाव जीतने का दिवास्वपन देख रही है। क्योंकि उसने किसानों का कर्जा माफ कर दिया है। बजट लोक लुभावन बना दिया है। तीन साल पब्लिक की रगड़ाई कर चौथे सार का बजट का गोलमाल कर दिया। लो हो गई जीत की हकदार। अब उसकी कवायद इस बात पर है कि चुनाव की तारीख कब मुकर्रर की जाए। पर विपक्ष को भी कुछ मत बोलिए। उसकी हालत भी कोई ठीक नहीं है। कुछ अन्दरूनी कलह, ऊपर से मुद्दों का अकाल। अन्दर निपटने में जितनी ऊर्जा नष्ट होती है, उसके बाद सरकार से लड़ने की उनकी हिम्मत नहीं बचती। हां, उन्होंने एक कार्य में कांग्रेस से बाजी मार ली है। उन्होंने अपना प्रधानमंत्री चुन लिया है। उसके लिए यह उपलब्धि महंगाई पर हाय-हाय करने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। सो, उसने वह हासिल कर लिया है, जो अभी कांग्रेस नहीं कर पाई है। कांग्रेस के पास प्रधानमंत्री नहीं है भावी। भाजपा के पास चुनाव से पहले ही प्रधानमंत्री हो गया है। सो , महंगाई उनके लिए भी कोई मुद्दा नहीं रहा। यूं महंगाई पर सोचें, यह वक्त किसके पास है। देश के कृषि मंत्री को क्रिकेट से फुर्सत नहीं। बोर्ड के झगड़े। इंटरनेशनल क्रिकेट में धाक कायम करने की उत्कट चाह। डालमिया को ठिकाने लगाने की राजनीति। आईपीएल की धमा-चौकड़ी। क्रिकेट को लेकर तमाम तरह की माथापच्ची। वेंगसरकर के कॉलम पर नजर। युवा टीम थोपने की कसरत। राजनीति से ज्यादा दांव-पेच। अब इनसे कहां इतनी फुर्सत मिलती है कि महंगाई पर सोच पाएं। कुछ किसानों की सोच पाएं। बाकी बचा समय प्रधानमंत्री बनने की लालसा और सपनों में निकल जाता है। आखिर एक मंत्री, जो क्रिकेट में भी फंसा हो, कहां तक करे। कहां तक सोचे।
वाम मोर्चा की हालत इनसे खस्ता। सरकार में रहकर कैसा बैर। लेकिन राजधर्म से ज्यादा बैर धर्म निभाने की मशक्कत में जुटे हैं। बैर करके भी सरकार में बने रहने की कला। अन्दर सहमत, बाहर असहमत। बाहर सहमत, तो अन्दर असहमत। या जैसा होना है, वह दिखाना नहीं। जो दिख रहा है वैसा होना नहीं। अजीब कलाकारी है। यह क्या कम जादुई काम है। फिर सरकार पर बराबर नजर रखना कि परमाणु डील कहां तक पहुंची। दिन में चार बार परमाणु डील का जिक्र। डील का नाम ले-ले सरकार को गरियाना। इनकी हालत आम आदमी से गई गुजरी। सरकार गिराने की धमकी और बनाए रखने की मजबूरी। कैसा अन्तर्विरोध पाले पड़ा है, जो न चुनाव करवाने देता है और ना सहमत होने की मंजूरी देता है।
तीसरे मोर्चा को पता नहीं महंगाई किस चिड़िया का नाम है। उनकी चिन्ता है, उनका जनाधार नहीं बढ़ रहा। उनकी कवायद खुद को तीसरा मोर्चा बनाए रखना है। रह-रहकर ऐसी कोशिशें करना और उनको अमलीजामा पहनाने की कुचेष्टा करना। हारे हुए लोग इकट्ठा होकर सरकार बना लेने का सपना देखें, इसी का नाम तीसरा मोर्चा है। अब महंगाई कहां नजर रखें। नजरें पता नहीं कैसी घड़ियाल टाइप हैं, जो उधर उठती ही नहीं। न गिरती मुद्रा स्फीति की तरफ उठती हैं और ना चढ़ती महंगाई पर चौंकती हैं।

1 comment:

Anonymous said...

is dor me vfa ki umeed jis se ki humne
usi k hath ka patthar lga hume


ab kis neta ,kis party pr bhrosa kre