July 24, 2008

विश्वास के हिमालय से सारी बर्फ पिघल चुकी

संसद में दो दिनी अप्रिय शोरगुल के बाद देश में हृदयभेदी सन्नाटा है। सब कुछ एकदम से खामोश है- सिवाय कुछ दलों में जयचंद चिन्हित और घोषित कर उन्हें पार्टी बदर करने के, कोई बड़ी उल्लेखनीय हरकतें नहीं हो रहीं। हो भी जाएं, तो इसे महज खिसियानी बिल्ली के खम्भा नोचने से अधिक का दर्जा नहीं दिया जाएगा। सारी कुल्लेखनीय हरकतें उन दो दिनों में और उससे पहले हो चुकी हैं। अब और गुंजाइश नहीं।
सत्ता प्रतिष्ठानों के पिछवाड़े अर्थात दस जनपथ में जीत के जश्न की रस्म जरूर है, लेकिन आशंका वहां भी बरकरार है। इसमें जीत जैसा कुछ नजर नहीं आता। जीतकर भी करारी हार सा बोध हर कोई कर सकता है। मुहावरे में कहें तो दस माह की मेहमान सरकार पर अपेक्षाओं का पहाड़ टूट पड़ा है। जो चार साल में एक अपेक्षा पूरी न कर पाई हो, वह दल माह में क्या कर लेगी। इस ताजा हरकत से नेताओं का सरेआम राजफाश जरूर हो गया। राजनीति में सारे ईमान, नैतिकता, आचरण, शुचिता इत्यादि को लेकर अब तक जो भ्रमजाल का तंबू तना हुआ था, वह एक झटके में खुल गया। बेईमानी और भ्रष्टाचार की ऐसी आंधी आई कि संसदीय मर्यादा को यूं हल्के में उड़ा ले गई। एक औसत भारतीय मन अपने इर्द-गिर्द सशंकित सा नंगई महसूस कर रहा है। अफसोस की बात है कि यह नंगई उन बेशर्म मनों द्वारा नहीं महसूसी जा रही, जहां से इसकी अपेक्षा की जाती है।
दो दिन तक टीवी पर आंखें गड़ाए रहे चेहरे मुर्दनी बयां कर रहे है। वहां जो सेंसेक्स से उतार-चढ़ाव नोटिस किए जा रहे थे, वे अब गहरी खामोशी और अफसोस से पुते हैं, भीतर खतरनाक कोलाहल उबल रहा है। उस आंच से व्यथित मन पक रहा है। विश्वास की बर्फ पिघल रही है। आंखें मलने की विवशता इसलिए है कि क्या यह ड्रामा वास्तविक था या कोई बड़ी दुर्घटना? जिसके घटित हो जाने के बाद मन इतना खिन्न कि अब वह कोई और कल्पनामयी आकांक्षा पाल सकेगा या नहीं? कमजोर हिन्दुस्तानी मनों पर टनों अवसाद लद गए हैं।
अब यह मानना ही पड़ेगा कि संसदीय मर्यादा का हिमालयी शिखर झुक गया है। भरोसे की बची-खुची बर्फ को पिघलने में दो दिन भी नहीं लगे। जिस भरोसे को नेहरू, शास्त्री, पटेल जैसे नेताओं ने कायम किया था। अब वहां नंगई है सिर्फ नंगई। लाज का वस्त्र उघड़ चुका। भरोसे का नाड़ा खुल गया। ढांपने की फिक्र भी नहीं है किसी को। वह इसीलिए नहीं है कि अब आचरण में शुचिता कोई मसला नहीं रह गया है। छोड़ आए उन गलियों को वाला मामला हो गया है, जहां शुचिता के झंडे गड़े रहते थे। एक सूत्री मसला सिर्फ सत्ता है और उसे किसी भी सूरत में पा लेना ही परम लक्ष्य की प्राप्ति है। यही किया सबने मिलकर। गिरावट का आलम इस कदर हुआ है कि इस हादसे के बाद अब कोई साधारण व्यक्ति सत्ता की गलियों में कदम रखने की नहीं सोच सकता। दहलीज पर प्रथम कदम ही उसकी आत्मा को झिंझोड़ देगा।
विश्वास मत के नाम पर अविश्वास जीत लिया गया। बहुत बुरी खबर है। अब आगे के रास्ते किस अंजाम की तरफ ले जाने वाले हैं, आप-हम सोचकर सिहर सकते हैं।

6 comments:

Arvind Mishra said...

भारतीय निर्वाचक यही डिजर्व करता है -संसद में जो हुआ हमारे आस पास रोज हो रहा है -किंतु हम अपने और संसदीय जीवन को अलग अलग मानदंडों पर देखते हैं -वहाँ जो कुछ हुआ मुझे आश्चर्य नही हुआ ,बल्कि वैसा कुछ न होता तो वह आश्चर्यजनक होता -हां टीस है कि चीजें हाथ से निकलती जा रही हैं और हम कुछ नही कर पा रहे हैं .

Udan Tashtari said...

अफसोसजनक स्थितियाँ....

vipinkizindagi said...

आपकी पोस्ट अच्छी है

DUSHYANT said...

kabhee to khul ke baras abre meharbaan kee tarah...

Dileepraaj Nagpal said...

aahhhhhhhhhhh

संतोष त्रिवेदी said...

वाह।