जब रोम जल रहा था, तब नीरो बांसुरी बजा रहा था। नीरो ने गलत क्या किया? जिस बेसुरी बांसुरी में फटे सुर निकलें, उसे और किस मौके पर बजाया जा सकता है। कम से कम ऐसे मौके के बहाने बांसुरी को लोगों ने देखा तो सही। वैसे कहावत में कितना दम, पता नहीं। लेकिन हम नई कहावत आंखों के सामने गढ़ी जाते देख रहे हैं। देश में जलने से कमतर हालात नहीं हैं और सारे नीरो (राजनीतिक दल) अपनी-अपनी बांसुरी बजाने में मशगूल हैं। साम्प्रदायिक आग के शोले भड़क रहे हैं। कई जानें जा चुकीं। आतंकाकारियों से लोहा लेते जवान रोज शहादत को प्राप्त होते हैं। इधर, आम आदमी भी कोई कम शहादत की स्थिति में नहीं है। शहीदाना अंदाज में सिर पर कफन बांधे घूम रहा है। बावजूद इसके सबका एकमेव एजेण्डा खुद के अस्तित्व को सलामत रखने की बेशर्म और स्वार्थ से भरी शतरंजी चालें चलने की खोज है।
औचक सारी समस्याएं सरकार की प्राथमिकता से डिलीट हो गई हैं। उसके एजेण्डे में एकमात्र तरकश है- डील। सपा से लेकर अमरीका तक, डील का डोल जमाने की फिक्र छाई है उस पर। इस समय देश में जैसे राजनीतिक हालात हैं, उसमें राजनीतिक दलों की नग्नता साफ दिखने लगी है। अब तक जिनको जिनका मुंह तक देखने से एलर्जी थी, अब मुंह दिखाई में पूरी सरकार सौंपने को आतुर हैं। यह आतुरता, जनता की अधीरता बढ़ा रही है। धैर्य की कठिन घड़ी है। इनकी बेशर्म, बेमेल गलबहियां उन सारी समस्याओं के गाल पर करारा तमाचा है, जो देश को भयाक्रान्त किए हुए हैं। लेकिन इन सबकी इन्हें कोई फिक्र नहीं। माहौल एकाएक समझौता प्रधान सा हो चुका है। मानसूनी बादल अवसरों के टुकड़े लेकर घूम रहे है। हर दल इन्हें लपकने के पूरे मूड में है। प्रधानमंत्री बनने को आतुर एल के आडवाणी ने भी सरकार को चेतावनी दी है कि वह संसद में बहुमत साबित करे। ...और उसके पास बचा ही क्या है साबित करने को। बाकी सब कुछ साबित हो चुका, बस अब एक बहुमत ही साबित करना है उसे। बाकी मोर्चों पर तो लोग उसे देख ही चुके हैं।
सरकार की डील को अंतिम परिणति तक पहुंचाने की जो जिद सामने आई है, उसमें समूचा देश हाशिए पर खिसक चुका है। करोड़ों लोगों की बद् दुआएं भी इनकी आत्मघाती जिद के आगे बेअसर हैं। न इनको महंगाई की फिक्र है, न मौजूदा भड़कते दंगों की। तेल की बू लोगों को परेशान किए है। रसोई गैस समूचे देश के पेट में आफरा ला चुकी है। सरकार के पास कोई तात्कालिक हाजमोला नहीं, जो इस आफरे को ठीक कर सके। हर वह जो चीज है और आम आदमी के जरूरत की है, बढ़ने की ठाने हुए है। महंगाई चौबारे चढी है। सरकार चुपके से पिछवाड़े उतर रफूचक्कर हो चुकी है। सत्ता प्रतिष्ठानों के पिछवाड़े हंसी की गूंज है, शायद वहां नए सारथियों के स्वागत-सत्कार के बहाने, भविष्य की शतरंज पर हाथी-घोड़े चलने की चालें खोजी जा रही है।
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