July 07, 2008

हिसाब मांगती एक-एक सीढ़ी

बारी-बारी से सत्ता का मधुपान कर, पूरी तरह रस निचोड़ जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बेमन से राजभवन की ओर जा रहे हैं। (अलबत्ता पहुंच चुके) पांव भारी हैं। जेब में इस्तीफा पड़ा है। बोझ से पग डगमगा रहे हैं। मुगालते में जीते-जीते वे आखिरी सच के द्वार पर आ पहुंचे। और उस नीम सच से सामना कर रहे हैं, जिससे कल को केन्द्र की कांग्रेस सरकार को भी करना है। और हर उस पार्टी को करना पड़ता है, जो सिद्धान्तों को कैरोसिन दिखा, इस उजाले में सत्ता की चौखट चढ़ती है। आज उसी चौखट से कांग्रेस नीचे उतर रही है। पीडीपी, जो पहले ही मधु के छाते को खाली कर चुकी थी, ने और इन्तजार करना मुनासिब नहीं समझा और समर्थन वापस ले लिया। ढाई साल इन्तजार करते-करते एक अदद बहाने का छींका उनके हिस्से टूटकर गिर ही गया। जिसके सहारे समर्थन वापस लिया जा सकता था। हालांकि सरकार को बली से बचाने के लिए मुख्यमंत्री ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी जमीन वापस भी ले ली थी। लेकिन, अफसोस, सरकार को बचाया नहीं जा सका और मुख्यमंत्री को इस्तीफा लेकर राजभवन की सीढ़ियां चढ़ना पड़ा। सत्ता की सीढ़ियां झटपट चढ़ लेने की स्फूर्ति यहां गायब रही होगी। एक-एक सीढ़ी चढ़ते वे दिन याद आ रहे होंगे उन्हें।
उन्हें और भी बहुत कुछ याद आना चाहिए। पहली सीढ़ी पर पांव धरते ही याद आया होगा कि बेमेल मिश्रण का स्वाद एक दिन कितना कटु होता है। कुछ दिन तू सत्ता सुख चाट, कुछ दिन मुझे चटा, की तर्ज पर बनाई सरकार में कड़वे अहसास भी बहुत होते हैं। उन्हें याद आया होगा कि अपनी उदार छवि के चलते देश को उनसे कितनी उम्मीदें थीं, जब वे मुख्यमंत्री बने थे। जम्मू-कश्मीर नेताओं के अब तक पाक राग के बीच उदार और साफ दिखती छवि के आजाद नई जिम्मेदारियों से रूबरू थे। लेकिन आज उनके लिए आत्म मंथन का समय है कि अब देश उनके बारे में क्या सोचता है। उनकी राष्ट्रीय छवि एक राज्य के अपने आईने में कितनी धुंधली हुई। अफजल गुरु के बचाव में बोलने से देश में उनकी छवि कितनी मलिन हुई होगी। अगली सीढ़ी पर उन्हें महसूस होना चाहिए कि उन्होंने किस तरह खुद को कश्मीर जाकर, किस तरह संकीर्ण सांचे में फिट कर, किस तरह महफूज समझ लिया था।अंतिम सीढ़ी पर उन्हें अहसास होना चाहिए था कि अब वे अगले आम चुनाव में जब कांग्रेस के प्रचार के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में जाएंगे, तो क्या वहां लोगों की सुलगती आंखें उनसे सवाल नहीं करेंगी?
लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि नेताओं की महसूसने की शक्ति कितनी दुर्बल होती है। अहसासों का कत्ल कर ही वे सच्चे नेता कहलाने के लायक बनते हैं।

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