July 08, 2008

शब्दों के हथियारों से मुंह तोड़ने की निरर्थक कवायद

हम आतंकवाद के आगे नहीं झुकेंगे। कोई ताकत हमारे मंसूबों को विफल नहीं कर सकती। कितने ही हमले हमें हमारे मिशन में नाकामयाब नहीं कर सकते। पड़ौसी देशों को मदद जारी रखेंगे। हम आतंकी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब देंगे। यह एक रिकोर्डेड सीडी है। पुराना कैसेट है। जो हर आतंकी घटना के बाद बजता है। यह शास्त्रीय बयान है। जो हर वारदात के बाद आता है। वही मुख। वही बातें। वही संकल्प। वही लफ्ज। पीएम, विदेशमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री, जरूरी हुआ तो पार्टी अध्यक्ष के श्रीमुख से झरता एक-एक शब्द। चबा-चबा कर बोले गए अर्थ खोए वाक्य। जब पहली वारदात हुई, तो शर्तिया पहला बयान यही आया होगा। हू-ब-हू। बित्ते भर का फर्क नहीं। मुंह तो हम आज तक तोड़ न सके, पर बेतहाशा बयान दे-देकर खुद का मुंह जरूर तोड़ लेते हैं।

काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले के बाद फिर शब्दों के हथियार चलाए गए। बयानबाजों के मुंह के आगे मीडिया के माइक आए। रिपोर्टरों ने जेब से कलम-डायरी निकाली और जिस जोश से सवाल दागे। सामने से उसी ठण्ड से जवाब। पीएम ने जी-८ शिखर वार्ता में जाते समय विमान से बयान दिया। प्रणव मुखर्जी ने दिल्ली से। बयान विमान से आए, भले दिल्ली से या दस जनपथ से। न भाषिक अन्तर, न वैचारिक। बयानों के केन्द्र में कोई संकल्पना नहीं। इरादों में दृढ़ता नहीं। गर्मी का नितान्त अभाव। बयान देने की विवशता न होती, तो शायद इतनी जहमत भी न उठाई जाती।

दो कामयाब अधिकारी और दो जवानों की मौत। सबसे बड़ी बात यह है कि स्वाभिमान पर आंच। और हम जिद पाले हैं पड़ौसी देश के पुनर्निर्माण में मदद का। इससे पहले भी वहां भारतीयों पर दो हमले हो चुके हैं। तब भी हमने ऐसे ही शब्दों के बाण चलाए थे। पूरी कौशलता से वाक्य विन्यास से भरा चेतावनी का मायाजाल रचा। लेकिन हुआ क्या? वही भीगा हुआ पटाखा फुस्स। बारूद की गारंटी नहीं। हम ऐसे बयानवीर हैं, जो लगातार मात के बावजूद शब्दों के खोल से बाहर निकलने को इच्छुक नहीं। क्या हम अफगानिस्तान से दो टूक बात नहीं कर सकते। हामिद करजई बड़े मेहमाननवाजी का लुत्फ उठाते हैं हमारे यहां। सिर-आंखों पर बिठाते हैं, पलकें बिछाते हैं उनके आगमन पर। लेकिन अब उनका मौन, कोई बयान न देना गहरे अर्थों को जन्म देता है।

हमारे टुकड़ों पर पलने वाला पिद्दी सा बांग्लादेश भी यदा-कदा हमें गरिया देता है। श्रीलंका का चोखटा बचाने के लिए हमने शांति सेना के जरिए कितने ही सैनिक खोए। और फिर युवा नेता भी। बावजूद इसके श्रीलंका की हमें ही चिरौरी करनी पड़ती है। नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान कोई विशुद्ध दोस्ती के काबिल नहीं। हम गले मिलें। वे जेब में छुरा रखें। हमारे ही खिलाफ आतंकियों को प्रश्रय दें। अपनी सीमाओं से आत्मघाती जखीरा ठेलने में मदद करें। हम उनके सामने ट्रे में रखकर दूध का प्याला पेश करें। सांप और मित्र की परख हमारे बयानवीर अपनी कैंचुल से बाहर आ कब करना सीखेंगे।

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

आपकैइ लेखनी बहुत ही सरपट दौ.दती है। भाषा में जबरजस्त प्रवाह है। विचार अत्यन्त पैने हैं।

पोस्ट बहुत सार्थक लगी। भारत की विदेश नीति बुरी तरह मार खा रही है।