देश में जितनी भी दिशाएं हैं, सभी से इस समय बादलों का रुख दिल्ली की ओर है। हर छोटा, मोटा, धूल-धूसरित, मैला, मटमैला, छोटा, बड़ा बादल कुछ सशंकित सी मुद्रा लिए राजधानी की ओर डायवर्ट है। अवसरवादिता की हवाओं ने उन्हें अपने संग लिया और उड़ चलीं दिल्ली की ओर। दिल्ली के आसमान पर ये बादल घनीभूत हो रहे हैं। ये बादल अन्ततः उम्मीद ही तोड़ेंगे। बरसने की भूलभरी अपेक्षा इनसे कदापि न की जाए। ये बरसेंगे, तो खुद के स्वार्थ के लिए। खुद के अस्तित्व के लिए। सांसदी की रक्षा के लिए। हार के डर से और जीत के गणितीय हिसाब से।
इन बादलों के गर्भ में धूर्त एजेण्डा छुपा है। बाहर से नैतिकता का रंग चढ़ा है। सिद्धान्तों के आवरण की महीन, बारीक परत है। भीतरी खोल में पोल ही पोल है। कुछ का लक्ष्य सरकार गिराना है। कुछ का बचाना है। कल तक लड़ने में कुत्ते-बिल्ली को भी मात करते रहे। आज एक-दूजे पर प्यार उंड़ेलते नहीं थकते। स्थाई दुश्मनी ने क्षणिक दोस्ती का बाना धारण कर लिया है। सरकार की रक्षा की गरज से अपने बचे-खुचे सिद्धान्तों पर घासलेट छिड़कने पर आमादा हैं। अन्तरात्मा का आह्वान भी नक्कारखाने में तूती की आवाज सा हो चुका है। ऐसा कोई सदाचार का ताबीज नहीं, जिसे कलाई पर बांध देने से इनकी भ्रष्ट आत्मा की गर्जना के सुर बदल जाएं।
कहें तो, मौजूदा राजनीतिक हालात में कई दलों की कैंचुल उतर चुकी है। तीन तलाक कह सरकार गिराने पर आमादा वाम मोर्चा को इस समय कुछ नहीं सूझ रहा। इस बेमकसद के लिए उसे उसके लिए सदा साम्प्रदायिक रही भाजपा से हाथ मिलाने से भी ऐतराज नहीं। सपा ने घोषित समाजवाद का मुल्लमा उतार फेंका है और दिखावे के देशप्रेम तले अवसर का गाढ़ा लेप पोत लिया है। भाजपा को हर हाल में चुनाव चाहिए। आखिर वे एक बेरोजगार पीएम का बोझ कब तक उठाएं? क्यों न चुनाव के बहाने इसे देश की पीठ पर लाद मुक्ति का पर्व मनाएं। हर छोटे-बड़े दलों की अपनी आशंकाएं हैं और सरकार गिराने-बचाने के अपने सुभीते हैं। सब इन्हीं से प्रेरित होने हैं। यदि परमाणु करार बेजां देशहित में है, तो भी लेफ्टियों को इससे क्या मतलब? उनका राइट तो वहीं तक है, जहां से उनका अमरीका विरोध जाहिर हो जाता है। वे इसे भी भूल के कचरापात्र में डालने की पात्रता अर्जित कर चुके हैं कि उनके सरपरस्त चीन, रूस भी इन्हीं करारों को करने को लालायित हैं या कर चुके हैं।
धोखे और दिखावे के दीपक देश की राजनीति को कब तक आलोकित करेंगे। यह गिरगिटी रंग अब बेपरदा होना ही चाहिए। और अगले चुनावों में इनका असली रंग उघाड़कर देखा जाना चाहिए। कौनसा रंग किस बेरंगेपन के बावजूद खासा चमकता है। इस त्वचा के भीतर एक और मोटी त्वचा का पहरा है।
2 comments:
बिल्कुल सही बात !
बािरश का दूसरा पहलू तब नजर अाता है जब लाखाें लाेग फुटपाथ पर नीली छतरी तले िकसी पेड के तले अपने अापकाे सारी दुिनया के साथ इनसान हाेने का अहसास िदलाते हुए खुली सड़क पर भांगड़ा करते हुए बहलाते हैं
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