February 28, 2008
आया मौसम बजटियाने का...
ये उथल-पुथल भरे दिन हैं। कुछ उथले हैं, कुछ पुथले हैं। सर्दी की विदाई, गर्मी की आहट, बसंत की कविताई। काव्यमना लेखक कहते हैं, आए दिन अभिसार के, प्रियतम से मिलने के दिन हैं ये। लेकिन प्रियतमाओं के मन में ऐसा कोई उल्लास नहीं है। मिलन की ऐसी कोई उत्कंठा भी नहीं है। वे इस समय टकटकी बांध के देश के वित्तमंत्री की ओर निहार रही हैं। उन्हें यह शख्स छलिया लगता है। निगाहें कहीं पे, निशाना कहीं पे। क्या पता, कब नजरें टेढ़ी करे और क्या चाल चल दे। इसलिए मिलन की सारी जल्दबाजियां फिलहाल स्थगित हैं। बजट को लेकर अफवाहों से भरे दिन हैं। आम पब्लिक के कशमकश भरे दिन हैं। बासंती नहीं, गर्दिश के दिन हैं। क्या महंगा होगा? क्या सस्ता होगा? कौनसे नए कर करों की अन्तहीन फेहरिश्त की शोभा बढ़ाएंगे? क्या कोई छूट भी मिलने वाली है? वित्तमंत्री नामक शख्स के हाथों इस बार कौनसे शर छूटेंगे कि उम्मीदों के बिजूके धड़म-धड़म नीचे आ गिरेंगे?। ऐसे ढेर सारे सवालों की मण्डी में बेचैनी का आलम है। आम आदमी की भ्रमित आत्मा बेचैनी से चहल-कदमी कर रही है। अपने आप से ही बार-बार सवाल-अभी क्या खरीद लें? क्यों न खरीद लें? इस समय यह भारतीय मानसिकता काफी पसोपेश में है। उसकी नजरों में महंगाई का ग्लोब घूम रहा है। रगों में जैसे रक्त की जगह पेट्रोल-डीजल दौड़ने लगा है। तन-मन में रसोई गैस का आफरा उठ रहा है। एकाएक गैस्ट्रिक ट्रबल बढ़ने लगी है, जो धीरे-धीरे पूरे देश के पेटों में घुस खलबली मचा रही है। महंगाई जायके में खराशें घोल रही है। इन दिनों सारी आत्माओं में खलबली मच जाती है। आम आदमी अपनी आदत अनुसार दुबलाने लगता है, वहीं व्यापारी स्टॉक के बारे में सोचने लगते हैं। क्या रखना है, क्या जमाना है? सब तय है, क्योंकि इनके पिछवाड़े से निकला रास्ता सीधे सत्ता के गलियारों तक पहुंचता है। इसलिए बजट पूर्व की भनक तैरती हुई आती है और गंध सूंघ व्यापारी जमा-धमा का जुगाड़ा कर लेते हैं।खयालों में अचानक वित्तमंत्री उभरने लगे हैं। वही पारम्परिक वित्तमंत्री। मुस्काता हुआ। एक-एक मुस्कान में ढेरों रहस्य रेखाएं। हाथों में ब्रीफकेस। जिनमें बंद देश का भाग्य। ब्रीफकेस संसद की टेबल पर खुलेगा और इससे निकला जिन्न समूचे देश में हजारों-लाखों शरीरों में विभक्त होकर बिखर जाएगा। जनमानस साल भर कांव-कांव करता, अपने तन-मन का ग्रास बनते देखने को अभिशप्त है।
February 22, 2008
नौटंकी शैली की क्रिकेट में नाचेगी बसंती
अब आपको क्रिकेट के नाम पर वनडे कुर्बान नहीं करना पड़ेगा। बोझिल टेस्ट भी नहीं झेलनी पड़ेगी। क्रिकेट का नूडल्स संस्करण मौजूद है अर्थात फटाफट टी-२०। आपके लिए सहुलियत इतनी कि कुत्ता पालना आपकी मजबूरी हो सकती है, लेकिन टीम भावना या देश भावना पालने की हर्गिज जरूरत नहीं। सलाम कीजिए उन सर्जकों को, जिन्होंने यह नई शैली ईजात की है और आपके देश में अवतरित कर रहे हैं। इसे आप नौटंकी शैली की क्रिकेट भी कह सकते हैं। तमाशा भी कह लीजिए। एक एसा तमाशा जिसमें पूरी दुनिया के क्रिकेट बोर्डों की सहमति है। इसमें सारे ताम-झाम मौजूद होंगे। आपका दिल बहलाने के सारे इन्तजामात हाजिर। इसमें क्रिकेट भी होगा। छक्के भी होंगे, मजेदार बाद यह कि इसमें बसंती भी नाचेगी। क्यों नहीं नाचेगी। आपने पैसे फेंके हैं, नाचना उसका जितना कर्त्तव्य है, उतना ही आपका हक। आप हर गेंद पर छक्के की अपेक्षा कर सकते हैं। जब क्रिकेट में मजा नहीं आ रहा हो। छक्के नहीं लग रहे हों, तब आप नजरें हटाकर ठुमके का मजा ले सकते हैं। नीरस क्रिकेट में रस आ सकता है। विदेशी नृतकियां आपको आनंदित कर सकती हैं। ठेठ देशी नजारे भी मन बहला सकते हैं। इस क्रिकेट में जरूरी नहीं कि आप धोनी की तारीफ करें। युवराज से छक्कों की अपेक्षा रखें। उथप्पा से कहें कि चल उठा के मार। हार-जीत की कशमकश में दिमाग की नसों को तकलीफ दें। जैसी कि अब तक इस पीड़ा से दो-चार होते रहे है। आप पोंटिंग से भी रिक्वेस्ट कर सकते हैं। आफरीदी से भी उसी हक से कह सकते हैं, जितना गांगुली से। इंडिया में रहकर पाकिस्तान परस्ती का डर नहीं। यह भौगोलिक सीमाओं से परे का क्रिकेट है। तन-मन से परे विशुद्ध मनोरंजन का क्रिकेट है। दिलों से बाहर मन बहलाव का क्रिकेट है। संवेदन होने से शर्तिया मुक्ति का क्रिकेट है। इसे पिकनिक की तरह लें। यह मान सकते हैं कि आपको आज शाम को परिवार सहित किसी पिकनिक स्पॉट पर घूमने जाना है। बच्चों की जिद्द है। तब आप बीच रास्ते मूड बदलकर स्टेडियम में घुस सकते हैं। वहां सारी झांकियां एक जगह सजी मिलेंगी। या सर्कस समझकर घुस जाइए। वहां भांति-भांति के खिलाड़ी अपने करतबों से मनोरंजन करते नजर आएंगे। हो सकता है, वे आपको जमूरे नजर आएं, क्योंकि उनकी डोर उस बाजीगर के हाथ होगी, जिनके हाथ में उनके गले की रस्सी है। उसने मंडी से बोली लगाकर उन्हें खरीदा है। बाजीगर कहेगा, बोल जमूरे छक्के लगाएगा? हुजूर लगाएगा। बोल विकेट लेगा? लेगा हुजूर। बोल बोल्ड होकर दिखाएगा? दिखाएगा हुजूर, दस बार दिखाएगा। आप कहेंगे तो सब कुछ करेगा। कहिए, यह क्रिकेट हुई, कि तमाशा हुआ या नौटंकी हुई या फिर सर्कस?
February 20, 2008
आज बेटियों के ब्लॉग की चर्चा राजस्थान पत्रिका में
यह अच्छी और सुखद खबर है कि अब ब्लॉग्स की चर्चा मीडिया में भी हो रही है। हालिया दिनों में लगभग सभी अखबारों में इस पर कई दफा चर्चा हुई है और होनी भी चाहिए, क्योंकि ब्लॉग मीडिया के समानान्तर एक नई क्रान्ति सदृश नजर आ रहा है। आगे चलकर यह विधा सशक्त रूप अख्तियार करेगी, इसमें कोई संशय नहीं। इसी कड़ी में आज राजस्थान पत्रिका के परिवार सप्लीमेंट में बेटियों के ब्लॉग पर आर्टिकल छपा है। इससे पूर्व एक अखबार में ब्लॉग पर कॉलम शुरू हुआ है। इसका तात्पर्य यह कि मीडिया ने इस विधा को इसके जन्म के भोर में ही स्वीकार कर लिया है, यह और भी अच्छी बात है। आज राजस्थान पत्रिका में छपे आर्टिकल में बेटियों के ब्लॉग की चर्चा के साथ बताया गया है कि अभी इसके ग्यारह मेम्बर हैं और कहा गया है कि कोई भी इसमें लिख सकता है। वाकई, बेटियां होती ही हैं घर की क्यारी में खिले फूलों की तरह। बेटियां खुशबू हैं, जिनसे घर-आंगन महकता है। बेटियां अन्तर्मन में उल्लास की सृजना करती हैं। इसे हम पहचान रहे हैं। ब्लॉग के जरिए उन्हीं भावों को व्यक्त कर रहे हैं, जो हम महसूस तो करते हैं, लेकिन किसी से शेयर नहीं कर पाते। अब शेयर भी कर रहे हैं। एक-दूजे से खुशियां बांट रहे हैं। तमाम आपाधापी, चिन्ताएं, सृजनाओं की कशमकश के बीच कितना अच्छा लगता है कि जब नन्हीं कोंपलों के निर्दोष करतबों को बयां करते हैं। यह एक मंच है, साझा मंच। जहां कुछ भी तेरा-मेरा नहीं है। हैं तो सिर्फ अन्नत संभावनाओं से भरपूर बेटियां ही बेटियां। साधुवाद।
February 19, 2008
एक और चीरहरण...
जब अन्तर्मन में संवेदनाओं का आधिक्य होता है, तब आदमी का मिजाज काव्यमयी हो जाता है। मैं जब संवेदनाओं में डूबा तो कविता लिखने की ओर प्रवृत्त हुआ। ग्यारहवीं कक्षा से मन के भाव कविता के जरिए अभिव्यक्त करने लगा। प्रस्तुत कविता बी।ए. प्रथम वर्ष के दौरान लिखी थी। कैसी है, इस निर्णय का सर्वाधिकार आपके पास सुरक्षित है?
एक और चीरहरण...
चौराहे पर
कांप रही अबला
है तैयारी
एक और चीरहरण की।
खौल रहा
किसका खून
चुप हैं पांडव
आस नहीं
कृष्ण शरण की।
अबूझ पहेली सी
विषण्न मन
विस्फारित आंखें
कैसे उड़े
उन्मुक्त गगन
कतर दी पांखें
मौन सिला सी
प्रतीक्षारत्
ईश चरण की।
कोमलांगी
नर की
अतृप्त इच्छाओं का
मोल पाश्विक वृत्त
से बुभूक्षित आंखों में
रूप राशि
रहा वह तौल
बस, अभ्यस्त हाथों ने
निभा दी रस्म
.....अनावरण की।
एक और चीरहरण...
चौराहे पर
कांप रही अबला
है तैयारी
एक और चीरहरण की।
खौल रहा
किसका खून
चुप हैं पांडव
आस नहीं
कृष्ण शरण की।
अबूझ पहेली सी
विषण्न मन
विस्फारित आंखें
कैसे उड़े
उन्मुक्त गगन
कतर दी पांखें
मौन सिला सी
प्रतीक्षारत्
ईश चरण की।
कोमलांगी
नर की
अतृप्त इच्छाओं का
मोल पाश्विक वृत्त
से बुभूक्षित आंखों में
रूप राशि
रहा वह तौल
बस, अभ्यस्त हाथों ने
निभा दी रस्म
.....अनावरण की।
February 18, 2008
इस विरह के भय ने डरा रखा है
पिछले तीन-चार दिन से न लिखने के ढेर सारे बहाने गिना रहा हूं और साथ ही लिखने के ढेर सारे कारण भी बता रहा हूं। मुझे भी लग रहा था कि अब बहुत हो चुका, लिखना चाहिए। लेकिन उससे पहले ही आज साथी अभिषेक के एक सवाल ने अन्दर तक झकझोर डाला। लगभग निरूत्तर ही कर दिया। उसका कहना था कि न लिखने की मंशा और लिखने की महज रस्मअदायगी क्यों? साफगोई से स्वीकार कर रहा हूं कि मेरे पास कोई उत्तर नहीं था।न लिखने का कारण बस इतना सा ही था कि एक तो मूड नहीं था, ऊपर से सप्ताह भर से कुछ अजीब किस्म का तनाव और तीसरा लिखने के लिए अनुकूल माहौल का नहीं होना। और फालतू की बातें सिर्फ इसलिए लिख रहा था कि ब्लॉगर्स बन्धुओं के बीच बने रहने की चेष्टा भर थी। नौसिखिया होने की वजह से चाहता हूं कि ब्लॉगर्स की सूची में रोज एक बार आ ही जाऊं। सूची में न दिखूं तो यह मुझे विरह वेदना सा अहसास कराता है। यह मन की कन्दरा में बैठा कोई डर ही था, जो बार-बार आशंकित मन को खींच ले जाता है। दिल से कहूं तो मेरी स्थति लगभग वैसी ही हो रही है जैसे विवाह के बाद का पहले विरह की कल्पना मात्र से उपजने वाली सिहरन। हालांकि जब लिखने के इरादे से इस मैदान में उतरे हैं तो लिखेंगे, और यह भी तय है कि खूब लिखेंगे। कुछ सार्थक लिखने की कोशिश भी करेंगे, फिलहाल तो उसी विरह से बचने की कवायद भर है। आशा है, सभी ब्लॉगर्स बन्धु मुझे माफ करेंगे।एक-दो दिन में लिखने के मूड का जुगाड़ कर लेंगे। अगल-बगल की परिस्थतियां तो यूं ही बनी रहनी हैं, क्योंकि इन से निपटने के लिए जो जरूरी योग्यताएं मौजूदा वक्त में होनी चाहिए, उनमें से अपने पास एक भी नहीं। निरे फिसड्डी ठहरे। काम करते हैं, और आशा करते हैं वक्त पर कोई मूल्यांकन कर लेगा। यदि न हो तो एकबारगी पीड़ा होना लाजिमी है, लेकिन किया भी क्या जाए? फिर उम्मीद की पतवार के सहारे.....।
February 17, 2008
ब्लॉगर्स जैसा भाईचारा, अपनत्व कहीं नहीं
यह बात माननी पड़ेगी कि ब्लॉगर्स जैसा भाईचारा, अपनत्व कहीं नहीं है। और इस लिहाज से मैं ब्लॉगर्स भाइयों का शुक्रगुजार भी हूं कि ब्लॉगिंग में सद्यजात होने के बावजूद मुझे काफी सपोर्ट मिला है। पहले पहले मैं इसे यूं ही हल्के-फुल्के अंदाज में लेता था, लेकिन जब से ब्लॉगिंग में हाथ आजमाने शुरू किए हैं और जैसी ब्लॉगर्स भाइयों की टिप्पणियां आ रही हैं, उससे काफी हौसला बढ़ता है। मन खिन्न हो तब भी भाइयों की हिम्मत देखकर लिखने को जी चाहता है। यह अच्छी बात है और उस स्थति में और भी अच्छी जबकि आपके आस-पास के माहौल से आपको खीज होती हो, आप इरिटेट होते हों, कई प्रकार की खराशें आपका मन खराब कर दें, तब ब्लॉगिंग के जरिए दिल की बात कहिए। ब्लॉगर्स साथी आपकी मदद को तत्पर मिलेंगे। इनका भाई सम्बोधन भी एसी स्थति में रामबाण औषधि से कम नहीं। सच सारा गुस्सा, सारी अशांति, सारी कड़वाहटें पल में काफूर हो जाती हैं। इसलिए मेरा जी सभी ब्लॉगर्स साथियों के प्रति श्रद्धा से भरा है। मैं इनका शुक्रगुजार हूं। आभार, सभी ब्लॉगर्स साथियों।
February 16, 2008
ब्लॉगिंग क्यों बन रही है अनिवार्य?
रोज-रोज ब्लॉगिंग करना सिरदर्द से कम नहीं है? आखिर ब्लॉगिंग क्यों इतनी अनिवार्य बन जाती है? एक तो यही कि जब आप लिखना शुरू कर देते हैं तो फिर आपको उपस्थिति दर्ज करानी ही पड़ती है। नहीं कराते हैं तो खालीपन का अहसास होता है। बेचैनी बढ़ती है और बढ़ते-बढ़ते उस बिन्दु तक पहुंच जाती है, जहां आकुलता का जन्म होता है। एसा आप नहीं चाहेंगे, लिहाजा कुछ भी लिखो, लिखना अनिवार्य मजबूरी है।मैं मेरे विषय में कह सकता हूं, जब से इस कीड़े द्वारा काटा गया हूं, कुछ न कुछ लिखने की अनिवार्यता के साथ उठता हूं। विषय सोचता हूं। कई जमते हैं। कई खारिज होते हैं। फिर विचारों की तारतम्यता बनाने की कोशिश करता हूं। इसी बीच कोई नया विषय दिमाग में कौंध जाता है। फिर उसमें सिर खपाने लगता हूं। फिर वही बेचैनी। यदि लिख भी लिया तो साथियों की टिप्पणियों का इन्तजार। टिप्पणियां नहीं आएं तो लगता है अपना लिखा हुआ सिरे से खारिज। यह भी कम परेशानी का विषय। अधिकांश ब्लॉगर्स साथियों की पोस्टें पढ़ते हैं। कुछ को देखकर ही छोड़ देते हैं। उनमें अधिकांश से ध्वनित होता है कि सभी सिर्फ मौजूदगी के लिए एक जंग लड़ रहे हैं। यह रोज की जंग है। जंग लड़ते रहो साथियो। शुभकामनाएं।
February 15, 2008
लिखने के ढेर सारे कारण और टिप्पणियों से दुरुस्त होना मूड का
कल मूड नहीं था, सो यूं ही लिख दिया था कि आज मूड नहीं लिखने का, और फिर आपके लिखने से भी क्या हो जाएगा? मैं सोच भी नहीं सकता कि एक छोटी सी स्वीकारोकि्त पर साथी ब्लॉगर इतना अपनत्व ऊंडेल देंगे। कई रोचक टिप्पणियां आईं। जो मूड उखड़ा हुआ था, टिप्पणियों से उसकी मरम्मत हो गई। दिल हल्का हो गया। यह मित्रों की सदाशयता ही है कि एक उखड़ा मूड उनके सीधे दिल से निकले चंद शब्दों से दुरुस्त हो सका। अनिता कुमार ने लिखा कि लिखते भी हैं और कहते हैं मूड नहीं भई वाह। पढ़कर अच्छा लगा। हरिमोहन जी की टिप्पणी और भी मजेदार रही। क्या आप दुनिया बदलने के लिए लिख रहे हैं? लगा-खराशें उनके मन में भी हैं। साथ ही एक अपील भी थी कि दुनिया बदले या न बदले, लिखना अवश्य चाहिए। सहकर्मी अभिषेक ने भी हौसला अफजाई में कसर बाकी नहीं रख। सुनिता जी ने मेरी बात से सहमति जताई कि लिखने के लिए मूड का होना आवश्यक है। और सबसे जो खास टिप्पणी रही वह उड़ तस्तरी जी कि आज नहीं तो कल लिख लेना, दिल छोटा नहीं करो। वाकई दिल बड़ा हो गया। यूं भी हर रोज, हर पल हमें कुछ न कुछ लिखने के लिए प्रेरित भी करता है और बाध्य भी। ...और फिर जब इतने सारे दोस्त मददगार हों, आपके पीछे खड़े हों संबल बनकर तो क्यों न की बोर्ड पर अंगुलियां चलाईं जाए। इसलिए आज मन कर रहा है कि क्यों न लिखा जाए। बेशक लिखा जाए, क्योंकि लिखने के लिए विषय भी है और सबसे बड़ी बात यह कि मूड भी है।
दुषित पानी से मौतें और एक मंत्री कहता है कि यह सृषि्ट का नियम है जो आया है, सो जाएगा?
राजस्थान की राजधानी जयपुर में पिछले कुछ माह से दूषित पानी से मौतों के समाचार आ रहे हैं। आरोप है कि जलदाय विभाग की पाइप लाइनें और सीवरेज लाइनों के मिल जाने से पानी दूषित हो रहा है। इस पर कल जिम्मेदार मंत्री का बयान आया कि यह प्रकृति का उसूल है कि जो आया है, सो जाएगा। यह एक मंत्री का बयान मात्र नहीं है। इस बयान के आईने में एक सत्ता का चरित्र साफ देखा जा सकता है। मिनरल वाटर पीकर एसे गैर जिम्मेदार बयान देने वाले मंत्री शायद यह भूल रहे हैं कि वे जिस आने-जाने के ब्रह्म वाक्य की बात कर रहे हैं, कल चुनाव में उन्हें और उनकी सरकार को उसी जनता के सामने जाकर रिरियाना है। वे ही सब्जबाग उन्हें फिर दिखाने हैं। साफ पानी के वादे भी उन्हें करने हैं। तब वही जनता भी उन्हें परिवर्तन का पाठ सिखा सकती है।इस समूचे परिदृश्य पर गौर करें तो इस हमाम में सभी की नंगई दिखेगी। मंत्री, अधिकारी, ठेकेदारों तक सबकी मिलीभगत का परिणाम है यह हादसा। आरोपों के बचाव में एसे बयान देने की बजाय पाइप लाइनें चैक की जाएं। गलती का सूत्र ढूंढा जाए। और यदि कोई आरोपी है तो उसकी पहचान की जाए तो न उनकी किरकिरी होगी और न उन्हें एसे बयान देने की नौबत जाएगी।
दुषित पानी से मौतें और एक मंत्री कहता है कि यह सृषि्ट का नियम है जो आया है, सो जाएगा?
राजस्थान की राजधानी जयपुर में पिछले कुछ माह से दूषित पानी से मौतों के समाचार आ रहे हैं। आरोप है कि जलदाय विभाग की पाइप लाइनें और सीवरेज लाइनों के मिल जाने से पानी दूषित हो रहा है। इस पर कल जिम्मेदार मंत्री का बयान आया कि यह प्रकृति का उसूल है कि जो आया है, सो जाएगा। यह एक मंत्री का बयान मात्र नहीं है। इस बयान के आईने में एक सत्ता का चरित्र साफ देखा जा सकता है। मिनरल वाटर पीकर एसे गैर जिम्मेदार बयान देने वाले मंत्री शायद यह भूल रहे हैं कि वे जिस आने-जाने के ब्रह्म वाक्य की बात कर रहे हैं, कल चुनाव में उन्हें और उनकी सरकार को उसी जनता के सामने जाकर रिरियाना है। वे ही सब्जबाग उन्हें फिर दिखाने हैं। साफ पानी के वादे भी उन्हें करने हैं। तब वही जनता भी उन्हें परिवर्तन का पाठ सिखा सकती है।इस समूचे परिदृश्य पर गौर करें तो इस हमाम में सभी की नंगई दिखेगी। मंत्री, अधिकारी, ठेकेदारों तक सबकी मिलीभगत का परिणाम है यह हादसा। आरोपों के बचाव में एसे बयान देने की बजाय पाइप लाइनें चैक की जाएं। गलती का सूत्र ढूंढा जाए। और यदि कोई आरोपी है तो उसकी पहचान की जाए तो न उनकी किरकिरी होगी और न उन्हें एसे बयान देने की नौबत जाएगी।
February 14, 2008
आपके लिखने से क्या हो जाएगा?
अजब समस्या है। शायद आपकी भी होगी। हर लिखने वाले की होगी। क्या लिखा जाए? उससे बड़ा सवाल यह कि क्यों लिखा जाए? आपके लिखने से क्या हो जाएगा? कौनसी परिवतॆन की लहर चल निकलेगी? लिखने से अधिक इस पर सोचना पड़ता है कि किस-किस पर लिखा जाए। किस पर न लिखा जाए। वैसे लिखने के लिए विषय भी कम नहीं। खबरों के समन्दर में रोज उगते हैं। रोज दफन होते हैं। लीजिए-महाराष्ट् में गुण्डा राज अभी तक कायम है। राज की गिरफ्तारी की रस्म अदायगी भले हो गई। लेकिन हिंसा पर कोई असर नहीं। बदस्तूर जारी है। इससे परे हटकर देखें तो सांसद पप्पू यादव को सजा हो गई। उस पर भड़ास निकाली जा सकती है। आज वैलेन्टाइन डे है और तथाकथित संस्कृति के पहरेदारों के डण्डे भी निरदोष प्रेमियों पर चल रहे होंगे। इस पर लिखा जा सकता है। लिखने के लिए इससे अच्छा विषय क्या हो सकता है। कई बार लठ और कलम चलाने वालों की मजबूरी कमोबेश एक जैसी होती है। उसी बाध्यता के चलते लिखा जा सकता है। और नजर फैलाइए। हर घटना आपको लिखने के लिए आमन्त्रण दे रही है। स्वीकार कीजिए। लेकिन लिखने के लिए जरूरी है एक अदद भले से मूड का। अब मूड बनना कोई आसान काम तो है नहीं। क्या पता कब उखड़ जाए? किस बात पर उखड़ जाए? क्यों उखड़ जाए? कुछ कहा नहीं जा सकता। जैसे आज मेरा उखड़ा हुआ है। बिलकुल मूड नहीं है लिखने का। इसलिए नहीं लिखूंगा। माफ करना।
February 13, 2008
...तो फिर यह मुम्बई आपको ही मुबारक?
गांधीगिरी के देश में ठाकरेगिरी का जिन्न फिर जाग गया है। चालीस साल पहले दफन यह भूत राजनीतिक महत्वाकांक्शाओं की कोख से एक बार फिर जबरन निकाला गया है। फिर खासकर गैर महाराष्टि्यन लोग निशाने पर हैं। लेकिन ठहरिए, इन पर बेरहमी से लठ चलाने से पहले तनिक सोचिए। अपना आत्मा को झकझोरिए। यदि ये लोग वाकई इतने अवांछित हैं, तो पहले बिड़लाओं को भी निकालिए। अम्बानियों को भी निकालिए। पीरामलों को भी निकालिए। सिंहानियों को भी निकालिए। उद्योगपतियों से लेकर हर एरे-गैरे को निकालिए, जो वोट के आपके सांचे में फिट नहीं बैठ रहे हैं। आपकी मुम्बई को सुन्दर बनाने में गैर मराराष्टि्यन लोगों का योगदान क्या बिलकुल नहीं है? आपकी मुम्बई को, राज की मुम्बई को, ठाकरे की मुम्बई को, पंवार की मुम्बई को सुन्दर बनाने में आपसे कहीं अधिक योगदान इन गैर करार दिए गए लोगों का है। बॉलीवुड को निकाल दीजिए मुम्बई से, फिर देखिए आपकी क्या पहचान है? बिना बॉलीवुड की मुम्बई की कल्पना भयावह स्वपन की तरह है, जो आपभी कतई नहीं देखना चाहेंगे। आज जितने ही सितारे हैं, फिल्म मेकर हैं, वे कहां से आए हैं? गिनती कीजिए- देश के कोने-कोने से चलकर पहुंचे इन लोगों ने महाराष्ट् को सही मायनों में महा राष्ट् बनाया है। आप इनके योगदान के बलबूते देश में सिर गवॆ से उठा कर दुनिया में थूक सकते हैं। पर इन लोगों पर मत थूकिए।देश के हर कोने से पहुंचा व्यकि्त जब सफल होकर अपने घर-गांव-कस्बे-शहर लौटता है तो उससे आपकी मुम्बई की भी शान बढ़ती है। लौटकर वह फिर मुम्बई-महाराष्ट् की तरक्की में योगदान देने लगता है। उसकी पीढ़ियां अपनी जड़ों को भूल जाएंगी, लेकिन वे महाराष्ट् को हमेशा सींचेंगे-संवारेंगे। लेकिन यदि वह जरा सा अपनी मातृ भूमि का ऋण चुकाना चाहता है तो इससे आपको कहां दिक्कत होनी चाहिए। उनसे आप भी मांगिए। हक से लीजिए। फिर वह कभी मना नहीं करेगा। बेशक आपको ये लोग नहीं चाहिए, लेकिन आपको चुनाव में चन्दा कौन देता है। क्या बाहर से आए ये उद्योगपति आपके चुनाव संचालन में मददगार नहीं बनते। एक अरब से अधिक की आबादी वाली मुम्बई का जन भार कौन ढोता है, यही बाहर से आए मेहनतकश लोग। आपके यहां जो भव्य अट्टालिकाएं खड़ी शोभा बन रही हैं, उन्होंने किसके पसीने ऊंचाइयां चढ़ी है, इन्हीं लोगों से न।माना आपको कुरसी चाहिए। आपकी मजबूरी है, लेकिन एसी भी क्या मजबूरी जो राष्ट् और संविधान की अखण्डता को ही तार-तार कर दे। आपका विकास का नारा बुलन्द कीजिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने लठ चलाइए। मुम्बई को अण्डरवल्डॆ से मुकि्त के लिए अभियान चलाइए। उसमें आपकी भी असल शोभा है। फिर भी आप इसी एजेण्डे के सहारे सत्ता सुख भोगना चाहते हैं, तो फिर एसी मुम्बई आपको ही मुबारक।
February 12, 2008
परदेसी, तू मरने के लिए यहां आया था क्या?
डेढ़ घंटे तक परदेसी का शव सड़क किनारे पड़ा रहा। लोग आते-जाते रहे। दो घंटे तक जाम भी लगा। लेकिन वाह रे भारतीय सिस्टम। एक अदद एम्बुलेंस नहीं पहुंच पाई। नसीब हुई भी तो हेल्पिंग-सरफिंग की एम्बुलेंस, जिसमें मृत-घायल पशु-पक्शियों को ले जाया जाता है। सिस्टम पर तो करारा तमाचा इतने भर से ही लग गया कि सिर से रिस रहे खून के बावजूद परदेसी की पत्नी ने स्वयं का इलाज कराने से इनकार कर दिया। यह है इक्कीसवीं सदी के महानगरीय प्रसव पीड़ा से छटपटाते शहरों की तस्वीर।बेल्जियम के माइकल को इंडिया आने से पहले यह अंदेशा नहीं था कि यह उसका आखिरी सफर होगा। अब उसकी पत्नी ओटिका अपने पति को खोकर अपने वतन लौट जाएगी, साथ सदा-सदा के लिए ले जाएगी कड़वाहट भरी यादें यहां की अव्यवस्थाओं की। यह जोड़ा दिल्ली भ्रमण के बाद वहां से इंडिका लेकर जयपुर भ्रमण पर आया था। वे आमेर महल का दीदार करने पहुंचे। सड़क पर इंडिका से उतरे ही थे कि पुलिस के वाहन ने टक्कर मार दी। माइकल की मौत तत्काल हुई या कुछ देर बाद, इससे भयावह सवाल यह था कि डेढ़ घंटे तक वहां एम्बुलेंस नहीं पहुंची। ओटिका डेढ़ घंटे तक असहाय-निरूपाय सड़क किनारे पति के शव के पास बैठी आते-जाते लोगों को ताकती रही। जीप से उसने शव ले जाने से इनकार कर दिया। फिर उसे एम्बुलेंस तो नसीब हुई, लेकिन वह भी जानवरों-पक्शियों को ले जाने वाली। अव्यवस्था से खिन्न ओटिका ने स्वयं की मरहम पट्टी करवाने से भी इनकार कर दिया। सवाई मानसिंह अस्पताल के मुरदाघर के बाहर खामोश बैठी ओटिका का मौन वहां पसरे सन्नाटे से कहीं भयावह था। आंखों का सूनापन कई प्रश्नों को जन्म दे रहा था। क्या इन खामोश प्रश्नों का कोई उत्तर दे सकता है? क्या यही शाइनिंग इंडिया, इनक्रेडिबल इंडिया है, जहां किसी घायल का जीवन बचाना तो बाद की बात, तत्काल अस्पताल ले जाने की व्यवस्था तक नहीं हो सकती। क्या हम किसी का भरोसा जीतने के काबिल बन सकते हैं। हम पयॆटकों का आह्वान करते हैं, विदेशी मुद्रा से अपने कोष भरने की कामना रखते हैं, लेकिन जब विदेशी यहां पहुंचते हैं तो उनका इस्तकबाल किस तरह होता है, यह किसी से छुपा नहीं है। परदेसी दिखते ही हर किसी के मन में यही खयाल आता है कि इसे किस तरह लूटा जाए। लपकों से लेकर दुकानदार, वाहन चालक या हर कोई एरा-गैरा। सब इसी फिराक में रहते हैं। अब इंडिया के भिखारी तक अच्छी तरह जान चुके हैं कि कहीं टूरिस्ट दिखाई दे जाए, तो इस कदर पीछा करें कि डॉलर-पाउण्ड उनकी झोली में डाल जाए।वे जहां-जहां जाते हैं हर समय कोई न कोई उनके पीछे लगा रहता है। रोकने वाला कोई नहीं। न पयॆटन पुलिस, न अन्य कोई व्यवस्था। एसे में पयॆटक स्वयं को इन अवांछित परेशानियों से बचाये या पयॆटन स्थलों का लुत्फ उठाए। यहां से जाकर जब परदेसी इंडिया को गालियां बकते हैं तो हमारे पेट में एंठन नहीं होनी चाहिए। यदि होती है तो पहले उनकी हिफाजत करने के इंतजामात करने चाहिए और उनका नारों से ऊपर उठ स्वागत-सत्कार भी उसी ढंग से होना चाहिए। आखिर हमारी अथॆव्यवस्था में इनका योगदान भी तो कम नहीं।
February 11, 2008
बाबा आम्टे को भारत रत्न क्यों दिया जाए?
भारत रत्न डिमांड की मार्केटिंग काफी हो चुकी। अगले पचास-साठ साल तक के दावेदार सामने आ चुके हैं। चलो, ढेर सारी समस्याओं वाले देश में एक टेंशन तो खत्म हुई। अब बाकी फील्ड में निस्संकोच काम किया जा सकता है। इस बीच सवाल यह नहीं उठना चाहिए कि बाबा आम्टे को भारत रत्न क्यों नहीं दिया गया? बेशमॆ सवाल यह होना चाहिए कि बाबा को भारत रत्न क्यों दिया जाए? उनसे एसा हुआ क्या है कि एक भारत रत्न खराब किया जाए। आप खुद तुलना कीजिए, कुछ कद्दावरों से, बाबा इस सूची में कहीं नहीं ठहरेंगे। एक लंगोटी वाला आखिर ठहर भी कैसे सकता है?भारत रत्न तो सचिन तेंदुलकर को मिलना चाहिए। जिन्होंने अनाज के भूखे देश की खाली झोली हजारों रनों से भर दी। क्रिकेट के बलबूते चार सौ करोड़ की सम्पत्ति बनाई है। देश की अथॆव्यवस्था में यह योगदान कम नहीं है। गली-गली तक क्रिकेट क्रांति इनसे ही हुई है और आज हर मां-बाप का बच्चा सचिन बनना चाहता है। इनको न मिले तो भारत रत्न रतन टाटा को मिलना चाहिए। जिनकी बदौलत निम्न वगॆ का कार का सपना पूरा होगा। देश में भले ही ढंग से सड़कें न बन पाई हों, लेकिन हर घर में कार तो आ ही जाएगी। अमिताभ बच्चन को लगातार खबरों में बने रहने के लिए दिया जा सकता है। एसी खबरों से देश का ध्यान दूसरी समस्याओं से हटता है। यूं तो शरद पंवार किससे कम हैं। राजनेता होकर क्रिकेट में उनका अनुपम योगदान भुलाया नहीं जा सकता। देश कृषि के मामले में निरन्तर प्रगति करे या नहीं क्रिकेट में तो कर ही रहा है। टीम जीत भी रही है। इसलिए पंवार साहब का दावा तो बनता है और मजबूती से बनता है। यही क्या कम है?भारत रत्न स्व. चौधरी चरण सिंह को क्यों नहीं मिलना चाहिए, जिन्होंने देश को दल-बदल की परम्परा दी। यदि यह परम्परा नहीं होती, तो आज की सरकारें कैसे चल रही होती। जगजीवनराम को उनके प्रधानमंत्री बनने के गम्भीर प्रयासों के लिए दिया जा सकता है। मुलायम सिंह भी बाबा आम्टे से कहीं प्रबल दावेदार हैं, जो आज निराले किस्म का समाजवाद(धनवाद) देश में खिलाने के प्रयत्नों में जुटे हैं। कॉमरेड ज्योति बसु भी सॉलिड उम्मीदवार हो सकते हैं। वैसे हर कॉमरेड नेता को इसलिए ही दिया जा सकता है कि उन्होंने पानी में रहकर मगर से बैर करने की परिभाषा गढ़ी है। यानी समथॆन दे भी दिया और नहीं भी दिया। देखा, कैसा जादुई समथॆन है और जादू से बनी सरकार है। फिर क्यों न एक भारत रत्न हो जाए इस बात पर।बाला साहब ठाकरे को देश भक्त होने के नाते दिया जा सकता है। वैसे एश्वयाॆ को देश में ब्यूटी पौधा खिलाने के लिए क्यों न दिया जाए। आज अधिकांश तरुणियों ब्यूटी मंच पर भारत का नाम रोशन करने के लिए घोर तैयारियों में जुटी हैं। लिस्ट काफी लम्बी हो रही है। कुछ आप भी तो सोचें?...आखिरी सवाल?बात फिर बाबा आम्टे पर पहुंच गई। उनका देश में योगदान कितना है। महाराष्ट के एक कोने में खोल लिया आश्रम, ठूंस लिए कुष्ठ रोगी। बताइए यह भी कोई देश के लिए योगदान हुआ? फिर क्यों सचिन, अमिताभों, मुलायमों, मायावतियों, टाटाओं, बिड़लाओं, अम्बानियों की सूची में आम्टे का नाम शामिल किया जा सकता है।
February 10, 2008
बाबा आमटे कोई अमिताभ बच्चन है क्या?
बाबा आमटे कोई अमिताभ बच्चन है क्या? आमटे कौन है? कोई अमिताभ बच्चन है क्या? जो कभी उद्योगपतियों से दोस्ती को लेकर, कभी सबसे ज्यादा जुमॆ वाले प्रदेश में जुमॆ सबसे कम कह कर समाजवादी दल की पैरवी को लेकर तो कभी तथाकथित किसान होने को लेकर चैनल्स और अखबारों की सुखिॆयों में रहने का सुख भोगता है? कभी जेल के अन्दर, कभी बाहर होता संजय दत्त, सलमान खान हैं क्या? एक बीबी को छोड़, विदेशी से इश्क फरमा, और अब तीसरी अदाकारा के संग इश्कियाता सैफ अली खान है क्या? नशीली सामग्री के साथ पकड़ा गया सितारा भी नहीं है। किसी सेलिब्रिटी का प्रेम किस्सा भी तो नहीं है। और न ही किसी हस्ती का विवाह प्रकरण? किसी राजनेता का बिगड़ैल शहजादा भी नहीं है। उद्योगपति का अन्धा पुत्र भी नहीं है, जो फुटपाथ पर सोये गरीब-गुरबा लोगों पर गाड़ी चढ़ा दे। बदला लेने को आतुर नागिन की प्रेम कथा भी नहीं है। हद से हद यह कि कोई साधुनुमा इन्सान ही तो था, तन पर साधारण कपड़े पहनता था। आश्रम में रहता था और दीन-दुखियों की सेवा में लगा हुआ था। जिन कुष्ट रोगियों से घृणा का फैशन हमें अव्वल वगॆ में शुमार कर देता है, वह उन्हीं भूले-बिसराये, सड़े-गले लोगों को गले से लगाए सेवा-सुश्रूषा में लगा हुआ था। और ज्यादा से ज्यादा यह कह सकते हैं कि आखिरी गांधीवादी था। फिर क्योंकर नेशनल न्यूज बनता भाई। उसको विस्तार देने से किस चैनल की टीआरपी बढ़ने वाली थी। किसके एड्स में इजाफा होने वाला था? कैसा आदमी था, न अखबारों को पसंद, न चैनों को। भारत रत्न के काबिल भी नहीं था। वरना कभी का दे दिया गया होता? उसके पीछे किसका वोट बैंक था, जिसको भारत रत्न देने से दलों के वोट बैंक में इजाफा होता। यह सब नहीं था, फिर हम अखबारों के पहले पन्ने पर क्योंकर उसे चार कॉलम छापते। सिंगल कॉलम भी अहसान की गरज से छाप दिया।खामख्वाह यह आदमी इत्ते साल दुबलाता रहा सेवा में। इससे अच्छी तो धोनी की जुल्फें ही हैं, जिनके मुशरॆफ तक मुरीद हैं। आईपीएल ज्यादा बड़ी है कहीं। खबरों के पैमाने के अनुसार। विराटता में भले ही पंगू ही हो। विराटता किसने देखी है। विराटता ही होती तो नाग-नागिन की प्रेम कथा में कहां की विराटता है?मुझे अफसोस है बाबा आमटे तू अमिताभ क्यों नहीं था?
February 09, 2008
मुरदा संवेदनाओं का सबब गुरदा काण्ड
जिन्दगी में गर कोई दुआ मांगने के लिए कहा जाए, तो मैं यही मांगूंगा कि काश एसा हो जाए कि कभी डॉक्टरों के पास न जाना पड़े। लेकिन यह खरा सच यह है कि न हम डॉक्टरों के पास जाने से बच पाते हैं और न एसी कोई दुआ मांगने के काबिल। जब-जब डॉक्टरों के पास जाना होता है, एक अजीब किस्म का डिप्रेशन दिमाग में हावी होने लगता है। लगता है, एक और नई बीमारी पैदा हो गई। यह अनायास उपजी बीमारी नहीं है। यह कुछ करतूतों से ही उपजी आशंका है। कुछ डॉक्टरों में भगवान के रूप में शैतान का घर होता है, जिसका उद्देश्य येन-केन-प्रकरेण पैसा कूटना होता है। यह मैं यूं ही हवा में नहीं कह रहा हूं। चौबीस कैरेट सच हमारे सामने है।
गुरदा डीलर पकड़ा गया और जितनी किडनी निकालना कबूला है, उसे सुनकर एकबारगी विश्वास उठ सकता है चिकित्सकीय पेशे से। लेकिन पूरी तरह एसा भी नहीं हो सकता। कुछ डॉक्टर आज भी अपने पेशे के प्रति निहायत ही ईमानदार हैं और एसे डॉक्टर मेरे परिचित भी हैं, जिनके बारे में मैं दावे से कह सकता हूं कि कम से कम वे न तो ऑपरेशन करते समय मरीज के पेट में औजार छोड़ेंगे और न ही मरीज को ऑपरेशन टेबल पर लिटा कर लूटने का उपक्रम करते होंगे।मेरे एक रिश्तेदार ने कल आपबीती सुनाई। यह महज एक घटना है और रोज न जाने किस कोने में, कहां-कहां एसी घटनाएं अंजाम को प्राप्त होती होंगी। दरअसल वे पिछली साल राजस्थान के चूरू जिले में थे, जब उन्हें सीने में कुछ ददॆ महसूस हुआ। वे झुझुनूं आने वाली बस में बैठ चुके थे।(दोनों की दूरू ५२ किलोमीटर है)। रास्ते में ददॆ असहनीय हो उठा। सांस धोंकनी सी चलने लगी। झुझुनूं पहुंचते-पहुंचते सांसे पूरी तरह उखड़ने लगी। उन्हें लगा, शायद डॉक्टर तक भी मुशि्कल पहुंच पाएं। वे बस स्टैण्ड के पास ही एक डॉक्टर जिसको वे दिखाते रहे हैं, के पास पहुंचे। भले डॉक्टर ने उनकी हालत देख तत्काल एक्सरे किया। एक्सरे देख वे दंग रह गए। बकौल रिश्तेदार, फेफड़ा फट गया। डॉक्टर ने उन्हें तुरन्त दूसरे डॉक्टर के पास भेज दिया, यह कहते हुए कि अभी ऑपरेशन करना होगा। उस डॉक्टर के पास गए तो उसने उनकी मरणासन्न हालत को नजरअंदाज करते हुए कुछ दवाएं लिख दी और फीस के पैसे वसूल लिए। वे तत्काल पहले वाले डॉक्टर के पास गए और सारी समस्या बताई। यह भी डॉक्टर ही था, जो मरीज की जान बचाने को चिंतित था। उसने गुस्से में साफ कहा कि वह डॉक्टर कुछ पैसे लेना चाहता था, उसके बाद ही ऑपरेशन करता। (हालांकि भुगतभोगी जानते हैं, सरकारी अस्पतालों में यह कोई नई बात नहीं रह गई है।) उन्होंने फिर एक डॉक्टर के पास भेजा और उसे फोन कर समस्या से अवगत कराया। रिश्तेदार मरीज की किस्मत अच्छी थी और उस डॉक्टर ने जाते ही ऑपरेशन कर दिया और उनकी जान बच गई।
वे रिश्तेदार सीने में थोड़ी प्रॉब्लम लेकर कल ही इस आस में मेरे पास आए थे कि मैं जयपुर में उन्हें किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाऊं।यह एक उदाहरण है। गौर करेंगे तो लाखों प्रकरण हैं इदॆ-गिदॆ। यहां अच्छे डॉक्टर भी हैं। और जितने अच्छे डॉक्टर हैं उनसे बुरे भी यहीं मौजूद हैं। उद्दाम लालसाओं ने उन्हें शैतान बना डाला है। तभी तो गुरदा काण्ड जैसे हादसे समाज, सभ्यता, कानून सबके चेहरे पर कालिख पोतते रहते हैं।
गुरदा डीलर पकड़ा गया और जितनी किडनी निकालना कबूला है, उसे सुनकर एकबारगी विश्वास उठ सकता है चिकित्सकीय पेशे से। लेकिन पूरी तरह एसा भी नहीं हो सकता। कुछ डॉक्टर आज भी अपने पेशे के प्रति निहायत ही ईमानदार हैं और एसे डॉक्टर मेरे परिचित भी हैं, जिनके बारे में मैं दावे से कह सकता हूं कि कम से कम वे न तो ऑपरेशन करते समय मरीज के पेट में औजार छोड़ेंगे और न ही मरीज को ऑपरेशन टेबल पर लिटा कर लूटने का उपक्रम करते होंगे।मेरे एक रिश्तेदार ने कल आपबीती सुनाई। यह महज एक घटना है और रोज न जाने किस कोने में, कहां-कहां एसी घटनाएं अंजाम को प्राप्त होती होंगी। दरअसल वे पिछली साल राजस्थान के चूरू जिले में थे, जब उन्हें सीने में कुछ ददॆ महसूस हुआ। वे झुझुनूं आने वाली बस में बैठ चुके थे।(दोनों की दूरू ५२ किलोमीटर है)। रास्ते में ददॆ असहनीय हो उठा। सांस धोंकनी सी चलने लगी। झुझुनूं पहुंचते-पहुंचते सांसे पूरी तरह उखड़ने लगी। उन्हें लगा, शायद डॉक्टर तक भी मुशि्कल पहुंच पाएं। वे बस स्टैण्ड के पास ही एक डॉक्टर जिसको वे दिखाते रहे हैं, के पास पहुंचे। भले डॉक्टर ने उनकी हालत देख तत्काल एक्सरे किया। एक्सरे देख वे दंग रह गए। बकौल रिश्तेदार, फेफड़ा फट गया। डॉक्टर ने उन्हें तुरन्त दूसरे डॉक्टर के पास भेज दिया, यह कहते हुए कि अभी ऑपरेशन करना होगा। उस डॉक्टर के पास गए तो उसने उनकी मरणासन्न हालत को नजरअंदाज करते हुए कुछ दवाएं लिख दी और फीस के पैसे वसूल लिए। वे तत्काल पहले वाले डॉक्टर के पास गए और सारी समस्या बताई। यह भी डॉक्टर ही था, जो मरीज की जान बचाने को चिंतित था। उसने गुस्से में साफ कहा कि वह डॉक्टर कुछ पैसे लेना चाहता था, उसके बाद ही ऑपरेशन करता। (हालांकि भुगतभोगी जानते हैं, सरकारी अस्पतालों में यह कोई नई बात नहीं रह गई है।) उन्होंने फिर एक डॉक्टर के पास भेजा और उसे फोन कर समस्या से अवगत कराया। रिश्तेदार मरीज की किस्मत अच्छी थी और उस डॉक्टर ने जाते ही ऑपरेशन कर दिया और उनकी जान बच गई।
वे रिश्तेदार सीने में थोड़ी प्रॉब्लम लेकर कल ही इस आस में मेरे पास आए थे कि मैं जयपुर में उन्हें किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाऊं।यह एक उदाहरण है। गौर करेंगे तो लाखों प्रकरण हैं इदॆ-गिदॆ। यहां अच्छे डॉक्टर भी हैं। और जितने अच्छे डॉक्टर हैं उनसे बुरे भी यहीं मौजूद हैं। उद्दाम लालसाओं ने उन्हें शैतान बना डाला है। तभी तो गुरदा काण्ड जैसे हादसे समाज, सभ्यता, कानून सबके चेहरे पर कालिख पोतते रहते हैं।
February 08, 2008
नपुंसक इरादों की शिकार एक बेबस लड़की
रात को देर तक उधेड़बुन चलती रही। मन में खराशें उग आईं। दरअसल वह एक किस्सा था, जो पत्नी ने सुनाया था। सुनकर लगा, एक औरत की बेबसी की शायद इससे ज्यादा पराकाष्ठा क्या होगी? पत्नी के ऑफिस में उनकी एक सहयोगी आज बता रहीं थीं कि उनके मामाजी अपनी लड़की की शादी में कैसे लुटे-पिटे-ठगे गए। उन्होंने अपनी लड़की की शादी एक कथित इंस्पेक्टर से की। धूमधाम से लड़की को विदा किया। हैसियत से ज्यादा खचॆ भी। शादी के तीन माह तक ससुराल वालों ने लड़की को पीहर नहीं भेजा। पीहर वालों के बार-बार कहने के बावजूद किसी तरह टालते रहे। पीहर वालों को खटका हुआ। वे जस-तस दो दिन के लिए लड़की को पीहर ले आए। वे यह देखकर दंग रह गए कि तीन माह में अच्छी-भली हष्ट-पुष्ट लड़की कैसे दुबली हो गई। चेहरे की सारी लालिमा जाती रही। आंखें धंसने लगीं। पूछने पर मौन साध लिया। काफी कुरेदने पर लड़की फट पड़ी। रुलाई न रुकी। आंसुओं में गुबार बह निकला। उसने जो बताया, उससे मां के पैरों तले की जमीन खिसक गई। उसे यकीन नहीं हो पा रहा था कि क्या छल इस रूप में भी हो सकता है? लड़की ने जो हकीकत बताई, उसे सुनकर मां के कानों में जैसे पिघला शीशा उंडेल दिया। शादी के बाद पहली ही रात को जिस सुहाग सेज पर वह सिमटी-सिकुड़ी-लजाई सी पति आगमन के इन्तजार के साथ भविष्य के सुखद सपने बुन रही थी, उसे नहीं पता था कि ये सपने तार-तार होने वाले हैं। आहट सुनकर वह चौंकी, लेकिन पति को न पाकर उसे थोड़ा आश्चयॆ हुआ। वहां उसकी ननद थी। उसे तब और भी धक्का सा लगा, जब ननद ही उसके पास सो गई। सोचा, शायद एसा ही रिवाज होगा। लेकिन यह क्या? दूसरे दिन भी एसा ही हुआ। फिर तो तीसरे, चौथे, पांचवें दिन...अन्तहीन सिलसिला। वह रात कभी नहीं आई। इस बीच वह जितना सोचती, उतने ही प्रश्न खड़े हो जाते। वह पति के जितना पास जाने की कोशिश करती, वह उतना ही दूर होने का यत्न करता। वह कुछ कुंठित सा हो चला। और इस कुंठा में उसने बिना वजह ही उस पर हाथ उठा दिया। एक बार हाथ उठाया, तो उठता ही चला गया। और एक रूटीन में बदल गया। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह सब हो क्या रहा है? इस बीच यह भी पता लग गया कि उसका पति इन्स्पेक्ट नहीं है। उसने पूछा तो बदले में मिली मार, इन शब्दों के साथ कि मैं तो मेरे मन का इन्स्पेक्टर हूं। बोलो, क्या कर लोगी? अनिश्चय में घिरी लड़की अपने पीहर वालों से भी कुछ नहीं कह पाई। कभी-कभी उसका ससुर बड़ी बेहयाई से उसके नजदीक आने की कोशिश करता। खींसे निपोर कर कहता, कोई कमी तो नहीं? कुछ चाहिए तो बोलो? (यहां उसने कुछ एसी पेशकश भी की, जिसको मैं यहां लिखना ठीक नहीं मानता।)...और एक दिन वह मनहूस रात...। उसकी ननद अचानक उठकर कमरे से बाहर चली गई। थोड़ी देर बाद बाहर कुछ आहट हुई। उसने उठकर देखा, बाहर उसका ससुर खड़ा था। स्याह रात में उसके चेहरे पर डरावनी हंसी तैर रही थी और उसके चमकते दांत रात को और भयानक बना रहे थे। उसे समझते देर नहीं लगी, उसने फटाक कमरा बंद कर लिया। उसके दो दिन बाद ही उसे किसी तरह पीहर वाले लिवा लाए।सच बहुत डरावना था। वह लड़का नपुंसक था और उसकी एक शादी पहले भी हो चुकी थी। वह लड़की भी अपने भाग्य को कोसती, रोती छोड़कर चली गई थी। दुबारा शादी करने का मकसद यह था कि किसी तरह ससुर पति का स्थान हथिया लेगा और लड़की अपनी इज्जत की खातिर सब-कुछ सहती रहेगी। ...और उन्हें खान-दान का वारिश मिल जाएगा।इस देश, समाज में बहुत सी लड़कियां इस अभागी लड़कियों की तरह ठगी-छली जाती हैं। कुछ चुपचाप जिन्दगी भर सह लेती हैं, कुछ हिम्मत कर कह देती हैं।
February 07, 2008
मुझे यकीं नहीं अभी तक
ब्लॉग को लेकर कई दिनों से मेरी माथापच्ची जारी है। तकनीकी नासमझी की वजह से अभी तक ब्लॉग गाड़ी पटरी पर नहीं आ पाई है। कभी टेम्पलेट में गड़बड़ तो कभी ढंग से पोस्ट नहीं हो पा रही। एक दिन मित्र अभिषेक ने टेसि्टंग के लिए साभार जताते हुए अरविन्द भाई की गजल चिपकाई। लेकिन साभार किसका, अरविन्द भाई का नाम लिखना तो भूल ही गए। मेरे ब्लॉग में अरविन्द भाई का कमेंट आया तब पता चला कि भूल हुई। भूल के साथ मुझे थोड़ा सुखद आश्चयॆ हुआ कि अरविन्दजी ने ब्लॉग कहां देख लिया, जबकि वह तो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा। फिर आज कुवैत में जीतूजी से ऑनलाइन बातचीत हुई। उन्होंने बताया कि नारद और चिट्ठा पर आपका ब्लॉग दिखाई दे रहा है। तब जाकर आस बंधी है कि अब शायद सब कुछ ठीक हो जाएगा। आखिर इन्तजार के भी तो कोई मायने हैं।
February 01, 2008
मुझे काट लिया ब्लॉग के कीड़े ने
ब्लॉगिंग करना कोई बच्चों का खेल नहीं है। दो महीने तक माथापच्ची करने के बाद यह मुझे अच्छी तरह समझ में आ गया है। मैं एसे दोराहे पर खड़ा हूं, जहां से या वापस लौट आऊं या फिर घुस जाऊं। और जितना घुसने की कोशिश कर रहा हूं, उतना ही धंसता जा रहा हूं। तीन दिन पहले मित्र अभिषेक की मदद से ब्लॉग बनाया और उसमें भी तकनीकी लोचा आ गया। वह एग्रीगेटर पर दिखाई ही नहीं दे रहा। इन तीन दिनों में मेरी मनःस्थिति का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। दो रातों से भरपूस सो नहीं पाया। आंख बंद करता हूं तो आंखों में ब्लॉग तैरने लगता है। आखिर कब दिखाई देगा मेरा ब्लॉग? कब दिल की बात आप साथियों तक पहुंचा पाऊंगा। ढंग से सो नहीं पाने की वजह से आंखें भी सूज गईं। मेरी सुबह दोपहर को हुई। पत्नी बार-बार पूछ रही हैं कि यह किस चिन्ता में खोए हुए हो? आपका चैन कहां चला गया है। मैं उन्हें क्या बताता कि आजकल मुझे ब्लॉगिंग के तकनीकी कीड़े ने काट लिया है। खैर, किसी तरह सीधी-सादी भाषा में समझाया कि मैं इन्टरनेट पर कुछ लिखने वाला हूं। फिर उसे सब पढ़ेंगे। यह सुनकर बेचारी खुश हो गई। आज फोन कर के पूछा कि आपका वो बन गया क्या जो आप बनाने वाले थे। मैंने उन्हें कहा कि प्रयास जारी हैं, इंजीनियर अभिषेक ठोक-पीट रहे हैं। आज उम्मीद है, शायद शुरू हो जाएगा। मैं इस उम्मीद में यह लिख रहा हूं कि आज संभवतः मेरी मनःस्थिति को आप से शेयर कर सकूंगा।
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