February 18, 2008

इस विरह के भय ने डरा रखा है

पिछले तीन-चार दिन से न लिखने के ढेर सारे बहाने गिना रहा हूं और साथ ही लिखने के ढेर सारे कारण भी बता रहा हूं। मुझे भी लग रहा था कि अब बहुत हो चुका, लिखना चाहिए। लेकिन उससे पहले ही आज साथी अभिषेक के एक सवाल ने अन्दर तक झकझोर डाला। लगभग निरूत्तर ही कर दिया। उसका कहना था कि न लिखने की मंशा और लिखने की महज रस्मअदायगी क्यों? साफगोई से स्वीकार कर रहा हूं कि मेरे पास कोई उत्तर नहीं था।न लिखने का कारण बस इतना सा ही था कि एक तो मूड नहीं था, ऊपर से सप्ताह भर से कुछ अजीब किस्म का तनाव और तीसरा लिखने के लिए अनुकूल माहौल का नहीं होना। और फालतू की बातें सिर्फ इसलिए लिख रहा था कि ब्लॉगर्स बन्धुओं के बीच बने रहने की चेष्टा भर थी। नौसिखिया होने की वजह से चाहता हूं कि ब्लॉगर्स की सूची में रोज एक बार आ ही जाऊं। सूची में न दिखूं तो यह मुझे विरह वेदना सा अहसास कराता है। यह मन की कन्दरा में बैठा कोई डर ही था, जो बार-बार आशंकित मन को खींच ले जाता है। दिल से कहूं तो मेरी स्थति लगभग वैसी ही हो रही है जैसे विवाह के बाद का पहले विरह की कल्पना मात्र से उपजने वाली सिहरन। हालांकि जब लिखने के इरादे से इस मैदान में उतरे हैं तो लिखेंगे, और यह भी तय है कि खूब लिखेंगे। कुछ सार्थक लिखने की कोशिश भी करेंगे, फिलहाल तो उसी विरह से बचने की कवायद भर है। आशा है, सभी ब्लॉगर्स बन्धु मुझे माफ करेंगे।एक-दो दिन में लिखने के मूड का जुगाड़ कर लेंगे। अगल-बगल की परिस्थतियां तो यूं ही बनी रहनी हैं, क्योंकि इन से निपटने के लिए जो जरूरी योग्यताएं मौजूदा वक्त में होनी चाहिए, उनमें से अपने पास एक भी नहीं। निरे फिसड्डी ठहरे। काम करते हैं, और आशा करते हैं वक्त पर कोई मूल्यांकन कर लेगा। यदि न हो तो एकबारगी पीड़ा होना लाजिमी है, लेकिन किया भी क्या जाए? फिर उम्मीद की पतवार के सहारे.....।

2 comments:

Udan Tashtari said...

उम्मीद की पतवार थामे रहें, पुनः शुभकामनायें.

anuradha srivastav said...

कुछ भी लिखिये, पाठक तो मिल ही जायेंगें।