डेढ़ घंटे तक परदेसी का शव सड़क किनारे पड़ा रहा। लोग आते-जाते रहे। दो घंटे तक जाम भी लगा। लेकिन वाह रे भारतीय सिस्टम। एक अदद एम्बुलेंस नहीं पहुंच पाई। नसीब हुई भी तो हेल्पिंग-सरफिंग की एम्बुलेंस, जिसमें मृत-घायल पशु-पक्शियों को ले जाया जाता है। सिस्टम पर तो करारा तमाचा इतने भर से ही लग गया कि सिर से रिस रहे खून के बावजूद परदेसी की पत्नी ने स्वयं का इलाज कराने से इनकार कर दिया। यह है इक्कीसवीं सदी के महानगरीय प्रसव पीड़ा से छटपटाते शहरों की तस्वीर।बेल्जियम के माइकल को इंडिया आने से पहले यह अंदेशा नहीं था कि यह उसका आखिरी सफर होगा। अब उसकी पत्नी ओटिका अपने पति को खोकर अपने वतन लौट जाएगी, साथ सदा-सदा के लिए ले जाएगी कड़वाहट भरी यादें यहां की अव्यवस्थाओं की। यह जोड़ा दिल्ली भ्रमण के बाद वहां से इंडिका लेकर जयपुर भ्रमण पर आया था। वे आमेर महल का दीदार करने पहुंचे। सड़क पर इंडिका से उतरे ही थे कि पुलिस के वाहन ने टक्कर मार दी। माइकल की मौत तत्काल हुई या कुछ देर बाद, इससे भयावह सवाल यह था कि डेढ़ घंटे तक वहां एम्बुलेंस नहीं पहुंची। ओटिका डेढ़ घंटे तक असहाय-निरूपाय सड़क किनारे पति के शव के पास बैठी आते-जाते लोगों को ताकती रही। जीप से उसने शव ले जाने से इनकार कर दिया। फिर उसे एम्बुलेंस तो नसीब हुई, लेकिन वह भी जानवरों-पक्शियों को ले जाने वाली। अव्यवस्था से खिन्न ओटिका ने स्वयं की मरहम पट्टी करवाने से भी इनकार कर दिया। सवाई मानसिंह अस्पताल के मुरदाघर के बाहर खामोश बैठी ओटिका का मौन वहां पसरे सन्नाटे से कहीं भयावह था। आंखों का सूनापन कई प्रश्नों को जन्म दे रहा था। क्या इन खामोश प्रश्नों का कोई उत्तर दे सकता है? क्या यही शाइनिंग इंडिया, इनक्रेडिबल इंडिया है, जहां किसी घायल का जीवन बचाना तो बाद की बात, तत्काल अस्पताल ले जाने की व्यवस्था तक नहीं हो सकती। क्या हम किसी का भरोसा जीतने के काबिल बन सकते हैं। हम पयॆटकों का आह्वान करते हैं, विदेशी मुद्रा से अपने कोष भरने की कामना रखते हैं, लेकिन जब विदेशी यहां पहुंचते हैं तो उनका इस्तकबाल किस तरह होता है, यह किसी से छुपा नहीं है। परदेसी दिखते ही हर किसी के मन में यही खयाल आता है कि इसे किस तरह लूटा जाए। लपकों से लेकर दुकानदार, वाहन चालक या हर कोई एरा-गैरा। सब इसी फिराक में रहते हैं। अब इंडिया के भिखारी तक अच्छी तरह जान चुके हैं कि कहीं टूरिस्ट दिखाई दे जाए, तो इस कदर पीछा करें कि डॉलर-पाउण्ड उनकी झोली में डाल जाए।वे जहां-जहां जाते हैं हर समय कोई न कोई उनके पीछे लगा रहता है। रोकने वाला कोई नहीं। न पयॆटन पुलिस, न अन्य कोई व्यवस्था। एसे में पयॆटक स्वयं को इन अवांछित परेशानियों से बचाये या पयॆटन स्थलों का लुत्फ उठाए। यहां से जाकर जब परदेसी इंडिया को गालियां बकते हैं तो हमारे पेट में एंठन नहीं होनी चाहिए। यदि होती है तो पहले उनकी हिफाजत करने के इंतजामात करने चाहिए और उनका नारों से ऊपर उठ स्वागत-सत्कार भी उसी ढंग से होना चाहिए। आखिर हमारी अथॆव्यवस्था में इनका योगदान भी तो कम नहीं।
1 comment:
सुरजीत भाई आप के लेख मे एक भी बात ऎसी नही जिसे झुठलाया जाये,बिलकुल सच लिखा हे,
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