July 24, 2008
विश्वास के हिमालय से सारी बर्फ पिघल चुकी
सत्ता प्रतिष्ठानों के पिछवाड़े अर्थात दस जनपथ में जीत के जश्न की रस्म जरूर है, लेकिन आशंका वहां भी बरकरार है। इसमें जीत जैसा कुछ नजर नहीं आता। जीतकर भी करारी हार सा बोध हर कोई कर सकता है। मुहावरे में कहें तो दस माह की मेहमान सरकार पर अपेक्षाओं का पहाड़ टूट पड़ा है। जो चार साल में एक अपेक्षा पूरी न कर पाई हो, वह दल माह में क्या कर लेगी। इस ताजा हरकत से नेताओं का सरेआम राजफाश जरूर हो गया। राजनीति में सारे ईमान, नैतिकता, आचरण, शुचिता इत्यादि को लेकर अब तक जो भ्रमजाल का तंबू तना हुआ था, वह एक झटके में खुल गया। बेईमानी और भ्रष्टाचार की ऐसी आंधी आई कि संसदीय मर्यादा को यूं हल्के में उड़ा ले गई। एक औसत भारतीय मन अपने इर्द-गिर्द सशंकित सा नंगई महसूस कर रहा है। अफसोस की बात है कि यह नंगई उन बेशर्म मनों द्वारा नहीं महसूसी जा रही, जहां से इसकी अपेक्षा की जाती है।
दो दिन तक टीवी पर आंखें गड़ाए रहे चेहरे मुर्दनी बयां कर रहे है। वहां जो सेंसेक्स से उतार-चढ़ाव नोटिस किए जा रहे थे, वे अब गहरी खामोशी और अफसोस से पुते हैं, भीतर खतरनाक कोलाहल उबल रहा है। उस आंच से व्यथित मन पक रहा है। विश्वास की बर्फ पिघल रही है। आंखें मलने की विवशता इसलिए है कि क्या यह ड्रामा वास्तविक था या कोई बड़ी दुर्घटना? जिसके घटित हो जाने के बाद मन इतना खिन्न कि अब वह कोई और कल्पनामयी आकांक्षा पाल सकेगा या नहीं? कमजोर हिन्दुस्तानी मनों पर टनों अवसाद लद गए हैं।
अब यह मानना ही पड़ेगा कि संसदीय मर्यादा का हिमालयी शिखर झुक गया है। भरोसे की बची-खुची बर्फ को पिघलने में दो दिन भी नहीं लगे। जिस भरोसे को नेहरू, शास्त्री, पटेल जैसे नेताओं ने कायम किया था। अब वहां नंगई है सिर्फ नंगई। लाज का वस्त्र उघड़ चुका। भरोसे का नाड़ा खुल गया। ढांपने की फिक्र भी नहीं है किसी को। वह इसीलिए नहीं है कि अब आचरण में शुचिता कोई मसला नहीं रह गया है। छोड़ आए उन गलियों को वाला मामला हो गया है, जहां शुचिता के झंडे गड़े रहते थे। एक सूत्री मसला सिर्फ सत्ता है और उसे किसी भी सूरत में पा लेना ही परम लक्ष्य की प्राप्ति है। यही किया सबने मिलकर। गिरावट का आलम इस कदर हुआ है कि इस हादसे के बाद अब कोई साधारण व्यक्ति सत्ता की गलियों में कदम रखने की नहीं सोच सकता। दहलीज पर प्रथम कदम ही उसकी आत्मा को झिंझोड़ देगा।
विश्वास मत के नाम पर अविश्वास जीत लिया गया। बहुत बुरी खबर है। अब आगे के रास्ते किस अंजाम की तरफ ले जाने वाले हैं, आप-हम सोचकर सिहर सकते हैं।
July 22, 2008
मंगल का हो गया मुंह काला
बस, संसद में शोरगुल है।
धिक्कार। मगर किसे? खुद को ही.......................।
July 12, 2008
बारिश की एक बूंद और हजार अर्थ
कम, तेज होती बारिश की तरह ही मन में खयाल आ-जा रहे थे। आखिर बारिश में ऐसा क्या जादू है? बूंदों में जाने कैसी चुम्बकीय शक्ति है कि हर कोई अन्तर्मन से बंध जाता है। लेकिन सबके लिए बारिश के अपने-अपने मायने हैं, अपने-अपने अर्थ हैं। किसान जहां आसमान में आए श्वेत-श्याम बादलों का मैसेज पढ़कर खाद-बीज के इन्तजाम में जुटता है और खुशी पालता है कि चलो, इस बार तो सूखे से मुक्ति मिलेगी। आगे क्रमवार बारिश के साथ उसके खेत भी हरियाली के जरिए अपनी खुशी जाहिर करते हैं।
सरकारों के लिए किसान की इस खुशी का कोई खास अर्थ नहीं। सरकार और बादलों का संयोग यह है कि अच्छी बारिश उसके लिए किसान के प्रति दायित्वों से मुक्ति का पर्व है। समय पर खाद-बीज का उपलब्ध नहीं होना सरकारों की बेरुखी का ऐतिहासिक दस्तावेज है।
सरकारी दफ्तरों के लिए भी बारिश के अपने-अपने मजे हैं। वे इसका अपने हिसाब से मैसेज पढ़ते हैं और बूंदो को अर्थ देते हैं। अफसर और किसान की खुशी में पाताल फर्क है। किसान की देह जहां अगले छह माह मेहनत की खुशी में गंधाती है, वहीं अफसर की देह से हर एक बूंद को कैश में बदलने को ललक फूटती है। सड़कों में हुए गहरे घाव, उसके लिए और उसके मातहत कर्मचारियों के लिए मलहम का काम करते हैं। या वे कामना करते हैं कि इस बार सड़क पानी में बह जाए। एक जोरदार बारिश हो और सड़क डामर, पत्थरों समेत पूरी तरह धुल जाए। तो उनके भी कई पाप धुल जाएं। ठेकेदार आसमान में बादल देख, नए टेण्डर की खुशी में झूमता है। उसके मन में बेशर्म इरादे उगते हैं, और सरकारी कारिन्दों के ड्राइंग रूम में ये इरादे उनकी आंखों में नए अर्थ पैदा करते हैं।
बारिश में कागजों की नाव चलती हैं। कागजों में चलती हैं। कागजों में ही इन्तजाम होते हैं। बारिश का बाढ़ की शक्ल में आया एक रैला उन कागजों की पोल खोल देता है।
इस मौसम में सरकारी दफ्तरों का हरियाली प्रेम भी प्रस्फूटित होता है। उनके लगाए पौधे भले ही न फूटें, लेकिन उनके मन में हरियाली के पूरे बाग फूट पड़ते हैं। पौधे फाइलों में आंकड़ों की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं और बारिश के वेग के साथ शून्य आकार में बढ़ते जाते हैं। बारिश गुजरने के साथ सड़कों के किनारे वही हालात, बाग, नर्सरियों में वही वीरानी, लेकिन सरकारी कारिन्दों के महकते लॉन पड़ौसियों को भी खबर कर देते हैं।
इस प्रकार बारिश के चार माह भारतीय जीवन को नए अर्थ दे जाते हैं। पढ़ने वाले इसे बखूबी पढ़ते हैं, और नए अर्थ गढ़ने वाले भी कमतर नहीं।
July 10, 2008
दिल्ली के आसमान में ये कैसे बादलों का जमावड़ा?
देश में जितनी भी दिशाएं हैं, सभी से इस समय बादलों का रुख दिल्ली की ओर है। हर छोटा, मोटा, धूल-धूसरित, मैला, मटमैला, छोटा, बड़ा बादल कुछ सशंकित सी मुद्रा लिए राजधानी की ओर डायवर्ट है। अवसरवादिता की हवाओं ने उन्हें अपने संग लिया और उड़ चलीं दिल्ली की ओर। दिल्ली के आसमान पर ये बादल घनीभूत हो रहे हैं। ये बादल अन्ततः उम्मीद ही तोड़ेंगे। बरसने की भूलभरी अपेक्षा इनसे कदापि न की जाए। ये बरसेंगे, तो खुद के स्वार्थ के लिए। खुद के अस्तित्व के लिए। सांसदी की रक्षा के लिए। हार के डर से और जीत के गणितीय हिसाब से।
इन बादलों के गर्भ में धूर्त एजेण्डा छुपा है। बाहर से नैतिकता का रंग चढ़ा है। सिद्धान्तों के आवरण की महीन, बारीक परत है। भीतरी खोल में पोल ही पोल है। कुछ का लक्ष्य सरकार गिराना है। कुछ का बचाना है। कल तक लड़ने में कुत्ते-बिल्ली को भी मात करते रहे। आज एक-दूजे पर प्यार उंड़ेलते नहीं थकते। स्थाई दुश्मनी ने क्षणिक दोस्ती का बाना धारण कर लिया है। सरकार की रक्षा की गरज से अपने बचे-खुचे सिद्धान्तों पर घासलेट छिड़कने पर आमादा हैं। अन्तरात्मा का आह्वान भी नक्कारखाने में तूती की आवाज सा हो चुका है। ऐसा कोई सदाचार का ताबीज नहीं, जिसे कलाई पर बांध देने से इनकी भ्रष्ट आत्मा की गर्जना के सुर बदल जाएं।
कहें तो, मौजूदा राजनीतिक हालात में कई दलों की कैंचुल उतर चुकी है। तीन तलाक कह सरकार गिराने पर आमादा वाम मोर्चा को इस समय कुछ नहीं सूझ रहा। इस बेमकसद के लिए उसे उसके लिए सदा साम्प्रदायिक रही भाजपा से हाथ मिलाने से भी ऐतराज नहीं। सपा ने घोषित समाजवाद का मुल्लमा उतार फेंका है और दिखावे के देशप्रेम तले अवसर का गाढ़ा लेप पोत लिया है। भाजपा को हर हाल में चुनाव चाहिए। आखिर वे एक बेरोजगार पीएम का बोझ कब तक उठाएं? क्यों न चुनाव के बहाने इसे देश की पीठ पर लाद मुक्ति का पर्व मनाएं। हर छोटे-बड़े दलों की अपनी आशंकाएं हैं और सरकार गिराने-बचाने के अपने सुभीते हैं। सब इन्हीं से प्रेरित होने हैं। यदि परमाणु करार बेजां देशहित में है, तो भी लेफ्टियों को इससे क्या मतलब? उनका राइट तो वहीं तक है, जहां से उनका अमरीका विरोध जाहिर हो जाता है। वे इसे भी भूल के कचरापात्र में डालने की पात्रता अर्जित कर चुके हैं कि उनके सरपरस्त चीन, रूस भी इन्हीं करारों को करने को लालायित हैं या कर चुके हैं।
धोखे और दिखावे के दीपक देश की राजनीति को कब तक आलोकित करेंगे। यह गिरगिटी रंग अब बेपरदा होना ही चाहिए। और अगले चुनावों में इनका असली रंग उघाड़कर देखा जाना चाहिए। कौनसा रंग किस बेरंगेपन के बावजूद खासा चमकता है। इस त्वचा के भीतर एक और मोटी त्वचा का पहरा है।
July 08, 2008
शब्दों के हथियारों से मुंह तोड़ने की निरर्थक कवायद
हम आतंकवाद के आगे नहीं झुकेंगे। कोई ताकत हमारे मंसूबों को विफल नहीं कर सकती। कितने ही हमले हमें हमारे मिशन में नाकामयाब नहीं कर सकते। पड़ौसी देशों को मदद जारी रखेंगे। हम आतंकी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब देंगे। यह एक रिकोर्डेड सीडी है। पुराना कैसेट है। जो हर आतंकी घटना के बाद बजता है। यह शास्त्रीय बयान है। जो हर वारदात के बाद आता है। वही मुख। वही बातें। वही संकल्प। वही लफ्ज। पीएम, विदेशमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री, जरूरी हुआ तो पार्टी अध्यक्ष के श्रीमुख से झरता एक-एक शब्द। चबा-चबा कर बोले गए अर्थ खोए वाक्य। जब पहली वारदात हुई, तो शर्तिया पहला बयान यही आया होगा। हू-ब-हू। बित्ते भर का फर्क नहीं। मुंह तो हम आज तक तोड़ न सके, पर बेतहाशा बयान दे-देकर खुद का मुंह जरूर तोड़ लेते हैं।
काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले के बाद फिर शब्दों के हथियार चलाए गए। बयानबाजों के मुंह के आगे मीडिया के माइक आए। रिपोर्टरों ने जेब से कलम-डायरी निकाली और जिस जोश से सवाल दागे। सामने से उसी ठण्ड से जवाब। पीएम ने जी-८ शिखर वार्ता में जाते समय विमान से बयान दिया। प्रणव मुखर्जी ने दिल्ली से। बयान विमान से आए, भले दिल्ली से या दस जनपथ से। न भाषिक अन्तर, न वैचारिक। बयानों के केन्द्र में कोई संकल्पना नहीं। इरादों में दृढ़ता नहीं। गर्मी का नितान्त अभाव। बयान देने की विवशता न होती, तो शायद इतनी जहमत भी न उठाई जाती।
दो कामयाब अधिकारी और दो जवानों की मौत। सबसे बड़ी बात यह है कि स्वाभिमान पर आंच। और हम जिद पाले हैं पड़ौसी देश के पुनर्निर्माण में मदद का। इससे पहले भी वहां भारतीयों पर दो हमले हो चुके हैं। तब भी हमने ऐसे ही शब्दों के बाण चलाए थे। पूरी कौशलता से वाक्य विन्यास से भरा चेतावनी का मायाजाल रचा। लेकिन हुआ क्या? वही भीगा हुआ पटाखा फुस्स। बारूद की गारंटी नहीं। हम ऐसे बयानवीर हैं, जो लगातार मात के बावजूद शब्दों के खोल से बाहर निकलने को इच्छुक नहीं। क्या हम अफगानिस्तान से दो टूक बात नहीं कर सकते। हामिद करजई बड़े मेहमाननवाजी का लुत्फ उठाते हैं हमारे यहां। सिर-आंखों पर बिठाते हैं, पलकें बिछाते हैं उनके आगमन पर। लेकिन अब उनका मौन, कोई बयान न देना गहरे अर्थों को जन्म देता है।
हमारे टुकड़ों पर पलने वाला पिद्दी सा बांग्लादेश भी यदा-कदा हमें गरिया देता है। श्रीलंका का चोखटा बचाने के लिए हमने शांति सेना के जरिए कितने ही सैनिक खोए। और फिर युवा नेता भी। बावजूद इसके श्रीलंका की हमें ही चिरौरी करनी पड़ती है। नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान कोई विशुद्ध दोस्ती के काबिल नहीं। हम गले मिलें। वे जेब में छुरा रखें। हमारे ही खिलाफ आतंकियों को प्रश्रय दें। अपनी सीमाओं से आत्मघाती जखीरा ठेलने में मदद करें। हम उनके सामने ट्रे में रखकर दूध का प्याला पेश करें। सांप और मित्र की परख हमारे बयानवीर अपनी कैंचुल से बाहर आ कब करना सीखेंगे।
July 07, 2008
हिसाब मांगती एक-एक सीढ़ी
उन्हें और भी बहुत कुछ याद आना चाहिए। पहली सीढ़ी पर पांव धरते ही याद आया होगा कि बेमेल मिश्रण का स्वाद एक दिन कितना कटु होता है। कुछ दिन तू सत्ता सुख चाट, कुछ दिन मुझे चटा, की तर्ज पर बनाई सरकार में कड़वे अहसास भी बहुत होते हैं। उन्हें याद आया होगा कि अपनी उदार छवि के चलते देश को उनसे कितनी उम्मीदें थीं, जब वे मुख्यमंत्री बने थे। जम्मू-कश्मीर नेताओं के अब तक पाक राग के बीच उदार और साफ दिखती छवि के आजाद नई जिम्मेदारियों से रूबरू थे। लेकिन आज उनके लिए आत्म मंथन का समय है कि अब देश उनके बारे में क्या सोचता है। उनकी राष्ट्रीय छवि एक राज्य के अपने आईने में कितनी धुंधली हुई। अफजल गुरु के बचाव में बोलने से देश में उनकी छवि कितनी मलिन हुई होगी। अगली सीढ़ी पर उन्हें महसूस होना चाहिए कि उन्होंने किस तरह खुद को कश्मीर जाकर, किस तरह संकीर्ण सांचे में फिट कर, किस तरह महफूज समझ लिया था।अंतिम सीढ़ी पर उन्हें अहसास होना चाहिए था कि अब वे अगले आम चुनाव में जब कांग्रेस के प्रचार के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में जाएंगे, तो क्या वहां लोगों की सुलगती आंखें उनसे सवाल नहीं करेंगी?
लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि नेताओं की महसूसने की शक्ति कितनी दुर्बल होती है। अहसासों का कत्ल कर ही वे सच्चे नेता कहलाने के लायक बनते हैं।
July 05, 2008
रोम जला, नीरो ने बजाई बांसुरी
औचक सारी समस्याएं सरकार की प्राथमिकता से डिलीट हो गई हैं। उसके एजेण्डे में एकमात्र तरकश है- डील। सपा से लेकर अमरीका तक, डील का डोल जमाने की फिक्र छाई है उस पर। इस समय देश में जैसे राजनीतिक हालात हैं, उसमें राजनीतिक दलों की नग्नता साफ दिखने लगी है। अब तक जिनको जिनका मुंह तक देखने से एलर्जी थी, अब मुंह दिखाई में पूरी सरकार सौंपने को आतुर हैं। यह आतुरता, जनता की अधीरता बढ़ा रही है। धैर्य की कठिन घड़ी है। इनकी बेशर्म, बेमेल गलबहियां उन सारी समस्याओं के गाल पर करारा तमाचा है, जो देश को भयाक्रान्त किए हुए हैं। लेकिन इन सबकी इन्हें कोई फिक्र नहीं। माहौल एकाएक समझौता प्रधान सा हो चुका है। मानसूनी बादल अवसरों के टुकड़े लेकर घूम रहे है। हर दल इन्हें लपकने के पूरे मूड में है। प्रधानमंत्री बनने को आतुर एल के आडवाणी ने भी सरकार को चेतावनी दी है कि वह संसद में बहुमत साबित करे। ...और उसके पास बचा ही क्या है साबित करने को। बाकी सब कुछ साबित हो चुका, बस अब एक बहुमत ही साबित करना है उसे। बाकी मोर्चों पर तो लोग उसे देख ही चुके हैं।
सरकार की डील को अंतिम परिणति तक पहुंचाने की जो जिद सामने आई है, उसमें समूचा देश हाशिए पर खिसक चुका है। करोड़ों लोगों की बद् दुआएं भी इनकी आत्मघाती जिद के आगे बेअसर हैं। न इनको महंगाई की फिक्र है, न मौजूदा भड़कते दंगों की। तेल की बू लोगों को परेशान किए है। रसोई गैस समूचे देश के पेट में आफरा ला चुकी है। सरकार के पास कोई तात्कालिक हाजमोला नहीं, जो इस आफरे को ठीक कर सके। हर वह जो चीज है और आम आदमी के जरूरत की है, बढ़ने की ठाने हुए है। महंगाई चौबारे चढी है। सरकार चुपके से पिछवाड़े उतर रफूचक्कर हो चुकी है। सत्ता प्रतिष्ठानों के पिछवाड़े हंसी की गूंज है, शायद वहां नए सारथियों के स्वागत-सत्कार के बहाने, भविष्य की शतरंज पर हाथी-घोड़े चलने की चालें खोजी जा रही है।
July 04, 2008
बेहिसाब, बेसाख्ता, नौटंकी जारी है... देखते रहिए
देखें तो इस समय सारे ज्वलंत मुद्दे रद्दी को टोकरी में डाले जा चुके हैं। एकमात्र बेकरारी परमाणु करार को लेकर है। जहां घोड़ी चढ़े दूल्हे की तरह तोरण मारने जैसी उत्कंठा के शिकार हैं पीएम और उनके पार्टी बाराती। वामदलों की समर्थन वापसी की दीर्घकालीन धारावाहिकी धमकियों का सम्भवतः तीन दिन बाद समापन हो जाए। क्योंकि कांग्रेसनीत यूपीए को अब नया सारथी मिलने की अघोषित खुशियां दस जनपथ से बाहर छलक मीडिया के आंगनों में गिरने लगी हैं। यूएनपीए की राष्ट्रीय बहस का मुद्दा भी शिगुफा भर ही निकलने वाला है। यह सिर्फ इसलिए, ताकि जनता को बहस के वहम में डाल चुपके से सरकार के पाले में समर्थन की बॉल डाली जा सके। अब तक एक कदम बढ़ाकर, दो कदम पीछे खींच लेने की आदी रही सरकार के मौजूदा आणविक दुस्साहस पर गौर करें, तो यह लगभग तय है कि उसका नया साथी कौन है? एकबारगी इस मुद्दे को परे कर के देखें कि करार देशहित में या विरोधी, तो जो आईना सामने आ रहा है उसमें भी किस गर्व के साथ चेहरा देखने की खुशफहमी पालें?
क्योंकि देश के आकाश में सब हवाई किले जैसे निर्माण किए जा रहे हैं। जहां जनता की नजर में ये सब रेत के किले भर हैं। कोई ठोस आकार-प्रकार नहीं। कोई ऐसी आकृति नहीं, जो यथार्थ के धरातल पर टिकी हो। कोई छद्म धर्मनिरपेक्षता के ईंटों से बनाया गया है, तो कहीं उसमें उग्र हिन्दुत्व का गारा मिला हुआ है। एक का मकसद भुलावे और भ्रम का माहौल बनाए रखना है, तो दूसरे का मरियल बाजुओं में जोश की लहरें पैदा कर वोट तक पहुंचाने की कोशिश भर है। लेकिन धोखे और दिखावे की नींव पर टिके ये किले अवाम को कोई राहत पहुंचाने वाले नहीं है। अवाम के सिर तिक्त धूप के टुकड़ों में झुलसते रहेंगे। यह तय है।
अब न महंगाई मुद्दा है, न उछाल मारता शेयर। शेयर का उछाल रूटीन की खबर भर रह गया है। सोने को इसलिए रोज याद करना पड़ता हैं कि देखें आज कितना चढ़ा। बाजार आपे से बाहर है, जनता अपनी औकात में रह...वाले मुहावरे के साथ अपनी हद में आ चुकी है। वह ऐसे चौराहे पर पहुंचा दिया गया है, जहां खुदकुशी के सिवाय कोई चारा नहीं। चारा होता, तो मौजूदा जारी तमाशे को मूकदर्शक की भांति देखती क्या? वह आंदोलन भी करती है तो इन्हीं पार्टियों द्वारा घोषित बंद की शक्ल में।
July 01, 2008
जाणता राजा (राजा सब जानता है)
तड़प तो वहां बैठे हजारों दर्शकों में भी कम नहीं थी। पूरा मैदान खचाखच भरा था। उससे ज्यादा दिलों में आग। कोई विरला ही दर्शक होगा, जिसके रोम कूपों से जोश की ज्वाला न निकली हो। रह-रह कर शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के नारे भी लगे। खासकर, अफजल खान को शिवाजी द्वारा मारे जाने के दृश्य पर कई दर्शक मुट्ठियां कसे नजर आए। दरअसल आज के अफजल गुरु के स्मरण ने उनको बेचैन कर दिया और उन्होंने एक दूसरे को इस आशय का मैसेज भी भेजा कि उस अफजल खान को तो शिवाजी ने सबक सिखाया, लेकिन आज के इस अफजल गुरु की मौत की सजा पर आखिर कब तामील होगी। आज का स्याणा राजा कब फरमान सुनाएगा?
नाटक के दौरान एक ही सवाल मन में उमड़ रहा था। क्या आज का राजा सब कुछ जाणता है? या फिर सत्ता के इर्द-गिर्द की ऊंची दीवारों के पार वह कुछ नहीं जाणता। क्या यह काणा राजा है, जिसके आगे सब कुछ घटित होता है फिर भी इसे कुछ दिखाई नहीं देता। देखकर भी आंखें मुंदी होने का अभिनय करता है। यह अभिनय के उच्च शिखर पर है। देखकर मुंह फेर लेने का अभिलाषी है यह राजा। उस राजा का संकल्प था कि धरती उसकी पत्नी है, प्रजा उसकी संतान। और प्रजा को संतान की तरह ही पालित-पोषित किया। मगर आज का राजा सिवाय इसके क्या संकल्प ले सकता है कि यह कुर्सी उसकी रखैल है और प्रजा उसकी वोट बैंक। जिसे जब चाहे अपनी इच्छानुसार कभी भी मसल, कुचल सकता है। इसके दिल में सिर्फ सत्ता की वासना की हिलोरें मारती हैं। ये उद्दाम लहरें, सत्ता के गलियारों में टकराती रहती हैं।
उधर, प्रजा सिर फोड़ती है। सिर धुनती है। कोसती है। गालियां बकती है। इससे ज्यादा उसके हिस्से में कुछ है नहीं। लेकिन यह राजा कब जाणेगा?
June 30, 2008
हर्षाने का सुख, मुर्झा जाने तक
इसके बाद दर्शकों के हाथ में यानी वोटर्स के पास कोई चारा नहीं रह जाएगा। सिवाय इसके कि वह लोकतन्त्र के हवाले से एक और बेवकूफी कर डाले और जाति, धर्म, क्षेत्र के नाम पर बरगलाया जाकर सहर्ष खुदकुशी कर ले। सुसाइड नोट के नाम पर ईवीएम पर एक खास जगह अंगुली धर दे। अगले चुनाव तक उसके हाथ में यह बचा रहेगा कि रोज सुबह हड़बड़ाकर उठे, हाथ मले, जबड़ा कसे और मुट्ठियां भींचे। इस एक्सरसाइज के साथ वह नित्य फ्रेश हो सकता है।
लेकिन टर्राने वालों को कहां फिक्र है इस सबकी। उनकी आंखों में छलिया जैसी चाहत दिखने लगी है। उनकी आंखों में महंगाई की रफ्तार के बावजूद कहीं भी शर्मसार होने के चिन्ह नहीं दिखते। शर्मसार हों भी कैसें? गरीबों के नाम पर गरीब रथ चलाकर कोई कैसे शर्मिंदा हो सकता है। शर्म वे करें, जो उनकी सदाशयता पर अंगुली उठाते हैं, और डूब मरें। उनका आग्रह यह है कि किसानों की कर्जमाफी को चुनावी घोषणा पत्र समझा जाए और महंगाई को भूल के कूड़ेदान में डाल दें। सुबह-सुबह बढ़ती मुद्रास्फीति की खबर पर चाय का स्वाद कसैला न करे, बल्कि यह देखें कि सरकार में शामिल दल साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ किस हद तक एकजुटता से डटे हुए हैं। अब वे करार पर रार इस बिना पर ठान सकते हैं कि उनको नया साथी मिलने का गणित कथित देशहित के फॉर्मूले पर भारी है। यह चुनाव की वेला में, सत्ता के गलियारों में फिर से फूल खिलाने की उम्मीद को लेकर ज्यादा अपीलिंग मैटर है।
एक दल इसलिए खुद की पीठ ठोक-ठोक मजबूती अनुभव कर रहा है कि उसके तरकश में एक साल से प्रधानमंत्री नामक तीर बेकार पड़ा है और बेध सकने लायक कुर्सी खाली नहीं कर रहा कोई। जो उस पर धंस, देश को पांच साल स्वास्थ्य की कामना करते रहने का अवसर दे सकता है। हो सकता है बाकी कुर्सियों पर भी फिट हो सकने लायक जीवों के नाम भी तय हों। इनके घोषणा पत्र में भी परेशान हाल आदमी के लिए कोई नया मंत्र नहीं है। इनके पास प्रत्याशी तय हैं और बस, इसे ही घोषणा पत्र का प्रारूप समझ एक अदद दाद दे दें।
कुल मिलाकर सरकार मृत्यु शैय्या पर है और आम आदमी कीलों की शैय्या पर लेटा अनुभव कर रहा है। अब तो उसके पास मर्सिया गाने की ताकत भी शेष नहीं। देश में उदासी का आलम है, राजनीतिक दलों के आंगन को छोड़कर जहां, प्रत्याशी तय कर लेने की बेशर्म हंसी तैर रही है।
June 28, 2008
ट्रेन टु विलेज-२
परसों गांव जाने के अपने अनुभव शेयर कर रहा था। कुछ ब्लॉगर साथियों ने टिप्पणियां भेजीं। लगा, सफलता की कहानी कहीं भी गढ़ ली जाए भले, स्मृतियों से गांव कभी छूट नहीं सकता। शहरों में आकर रच-बस गए लोगों की शिराओं में आज भी गांव खून बनकर दौड़ते हैं। हो सकता है हमें इस बात की खबर ही न हो कि हमारी यादों में वही गांव आबाद है, जिसे कभी अलविदा कह आए थे। हमारे साथ-साथ पलते-बढ़ते हैं। इतना जरूर है कि उन स्मृतियों पर शहरी चकाचौंध की गर्त छा गई है। व्यस्तता का बहाना है। समय नहीं मिल पाने के बहुतेरे किस्से-कहानी जुबानी हैं। गांव उन लोगों की आज भी राह तकते हैं, जो सफल पुरुष तो बने, लेकिन लौटकर नहीं गए। जबकि वे वादा करके आए थे। कसमें खाईं थीं। पढ़ाई के लिए या कमाने-धमाने के लिए गांव छोड़ते वक्त, बड़े-बुजुर्गों से, माता-पिता से, युवा साथियों से, खेत-खलिहानों से, गलियों से, सौंधी मिट्टी से, ढोर-ढंगर से एक अलिखित वादा किया था। कितनी ही नेमतों की गठरी बांध विदाई ली थी। कहा था-कुछकर बनकर लौटेंगे। अपनों के बीच, चौपाल पर बैठकर, बड़े-बुजुर्गों के हुक्के की गुड़गुड़ाहट के बीच सफलता की स्वाद भरी कहानी सुनाएंगे। ...लेकिन अफसोस। ऐसा हो न सका। आज हालत यह है कि हमने ही गांवों पर पिछड़ेपन का टैग चिपका दिया है और अब अपने बच्चों को गांव ले जाने से इसलिए कतराते हैं कि कहीं वे गांव के बच्चों के संग घुल-मिल न जाएं। या उनकी परीक्षाएं डिस्टर्ब हो सकती हैं। कुछ गंदी आदतें न सीख लें। मिट्टी में न सन जाएं?
लेकिन क्या मिट्टी पराई हो सकती है? मैं पन्द्रह रोज पहले गांव पहुंचा, तो मुझे उसी मिट्टी से किया वादा याद आ गया। इस बार मुझमें गांव को लेकर जरूरत से ज्यादा अकुलाहट थी, एक बेचैनी थी। टूटकर बिखर जाने की जिद सी आकार ले रही थी। इसके कारण तो खैर, शहर में जन्मी कुंठाओं से उपजे थे। कैमरा साथ ले गया था, एक-एक क्षण को अविस्मरणीय बनाने को। मैं बरसों बाद जीना चाहता था। भरपूर जीने की चाहत दिल में बसाए ही इस यात्रा की शुरुआत की थी। अपनी मिट्टी में पहुंचते ही मैं बचपन में लौट चुका था। मेरा वर्तमान कहीं नहीं था। बस, मैं और मेरा गांव था। मैंने वो सारी गलियां नापी। सारे संगी-साथियों से मिला। खेतों की डगर चला। पगडंडियों पर घूमा। पेड़-पौधे देखे। कुछ पेड़ और घने, छायादार बन चुके थे। पौधों में भी रवानी थी, अपनी जवानी पर इतरा रहे थे। घर में दसेक अनार के पौधे लगे हैं। इतने छोटे पौधे और अनार से लदे-फदे। देखकर सुखद अनुभूति हुई। अमरूद भी सैकड़ों की संख्या में लगे थे। बोझ के मारे टहनियां धरती को छू रही थी। अहा, इतनी विनम्रता, सदाशयता यदि इन्सान में आ जाए तो क्या कुछ हो सकता है, यह अकल्पनीय है।
मैंने पेड़-पौधों के संग खूब फोटो खिंचवाई। वे भी खूब मन से लिपटे। झूम-झूमकर स्वागत-सत्कार कर रहे थे। स्कूली पढ़ाई के दिनों में अपनी भैंस का दूध मैं ही निकाला करता था। सो, इस बार भी बाल्टी लेकर बैठा दूध निकालने। लेकिन भैंस ने अजीब नजरों से देखा और फिर दूर जा खड़ी हुई। उसे मैं अपरिचित लगा। यह चाह पूरी नहीं कर पाया। दस साल में पहली बार मुझे इस तरह की हरकतें करते देख मम्मी-पिताजी खूब हंसते रहे। उस हंसी से मैं जितना आल्हादित हुआ, बयां करना मुश्किल है।
गांव की रातें शीतल होती हैं। छत पर सोने का आनन्द निराला ही है। रात को जिन्दगी से भरी मंद-मंद बयार बहती है। तनाव से अकड़ी सारी नसें खुल जाती हैं। शहर में दो पल लॉन में बैठ जाओ, तो मच्छर धावा बोल देते हैं। शहर में शाम सुहानी नहीं आती, मच्छर भगाने की दुश्चिंताएं लेकर आती है। और वहां निर्मल सी हवा तैर रही थी। मैं उसे फेफड़ों में इस हद तक भर लेने को आतुर था कि पता नहीं फिर ऐसा मौका मिले या नहीं। वहां एक भी मच्छर नहीं था। ताजगी भरा वातावरण था। शहर में सात घण्टे सोकर भी सुबह जल्दी उठने का मन नहीं करता। वहां देर से सोकर भी प्रातःकाल जल्दी आंख खुल जातीं। कभी थकान महसूस नहीं हुई। कभी लगा ही नहीं कि किसी पार्क में जाकर टहलने की जरूरत है। या तनाव मुक्त करने के लिए किसी हास्य क्लब में जाकर क्षण भर के लिए हा-हा-हा करने की आवश्यकता है। शहर में हमने जिन्दगी से हंसी को निकाल दिया है। वहां तो हंसी स्वयंमेव चेहरों पर तैरती है। इस नैसर्गिक आनन्द को में कभी भुला नहीं सकता।
दोस्तों, मैं यह सब इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैंने कोई नया काम कर डाला है या गांव कोई दुर्लभ चीज है। मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि जहां हमारी आत्मा रचती-बसती है, उस जगह के प्रति हम दिल से आभारी बनें। और यदि दिल लगाया जाए तो कोई गोवा, कोई देहरादून, कोई शिमला, कोई काठमांडू या मलेशिया, मॉरिशस वह आनन्द नहीं दे सकते, जो गांव दे सकते हैं। आज घूमने का अर्थ किसी पिकनिक स्पॉट या विदेश भ्रमण हो गया है। ऐसे में हमें कहने की जरूरत है- आओ गांव चलें। हो सके तो प्लीज, गांव को जिन्दगी से मत निकालिए।
June 26, 2008
ट्रेन टु गांव
शहर में मन ऊब चला, तो गांव चला गया। सोचा, चलो फ्रेश हो लेंगे। (कभी-कभी गांवों की यही उपयोगिता महसूस होती है। क्योंकि गांवों में भी अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। लेकिन गांव फिर भी गांव हैं।) खैर, दस दिन गांव रह कर लौट आया हूं। सात दिन हो गए शहर आए। अभी तक गांव की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाया हूं। मन वहीं किसी खेत में छूट गया है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है। वर्ना होता यह था कि शहर से ऊबकर गांव जाता और फिर जल्द ही वहां से ऊब शहर का रुख कर लेता। लेकिन इस बार वैसा नहीं था। पहले से ही तय था कि इस बार गांव को भरपूर जीना है। उन गलियों की यादें ताजा करनी हैं, जहां हम बचपन में खेले-कूदे। उन खेतों की, मैदानों की, गली-कूचों की तस्वीर को एक बार पुनः ताजा करना है। उन किशोरों-युवाओं से खूब घुलना-मिलना है, जो तब कमीज की बांह से नाक पौंछते थे। मतलब यह कि पूरी तरह बचपन में लौट जाऊंगा। भूल जाऊंगा कि मैं वर्तमान में क्या हूं, कहां हूं, क्या कर रहा हूं। इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं-सपनों की गठरी को उतार परे धर दूंगा। बोझमुक्त हो इतना हल्का, इतना हल्का हो जाऊंगा कि मौजूदा मैं से एकदम बाहर निकल जाऊंगा। मैंने शुरूआत लोकल ट्रेन से की। बस से चार घण्टे में त्वरित पहुंचने की बजाय ट्रेन में छह घण्टे का सफर ज्यादा मजेदार लगा। इधर धीमे-धीमे ट्रेन चली। मैंने खुशवंत सिहं की ट्रेन टु पाकिस्तान निकाली। सफर में पढ़ने का इरादा इतना ज्यादा हावी था कि शरद जोशी की दिन प्रतिदिन और कमलेश्वर की कितने पाकिस्तान भी साथ थी। और रास्ते में १०० पेज पढ़ भी डाले। (बचे हुए पेज शहर में आने के बाद आज तक शुरू नहीं हो पाए हैं)। साथ ही इतना चौकन्ना भी रहा कि पैसेंजर ट्रेन में सफर का कोई आनंदित करने वाला क्षण चूक न जाए। ट्रेन के साथ दौड़ते पेड़-पौधे, शहर-गांव सबको भरपूर मन, सजग निगाहों से देखता रहा। बचपन में देखी-पहचानी चीजों को देखता तो मन खुशी से उछलने लगता। बस, यह मलाल रहा कि अकेला होने की वजह से यह खुशी समूचे रास्ते अव्यक्त सी रही। पर मैं इस खुशी को अन्तस में इतना भर लेने को उत्कंठित था कि शहर में मिले सारे तनाव, परेशानियां कुछ समय के लिए सही, गायब हो जाएं। ट्रेन में फेरिवाले से खरीदकर नमकीन खाई। पलसाना की स्टेशन पर आइस्क्रीम का लुत्फ उठाया। चौमू की स्टेशन पर सूखे बेर खाए। सीकर में पेठे, तो झुझुनूं स्टेशन पर उतरकर बाहर आते ही दो पेड़े खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर सका। उस स्वाद के प्रति इस आग्रह को देखकर महानगर से ईर्ष्या सी हो उठी, जहां अपने ही भीतर को मारने पर तुले हैं। स्वाद भीतर ही है, बस मौजूदा जिन्दगी की रफ्तार, काम, जबरियां इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं ने उस नैसर्गिक स्वाद को कसैला बना दिया है। अन्तःकरण का स्वतः स्फूर्त अनुभूतियों का सोता सूख सा गया है। हम महसूस करने की शक्ति खो बैठे हैं।
अब प्राथमिकताओं में आगरे के पेठे का स्वाद या चौमू का झड़बेर नहीं आता। न ट्रेन की सख्त बेंच पर बैठे-बैठे खाई जाने वाली आइस्क्रीम है। अब फ्लेवर्ड आइस्क्रीम का आग्रह है, क्योंकि जहां हम बैठे हैं वहां और लोग भी ऑर्डर कर रहे हैं। पड़ौसी के बच्चों को इतने फ्लेवर याद हैं कि सुनकर हम घबरा उठते हैं। शहर में पन्द्रह किलोमीटर पावभाजी खाने इसलिए चले जाते हैं कि अमुक पावभाजी वाला मक्खन ज्यादा लगाता है या पड़ौसी भी वहां जाते हैं। जरा कल्पना कीजिए, क्या रोटियों में मां के हाथ से डले उस मक्खन के स्वाद का दुनिया की कोई भी पावभाजी या पित्जा-बर्गर मुकाबला कर पाएंगे। खैर। समूचे रास्ते, छह घण्टे आनन्द से भरता रहा। काश, यह सफर रोज यूं जारी रह सके। लग रहा था जैसे बचपन की फिल्म रिवर्स चल रही है।
June 02, 2008
कल रात आपने क्या देखा?
April 19, 2008
क्रिकेट में ड्रामा, ड्रामे की क्रिकेट
आईपीएल नाम का यह तमाशा कई प्रकार के मसालों से बनी खिचड़ी है। नूडल्स है। पित्जा है। बर्गर है। सब कुछ है। कुल मिलाकर सुस्वादु सा मामला बन गया है। यह बड़ी बात है कि आज सब कुछ महंगे के बावजूद सुस्वादु चीज भी परोसी जा रही है। कम से कम ४४ दिन तक दिल लगी का सा खेल चलता रहेगा। देश को, देश के कृषि मंत्री के प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने मंत्री पद की जिम्मेदारी के बीच, प्रधानमंत्री बनने के ख्वाबों के बगीचे में दिन-रात टहलते हुए, किसानों की कर्जा माफी का यश लूटने के पुरजोर प्रयासों और सोनिया प्रधानमंत्री पद से दूर रहें इस किस्म की राजनीति के बीच भी क्रिकेट के लिए इत्ता कुछ कर डाला। और करते रहेंगे।
यहां कुछ बुनियादी सवाल खड़े हो गए हैं। यह क्रिकेट है या तीन घंटे की बॉलीवुड फिल्म है। वैसे यह समझने में माथापच्ची करने की कोई जरूरत नहीं। जिनको क्रिकेट समझ में नहीं आती, वे फिल्म के तौर पर देख सकते हैं। और जिनको फिल्म से परहेज है, वे क्रिकेट समझ तीन घंटे मजे से बिता सकते हैं। जिनको दोनों से एलर्जी हो, वे अक्सर कला प्रेमी लोग होते हैं। उनके लिए मजा यह है कि वे चियर गर्ल के डांस में कला के तत्व खोजने की मशक्कत कर सकते हैं। ...और जो तीनों तरफ से रूखे से आदमी हैं, वे तीन घंटे भीड़ का हिस्सा बन इस जिग्यासा में गुजार सकते हैं कि आखिर यहां हो क्या रहा है? हर बंदे के लिए मामला काफी रोचक है। पता भी नहीं लगे और सब कुछ पता भी लग जाए।
दूसरा कठिन सवाल यह उभर रहा है कि जिसका उत्तर खोजा जाना जरूरी है। शाहरुख, प्रीति जिंटा वगैरह भविष्य में भी टिकट बेचते रहेंगे या एक्टिंग वगैरह में भी लौटेंगे। और मान लीजिए टिकट ही बेचते रहे, सारे मैचों में मौजूद रहे तो फिर फिल्मों क्या होगा। यदि क्रिकेट में मन रम गया तो, शाहरुख कोलकाता से ओपनिंग कर सकते हैं। शाहरुख ओपनिंग में उतरे और मोहाली से मैच हुआ तो प्रीति जिंटा गेंदबाजी में हाथ जरूर आजमाएंगी। फिर तो प्रीति गेंद फेंकेंगी और शाहरुख दिल की तरह गेंद को उछाल कैच आउट हो सकते हैं। मामला तब और भी पेचीदा हो सकता है, जब अभिनेता और अभिनेत्री इतनी बार आमने-सामने हुए कि दोनों प्रतिस्पर्धा भूल दिल लगा बैठें और पिच पर ही एक-दूसरे की बाहों में समा जाएं। कुछ भी संभव है।
यदि सितारों ने क्रिकेट सीखा, तो युवराज, धोनी, गांगुली वगैरह इनके संग रह-रह एक्टिंग जरूर सीख जाएंगे। (वैसे अब भी क्रिकटे से ज्यादा एड वगैरह में एक्टिंग करते हैं)। इस तरह इस क्रिकेट में कई खतरे हैं, तो मजे भी हैं। हो सकता है पंवार साब आगे चल प्रधानमंत्री बन जाएं, तो क्रिकेट के लिए काफी कुछ कर सकते हैं। क्रिकेट सीखने पर सब्सिडी दे सकते हैं। जिन देशों की यात्रा निकलेंगे, वहां क्रिकेटर्स को भी साथ ले जाएंगे। मैचों के जरिए मैत्री को प्रगाढ़ करेंगे। मुशरर्फ को क्रिकेट के मैदान में चुनौती दे सकते हैं। आने वाले कुछ दिनों तक देश वासियों को ऐसे-वैसे ही खयाल आते रहेंगे। लगेगा, यह देश पंवार साब और उनका बोर्ड ही चला रहा है।
April 16, 2008
महंगाई के साथ बयानबाजी के कुछ प्रयोग
महंगाई पर सारी बकवासबाजी के बाद देश के कृषि मंत्री कम क्रिकेट मंत्री भी बयानों की श्रृंखला में अपना योगदान देंगे। यह योगदान अहम होगा, क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था, महंगाई और भविष्य की कुछ तस्वीर होगी। उनके बयान की कुछ भनक लगी है, जिसका लब्बोलुआब यह है-
...तो साथियो, आप सभी जानते हैं कि महंगाई के बाउंसर लगातार जारी हैं। आज सुबह से आप-हम भी खूब झिक-झिक कर चुके हैं। यह सच है कि महंगाई की इस विकट क्रिकेटबाजी से आम आदमी इत्ती बार बोल्ड हो चुका है कि अब क्रीज तक जाने की उसकी हिम्मत नहीं बची। वह झोलेनुमा बैट उठा बाजार रूपी क्रिकेट के मैदान की ओर जाने से डरता है, क्योंकि उसे वहां से फिर बोल्ड होकर लौटना है। वह हमेशा गिरे हुए विकेट की तरह रहता है। लेकिन घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हार-जीत लगी ही रहती है। आज हारे, कल जीते। यूं भी महंगाई आजकल ऑस्टरेलिया सी टीम हो गई है। चाहे जब पीट देती है। चाहे जिसको पीट देती है। लेकिन ध्यान रखें, उसे हमने हराया है, इसे भी पछाड़ देंगे।
जल्द ही आईपीएल शुरू कर रहे हैं। देश की क्रिकेट अर्थव्यवस्था में यह मील का पत्थर साबित होगी। हमने दाल से भी सस्ते टिकट रखे हैं। इसलिए, बाजार जाने की बजाय आदमी, क्रिकेट मैदान का रुख करे तो उसे ज्यादा सुकून मिलेगा। मजदूरी से लौटकर आदमी शाम के भोजन की चिन्ता न करे। सीधा स्टेडियम पहुंच जाए। इस तमाशे का आधी रात तक आनन्द उठाए। भूख की क्या चिन्ता। उपवास प्रिय देश है हमारा।
...तो महंगाई का कुछ यूं भी मुकाबला किया जा सकता है।
April 14, 2008
...गर मनमोहनजी सब्जी बेचने निकलें?
वैसे इस टिकटमारी में कई धांसू सीन बन रहे हैं। उधर, प्रीति जिंटा खुद मोहाली में दुकान पर शानदार काउंटर जमा कर बैठी हैं। आइए, आइए, मैं खुद यानी हीरोइन प्रीति जिंटा टिकट बेचने निकली हूं। यह कोई आलू, तरकारी नहीं है, जो यूं मुंह मोड़कर निकल जाओ। शुद्ध, खांटी क्रिकेट का टिकट है। ले जाइए, सब्जी से भी सस्ती। दाल-चावल, चीनी से भी सस्ती। राम कसम इतने किफायती दामों में पिक्चर का टिकट भी नहीं मिलेगा। यहां आपको क्रिकेट का टिकट मिल रहा है। आइए, पसंद कीजिए और ले जाइए। ५०, १००, १५०, २०० जो भी मन को भाए, ले जाएं। खुद भी लें औरों को भी दिलाएं। एक बार लेंगे, बार-बार आएंगे। नहीं लेंगे, पछताएंगे। इसमें सब कुछ होगा। क्रिकेट भी होगी, छक्के भी होंगे। क्रिकेट न भी हुई तो बिल्लो रानी का शानदार डांस जरूर होगा। महंगाई से निराश हैं, तो मैदान में आकर मन बहलाएं। आपकी कसम, यह झूठ नहीं है। इस तरह प्रीति जिंटा दोपहर तक बैठीं। पर टिकट क्या हुई, सब्जी हो गई। नहीं बिकी। खुद के बैठने के लिहाज से टिकट नहीं निकले। दर्शक न जाने क्या भाव से हो गए हैं, जो पहुंच से एकदम बाहर। या शेयर सूचकांक से हो ऊपर चढ़ गए हैं। हीरोइन को कित्ती चिरौरी करनी पड़ रही है कि भइया नीचे उतरो, ठिकाने पर लौटो। अभी विजय माल्या, मुकेश अम्बानी वगैरह भी शुभ मुहूर्त देख शटर उठाने वाले हैं। अम्बानी को तो सब्जी वगैरह बेचते-बेचते अच्छा-खासा सा अनुभव हो गया। थोक के साथ खुदरा में भी बेच लेंगे। और भी कई घराने खुदरा पर उतर आए हैं।
इससे एक बात तो साफ हुई। इन लोगों को भी पता लगा गया कि टिकट वगैरह बेचना कितना कठिन काम है। वैसे भी महंगाई के जमाने में पब्लिक टिकट कैसे खरीदे। आटे-दाल के भाव से पगलाया आम आदमी टिकट की कैसे सोचे। वह सब्जी मण्डी की ओर निकलने का साहस जुटाए कि मैच देखने के मंसूबे पाले। भाव सुनकर गश खा जाने वाला आदमी टिकट खरीदने के लिए होश कहां से लाए। उसके लिए काफी विकट सी चीज हो गई है टिकट। यह तो शरद पंवार टाइप नेताओं के बस की ही बात है, जो महंगाई के जमाने में कृषि मंत्रालय भी संभाल रहे हैं और क्रिकेट, विश्व क्रिकेट भी।
यदि एक बार मनमोहन सिंह भी सब्जी की दुकान खोल लें, तो पता चल जाए कि सरकार चलाने और सब्जी बेचने में कितना फर्क है। सरकार भले ही, तमाम लेफ्ट, राइट, फ्रन्टबाजी के बावजूद चल जाए, सब्जी बेचना कोई सरकारों का खेल नहीं।
April 11, 2008
नजरें जो घड़ियाल हो गई हैं...
वाम मोर्चा की हालत इनसे खस्ता। सरकार में रहकर कैसा बैर। लेकिन राजधर्म से ज्यादा बैर धर्म निभाने की मशक्कत में जुटे हैं। बैर करके भी सरकार में बने रहने की कला। अन्दर सहमत, बाहर असहमत। बाहर सहमत, तो अन्दर असहमत। या जैसा होना है, वह दिखाना नहीं। जो दिख रहा है वैसा होना नहीं। अजीब कलाकारी है। यह क्या कम जादुई काम है। फिर सरकार पर बराबर नजर रखना कि परमाणु डील कहां तक पहुंची। दिन में चार बार परमाणु डील का जिक्र। डील का नाम ले-ले सरकार को गरियाना। इनकी हालत आम आदमी से गई गुजरी। सरकार गिराने की धमकी और बनाए रखने की मजबूरी। कैसा अन्तर्विरोध पाले पड़ा है, जो न चुनाव करवाने देता है और ना सहमत होने की मंजूरी देता है।
तीसरे मोर्चा को पता नहीं महंगाई किस चिड़िया का नाम है। उनकी चिन्ता है, उनका जनाधार नहीं बढ़ रहा। उनकी कवायद खुद को तीसरा मोर्चा बनाए रखना है। रह-रहकर ऐसी कोशिशें करना और उनको अमलीजामा पहनाने की कुचेष्टा करना। हारे हुए लोग इकट्ठा होकर सरकार बना लेने का सपना देखें, इसी का नाम तीसरा मोर्चा है। अब महंगाई कहां नजर रखें। नजरें पता नहीं कैसी घड़ियाल टाइप हैं, जो उधर उठती ही नहीं। न गिरती मुद्रा स्फीति की तरफ उठती हैं और ना चढ़ती महंगाई पर चौंकती हैं।
April 03, 2008
गायब होने का उम्दा भारतीय कौशल
नेताजी को गायब होने की विधा विरासत में मिली। बाप ने बेटे को संभलाई। बेटे ने बेटे को या चाचा, भतीजा, भाई वगैरह जितने भी खूनी रिश्ते हैं, उन्होंने सबने गायब होने की कला सीख ली। और सब आज तक पूरी कुशलता और धूर्तता से गायब हैं। सांसद-विधायक चुनाव जीते और पूरे पांच साल के लिए गायब। चुनाव की आहट हुई। तब इनका बयान आया। तिथि घोषित हुई। तो रोनी-धोनी सूरत लेकर लाव-लश्कर के साथ खुद प्रकटे। चुनाव का कुंभ सम्पन्न। जीते तो गायब। हारे तो भी गायब। गायब हर हाल में होना है। सदन में पहुंचे, तो वहां दर्शन नहीं। दर्शन तो, प्रर्दशन नहीं। क्षेत्र की समस्याएं उठाने का वक्त आया, तो गायब मिले। मुद्दे उठने के इंतजार में दम तोड़ बैठे। ये उठकर गए, तो लौटे नहीं।
गायब और भी बहुत से हैं। साठ वर्षों से उन्हें लोग खोज ही रहे हैं। चप्पलें घिसी जा रही हैं। जूते इसलिए चमकाए जा रहे हैं, ताकि चमक उतारी जा सके है। लोगों के लिए सड़कों की चलने से ज्यादा इस काम में अधिक उपयोगिता है। सड़कों पर बिछी डामर जनता के जूते-चप्पलों की चमक फीकी करने के बखूबी काम आ रही है। जिसे ढूंढने का उपक्रम करो, वही गायब। सरकारी दफ्तर जाओ तो बाबू गायब। एक नहीं, कई-कई दिन गायब। गायब होने का उम्दा प्रर्दशन। जादुई प्रर्दशन। जनता हैरान, परेशान, चमत्कृत। सिर धुनती हुई, खुजाती हुई। कुर्सी को कोसती हुई। अफसर से शिकायत करने पहुंचो तो वो खुद गायब। सिर्फ कुर्सी मौजूद है। उससे ऊपर जाओ तो वो भी गायब। हर ऊपर वाला गायब। अब करो शिकायत।
गायब होने की लम्बी फेहरिश्त। सब कुछ होकर भी गायब है। नल है, पानी गायब। बिजली के तार हैं। बिजली की बातें है। बिजली उत्पादन के चर्चे हैं। पर बिजली गायब। गांवों में बच्चे पढ़ने बैठते हैं, बिजली गायब। सदन है, संसद है, नेता गायब। नेता हाजिर, तो मुद्दे गायब। मुद्दे भी हों, नेता भी हों, तो बहिस्कार कर तुरंत गायब। अजीब मर्ज है। हैं भी, नहीं भी। यानी होकर भी नहीं हैं। सच क्या है, झूठ क्या है? समझ से परे है।
यह नदारद होने का इंडियन कौशल है। अब अमरीका की साइंस खोज क्या कर लेगी। हमारी गायब कला से क्या मुकाबला।
April 02, 2008
महंगाईबाजी बनाम कमेटीबाजी
यह बात तो ठीक, लेकिन महंगाई फिर भी नहीं रुकी तो उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा। सरकार या कमेटी? शायद कमेटी। नहीं, सरकार। या दोनों। कुछ भी हो सकता है। दोनों जिम्मेदारी लेने से इनकार भी कर सकती हैं। केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहरा सकती है। बदले में राज्य सरकारें इतना सा करेंगी कि वे केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा देंगी। लो, हो गई जवाबदेही तय। खैर।
मेरे खयाल से कमेटी न महंगाई रोकेगी, न जतन करेगी और न कोई ऐसा-वैसा काम करेगी, जिससे महंगाई महंगाई को शर्मिन्दा होना पड़े यानी रुकना पड़े। वह बस, सुझाव देगी। उससे महंगाई रुके तो उसकी मर्जी वरना उनका काम पूरा। यानी एक अच्छी सी रिपोर्ट देगी। जैसा कि कमेटियां दिया करती हैं। और रिपोर्ट से पहले अच्छा-खासा समय लेगी। कमेटियों का काम समय लेना होता है। उनके गठन से एक नारा सा ध्वनित होता है- तुम मुझे समय दो, मैं तुम्हे रिपोर्ट दूंगी। सचमुच सरकार नहीं बदले तो अर्से बाद एक रिपोर्ट आ जाती है। जब तक महंगाई और बढ़ लेती है। वह किसी रिपोर्ट का इन्तजार नहीं करती। फिर उसे रोकने के लिए एक और कमेटी के गठन की गुंजाइश निकल आती है। नई सरकार हुई, तो इस बात के लिए ही एक और कमेटी बना सकती है कि पिछली कमेटी ने क्या किया? (जिन्हें मंत्रीमण्डल में स्थान नहीं मिलता, उन्हें कमेटी में मिल जाता है)। वह न महंगाई पर विचार करती है, न रिपोर्ट पर। उसका काम बस इतना रह जाता है कि पिछली कमेटी की रिपोर्ट कितनी सही थी। इस तरह अच्छी-खासी कमेटीबाजी हो लेती है- बिलकुल महंगाईबाजी की तरह।
इस कमेटी से भी ऐसी ही उम्मीद के सिवा कुछ नहीं रखें। रखें तो अपने रिस्क पर।
March 29, 2008
कौन है यह मल्लिका साराभाई?
पता नहीं।
तूने नाम सुना है पहले।
नहीं तो...तुमने?
मैंने भी नहीं सुना।
फिर?
फिर क्या?
(सवाल यह था कि फिर क्यों छापा जा रहा है।)
खैर, सहवाग ने कितने बना लिए?
तिहरा शतक ठोक दिया।
पहले भी तो ठोक चुका है।
हां, पाकिस्तान के खिलाफ।
देखना कल की हैडिंग होगी-सहवाग ने किया अफ्रीका के स्कोर को फीका।
यह भी हो सकती है कि मुल्तान के सुल्तान का जलवा।
(यह थे दो युवा पत्रकारों के बीच वार्तालाप के अंश, जिनमें एक पत्रकार अच्छी-खासी रिपोर्टिंग करते हैं, और दूसरे एक महत्वपूर्ण पेज का दायित्व संभालते हैं।)
मशहूर भरतनाट्यम डांसर मल्लिका साराभाई शहर में थीं, और उनका इंटरव्यू जा रहा था। उनका आश्चर्य इस बात को लेकर था कि हमने आज से पहले मल्लिका साराभाई का नाम कभी नहीं सुना, फिर ऐसा क्या है कि इसका इंटरव्यू इतने महत्व के साथ दिया जा रहा है।
March 18, 2008
जंक्शन का सीन देख कष्ट दे गया स्मृतियों में आया गांव
दरअसल आज सुबह मैं पिताजी को छोड़ने जयपुर जंक्शन पर गया था। वहां इन मस्ताने युवाओं की टोली को ढप के साथ नाचते-गाते देखने का यह निराला अनुभव था। महानगरीय प्रसव पीड़ा से छटपटाते शहरों में में ऐसे दृश्यों की कल्पना ही बेमानी है। शुरू-शुरू में मेरी तरह हर कोई उन्हें स्टेशन पर देख चौंक रहा था। लेकिन इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। यहां ऐसे दृश्यों से सामना होने पर गांव से आकर शहरों में स्थापित हुए लोग कनखियों से देख इसलिए निकल लेते हैं, कि कहीं उनके अन्दर के देहाती को कोई पहचान ना ले। ( हमारी अधिकांश शक्ति अपने अन्दर के देहाती को मारने में जाया होती है।) खैर, वे नाचने-गाने में इतने मशगूल थे कि उन्हें ऐसी किसी चीजों से मतलब होना भी नहीं था। वे जयपुर कमाने-धमाने आए ग्रामीण युवा थे और होली पर गांव लौट रहे थे। गांव की होली उन्हें बुला रही थी। जाते समय उन्होंने दोस्तों के साथ अपनत्व भरी होली खेली। नेह के रंग-गुलाल मले। और विदाई की वेला में यहीं से ढप, मंजीरे, बांसुरी का इन्तजाम कर लिया। ट्रेन के इन्तजार में वे फागुनी रसिया प्लेटफॉर्म पर ही रंग जमाने लगे। वहां सैकड़ों लोग और भी थे, जो गंतव्य के लिए अपनी-अपनी ट्रेनों के इन्तजार में चहल-कदमी कर रहे थे।
यह सीन देख गांव की यादें ताजा होना लाजिमी था। मेरी स्मृतियों में गांव का फागुन आ बसा। वे भी क्या दिन थे, जब एक माह पहले ही होली का डांडा रोपा जाता। गांव की गलियों से लेकर घर-घर से होली के गीतों की अनुगूंज सुनाई पड़ती। पेड़-पौधे नया बाना धारण कर लक-दक हो उठते। खेतों से उठती सरसों की गंध से सारा माहौल प्रमुदित हो उठता। चारों तरफ से फाग झरने लगता। अन्तर्मन आल्हादित हो जाता। हर शख्स अलबेला मस्ताना सा नजर आता। बच्चे लोग जहां गांव की गलियों से लेकर खेतों तक चांदनी रात में लुका-छिपी का खेल खेलते, वहीं लड़कियां दस-बीस के समूह में मौहल्ले-मौहल्ले में गीतों भरी सांझ संजोती। इनसे बचना नामुमकिन था। रात को गांव में दो-तीन जगह होली का दंगल होता था। उनमें होली के गीतों भरा कॉम्पिटिशन होता। आधी रात बाद तक चलता रहता यह दौर। बीच-बीच में धरे जाते स्वांग बांधे रखते थे। हम बच्चे दिन में क्लास में ही तय कर लेते थे कि आज कैसे छुपकर घर से निकलना है, क्योंकि वे परीक्षाई दिन होते थे। घर वाले पढ़ने पर जोर देते, और हम रात को स्वांग देखने की तिकड़में खोजते रहते। मैं और मेरा दोस्त हमारे घर की छत पर बल्ब लटका पढ़ते थे और घर वालों के सो जाने के बाद छत से कूदकर फरार होते थे। बीस-पच्चीस दिनों की उस उत्सवधर्मिता से कटे रहना वाकई असंभव था। कई लोग अलगोजा इतना शानदार बजाते थे, कि आज शहर में आकर उनकी उस कला का अहसास होता है। ज्यादातर ग्वाले, किसान ही ढप, अलगोजा, झांझ-मंजीरे बजाने में निष्णात थे। उन्होंने इन्हें सीखने के लिए कहीं, किसी डिप्लोमा पाठ्यक्रम में एडमिशन नहीं लिया। वहीं गलियों, खेतों, पशुओं के पीछे भागते-भागते सुर फूंकते-फूंकते सीख गए। शुरू-शुरू में अनगढ़ से, बेसुरे से, लेकिन निरन्तर अभ्यास से इतने प्रवीण होते गए कि वह कर्णप्रिय आवाज आज भी कानों में गूंजती है। सच, वैसी मिठास राजधानी में कई बड़े-बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी नहीं हुई।
लेकिन पिछले दस-पन्द्रह साल में गावों की यह कला भी गर्दिश में है। दिल में हूक सी उठती है। अब होली पर गांव जाते हैं- वैसे नजारों की कल्पना में खोए, लेकिन वह सब नहीं देख निराशा होती है। गांव के लोग एक-दूसरे से कटे हैं। शहरों जैसे सैटबैक छोड़े जा रहे हैं दिलों के बीच। इतनी जूतमपैजार सदनों में विरोधी नेताओं के बीच भी नहीं होती, जितनी दो दलों के समर्थक पड़ोसियों में हो जाती है। साल भर एक-दूसरे से इसलिए खिंचे रहते हैं कि फलां अमुक पार्टी का समर्थक है। लट्ठम-लट्ठा आम बात है। बिना मारपीट, या घोर तनाव के वोटिंग नहीं होती। जलन, ईर्ष्या घोर चरम पर हैं। केस-मुकदमों की संख्या बढ़ रही है। भाई-भाई खून के प्यासे हैं। जनप्रतिनिधियों ने इस कमजोर नस को पकड़ा है। विकास के वादों की बजाय वे केस-मुकदमों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं।
ऐसे में बताइए कहां वह गांव, कहां वह होली, और कहां वह निरापद, निराला आनन्द? जब-जब स्मृतियों गांव जुटता है, कष्ट ही देता है।
March 13, 2008
एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को
तो खिलाड़ी लौट के देश आ गए। उनको आना ही था। जाते कहां? ओलम्पिक की फ्लाइट वे पकड़ नहीं पाए थे। कहा गया, देश अस्सी साल में पहली बार ओलम्पिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाया। इसके लिए कई चश्मों, नजरियों और वैचारिक दिमागों ने जोर लगाया। अपने हिसाब से कई कारण गिनाए गए, हल भी सुझाए गए। अब इनसे पूछा जाए, ये विश्लेषण पहले कहां थे? क्या हम पागलपन भरी उम्मीद से थे कि हॉकी का ओलम्पिक जीत ही लाएंगे? कब तक ध्यानचंद के ध्यान में हॉकी के खयाली ओलम्पिक जीतते रहेंगे? यह सुखद सलौना सपना कब टूटेगा? हॉकी का ग्राउण्ड क्या है? जहां फैडरेशन ही हॉकी के मैदानों की हरी-भरी घास चरने की जिद्द पर अड़ी हो, वहां क्या तो खिलाड़ियों की पौध तैयार करेंगे और क्या ओलम्पिक जीतेंगे? हम हॉकी की हुंकार क्यों भरते हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और यह कंगूरा हम हर हाल में माथे पर चिपकाए रखना चाहते हैं। हम अपनी औलाद को तो क्रिकेट में ठेल रहे हैं, बाकियों से उम्मीद करते हैं वे ही हॉकी में कुछ करें। हर बच्चे में एक भावी सचिन की खोज जारी है। बच्चों को महंगे क्रिकेट क्लबों में भेज रहे हैं। क्रिकेट का भविष्य संवारने की जिद्द के चलते महंगे विदेशी कोच आयात कर रहे हैं। सनकपन की हद तक क्रिकेटरों को मण्डी में खड़ा कर बोलियां लगा रहे हैं। देश के हर ग्राउण्ड को हम क्रिकेट ग्राउण्ड में बदल डालने को कृत संकल्पित हैं। किसी भी हालत में, क्रिकेट मैच की टिकट हथिया खुद को धन्य समझ और हॉकी की दुर्दशा पर हाय-हाय करने वाले लोग हैं हम। चौके-छक्कों पर तालियां बजा, मौका लगते ही हॉकी को गरियाने वाले लोग हैं हम। कसम खाइए, कितने लोग हॉकी खिलाड़ियों के नाम जानते हैं?
अभी तक हॉकी की हार पर काफी अनर्गल प्रलाप हो चुका। सिर धुने जा चुके। अब कुछ सार्थक सोचिए, आखिर सोचने वालों का देश है हमारा। उधर देखिए, मैदानों में लटें घुस गई हैं। इल्लियों का जमावड़ा है। कुतर-कुतर हॉकी खाने के मजे हैं। स्टिक को दीमकें खोखला कर रही हैं। खिलाड़ियों का डीए भी कुतरने से गुरेज नहीं।
इन हालातों में भी फैडरेशन का अध्यक्ष कुर्सी से चिपका है। देश मैदान छोड़ आया, और ये कुर्सी तक नहीं छोड़ना चाहते। एक बेशर्म जिद्द सी है। ऐसे हालात में क्या आपको अब भी लगता कि
एक गिल ही काफी है, हॉकी का गुलिस्तां बर्बाद करने को।
March 05, 2008
सॉफ्टवेयर महोदय, यह भी भविष्यवाणी करते जाओ
March 01, 2008
लड़कियां तो साइकिल फिर भी नहीं चलाएंगी?
लेकिन अफसोस, सीन इससे कुछ उल्टा है। सीन कुछ यूं बन रहा है कि लड़कियां पगडंडियों के किनारे हैं और उन्हीं के भाई या अन्य लड़के उन साइकिलों पर मस्ती करते या राह में लड़कियां छेड़ते मुंह चिढा़ रहे हैं। दरअसल साइकिलें इश्यू हुई लड़कियों के नाम और अब उन पर सवार हैं उनके भाई, पिता या अन्य पड़ौसी, रिश्तेदार।
साइकिलों का यह किस्सा राजस्थान का है। सरकार ने पिछले बजट में यह घोषणा की थी कि स्कूली छात्राओं को ३०० रुपए में साइकिल दी जाएंगी। उसकी परिणति अब अगले बजट के बाद हो रही है। तब तक कुछ लड़कियां साइकिलों पर बैठने की हसरत लिए अगली कक्षाओं में पहुंच गईं, तो कुछ स्कूल छोड़ गईं या फिर कुछ बाली उम्र में ही उनकी मर्जी के बगैर पिया संग भेज दी गईं।
दिखने में यह बात काफी हल्की भी लग सकती है और मजाक में भी उड़ सकती है। लेकिन ऐसा मैंने कुछ गांवों में देखा है। जिन लड़कियों के नाम पर साइकिलें ली गईं, उनका अधिकार बस दस्तखत भर करना था। अब वे घर के पुरुषों की थाती हैं। वे उन पर घूम सकते हैं। बाजार जा सकते हैं। खेत से चारा ला सकते हैं। और नहीं तो उनके भाइयों के लिए आवागागर्दी का जरिया तो बन ही सकती हैं। लड़कियां पहले की तरह पैदल आती हैं। बस से आती हैं या फिर अन्य उपलब्ध साधनों से। संभव है उन्हें हिदायतें भी मिलीं होंगी कि खबरदार, साइकिलों के हाथ जो लगाया। पुरुष मानसिकता के बोझ से दबे घरों में यह कोई आश्चर्य नहीं है।
इसके विपरीत हो यह भी सकता है कि घर के पुरुष लड़कियों को सपोर्ट करें। उन्हें खुद साइकिल सिखाएं और चलाने के लिए प्रेरित करें। उनमें आत्मविश्वास जागृत करने का यह पहला पायदान हो सकता है। इसके विपरीत उनके मन में यह पैबस्त किया जाएगा कि साइकिल वगैरह चलाना लड़कियों का काम नहीं है। वे दिल में यही डर मिश्रित हिदायत लिए कॉलेज चली जाएंगी या फिर ससुराल। स्कूल वालों को भी शायद ही जिम्मेदारी का अहसास हो कि वे ही कुछ पहल करें।
...गांव की आत्मा निस्संदेह ही कष्ट पा रही होगी।
February 28, 2008
आया मौसम बजटियाने का...
February 22, 2008
नौटंकी शैली की क्रिकेट में नाचेगी बसंती
February 20, 2008
आज बेटियों के ब्लॉग की चर्चा राजस्थान पत्रिका में
February 19, 2008
एक और चीरहरण...
एक और चीरहरण...
चौराहे पर
कांप रही अबला
है तैयारी
एक और चीरहरण की।
खौल रहा
किसका खून
चुप हैं पांडव
आस नहीं
कृष्ण शरण की।
अबूझ पहेली सी
विषण्न मन
विस्फारित आंखें
कैसे उड़े
उन्मुक्त गगन
कतर दी पांखें
मौन सिला सी
प्रतीक्षारत्
ईश चरण की।
कोमलांगी
नर की
अतृप्त इच्छाओं का
मोल पाश्विक वृत्त
से बुभूक्षित आंखों में
रूप राशि
रहा वह तौल
बस, अभ्यस्त हाथों ने
निभा दी रस्म
.....अनावरण की।
February 18, 2008
इस विरह के भय ने डरा रखा है
February 17, 2008
ब्लॉगर्स जैसा भाईचारा, अपनत्व कहीं नहीं
February 16, 2008
ब्लॉगिंग क्यों बन रही है अनिवार्य?
February 15, 2008
लिखने के ढेर सारे कारण और टिप्पणियों से दुरुस्त होना मूड का
दुषित पानी से मौतें और एक मंत्री कहता है कि यह सृषि्ट का नियम है जो आया है, सो जाएगा?
राजस्थान की राजधानी जयपुर में पिछले कुछ माह से दूषित पानी से मौतों के समाचार आ रहे हैं। आरोप है कि जलदाय विभाग की पाइप लाइनें और सीवरेज लाइनों के मिल जाने से पानी दूषित हो रहा है। इस पर कल जिम्मेदार मंत्री का बयान आया कि यह प्रकृति का उसूल है कि जो आया है, सो जाएगा। यह एक मंत्री का बयान मात्र नहीं है। इस बयान के आईने में एक सत्ता का चरित्र साफ देखा जा सकता है। मिनरल वाटर पीकर एसे गैर जिम्मेदार बयान देने वाले मंत्री शायद यह भूल रहे हैं कि वे जिस आने-जाने के ब्रह्म वाक्य की बात कर रहे हैं, कल चुनाव में उन्हें और उनकी सरकार को उसी जनता के सामने जाकर रिरियाना है। वे ही सब्जबाग उन्हें फिर दिखाने हैं। साफ पानी के वादे भी उन्हें करने हैं। तब वही जनता भी उन्हें परिवर्तन का पाठ सिखा सकती है।इस समूचे परिदृश्य पर गौर करें तो इस हमाम में सभी की नंगई दिखेगी। मंत्री, अधिकारी, ठेकेदारों तक सबकी मिलीभगत का परिणाम है यह हादसा। आरोपों के बचाव में एसे बयान देने की बजाय पाइप लाइनें चैक की जाएं। गलती का सूत्र ढूंढा जाए। और यदि कोई आरोपी है तो उसकी पहचान की जाए तो न उनकी किरकिरी होगी और न उन्हें एसे बयान देने की नौबत जाएगी।
February 14, 2008
आपके लिखने से क्या हो जाएगा?
February 13, 2008
...तो फिर यह मुम्बई आपको ही मुबारक?
February 12, 2008
परदेसी, तू मरने के लिए यहां आया था क्या?
February 11, 2008
बाबा आम्टे को भारत रत्न क्यों दिया जाए?
February 10, 2008
बाबा आमटे कोई अमिताभ बच्चन है क्या?
February 09, 2008
मुरदा संवेदनाओं का सबब गुरदा काण्ड
गुरदा डीलर पकड़ा गया और जितनी किडनी निकालना कबूला है, उसे सुनकर एकबारगी विश्वास उठ सकता है चिकित्सकीय पेशे से। लेकिन पूरी तरह एसा भी नहीं हो सकता। कुछ डॉक्टर आज भी अपने पेशे के प्रति निहायत ही ईमानदार हैं और एसे डॉक्टर मेरे परिचित भी हैं, जिनके बारे में मैं दावे से कह सकता हूं कि कम से कम वे न तो ऑपरेशन करते समय मरीज के पेट में औजार छोड़ेंगे और न ही मरीज को ऑपरेशन टेबल पर लिटा कर लूटने का उपक्रम करते होंगे।मेरे एक रिश्तेदार ने कल आपबीती सुनाई। यह महज एक घटना है और रोज न जाने किस कोने में, कहां-कहां एसी घटनाएं अंजाम को प्राप्त होती होंगी। दरअसल वे पिछली साल राजस्थान के चूरू जिले में थे, जब उन्हें सीने में कुछ ददॆ महसूस हुआ। वे झुझुनूं आने वाली बस में बैठ चुके थे।(दोनों की दूरू ५२ किलोमीटर है)। रास्ते में ददॆ असहनीय हो उठा। सांस धोंकनी सी चलने लगी। झुझुनूं पहुंचते-पहुंचते सांसे पूरी तरह उखड़ने लगी। उन्हें लगा, शायद डॉक्टर तक भी मुशि्कल पहुंच पाएं। वे बस स्टैण्ड के पास ही एक डॉक्टर जिसको वे दिखाते रहे हैं, के पास पहुंचे। भले डॉक्टर ने उनकी हालत देख तत्काल एक्सरे किया। एक्सरे देख वे दंग रह गए। बकौल रिश्तेदार, फेफड़ा फट गया। डॉक्टर ने उन्हें तुरन्त दूसरे डॉक्टर के पास भेज दिया, यह कहते हुए कि अभी ऑपरेशन करना होगा। उस डॉक्टर के पास गए तो उसने उनकी मरणासन्न हालत को नजरअंदाज करते हुए कुछ दवाएं लिख दी और फीस के पैसे वसूल लिए। वे तत्काल पहले वाले डॉक्टर के पास गए और सारी समस्या बताई। यह भी डॉक्टर ही था, जो मरीज की जान बचाने को चिंतित था। उसने गुस्से में साफ कहा कि वह डॉक्टर कुछ पैसे लेना चाहता था, उसके बाद ही ऑपरेशन करता। (हालांकि भुगतभोगी जानते हैं, सरकारी अस्पतालों में यह कोई नई बात नहीं रह गई है।) उन्होंने फिर एक डॉक्टर के पास भेजा और उसे फोन कर समस्या से अवगत कराया। रिश्तेदार मरीज की किस्मत अच्छी थी और उस डॉक्टर ने जाते ही ऑपरेशन कर दिया और उनकी जान बच गई।
वे रिश्तेदार सीने में थोड़ी प्रॉब्लम लेकर कल ही इस आस में मेरे पास आए थे कि मैं जयपुर में उन्हें किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाऊं।यह एक उदाहरण है। गौर करेंगे तो लाखों प्रकरण हैं इदॆ-गिदॆ। यहां अच्छे डॉक्टर भी हैं। और जितने अच्छे डॉक्टर हैं उनसे बुरे भी यहीं मौजूद हैं। उद्दाम लालसाओं ने उन्हें शैतान बना डाला है। तभी तो गुरदा काण्ड जैसे हादसे समाज, सभ्यता, कानून सबके चेहरे पर कालिख पोतते रहते हैं।